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फेसबुक लाइक कोई पैमाना है?

गांव का एक लड़का है। फेसबुक, इंस्टाग्राम और यहां तक कि ट्विटर पर भी एक्टिव है।

सोशल मीडिया के बारे में मुझे पक्का विश्वास है कि वह शहरों से अधिक गांवों में लोकप्रिय है। गांवों को सोशल मीडिया की अधिक आवश्यकता रही है। वही दस बीस चेहरे रोज़ देखना वही खेत के मेड़ की लड़ाई, वही हर रैवाण में दिखने वाले लोग, काम करने उसी रास्ते खेत जाना और आना। वही बोरड़ी और वही बुआड़ी। इसलिए गांव के लोगों के लिए दुनिया देखने, उनके बीच पंचायती करने के लिए सोशल साइट्स अद्भुत सुविधा बनी।

शहरी लोग काम करने को यात्राएं करते हैं। उनके सहकर्मी बदलते रहते हैं। कभी जाम, कभी केंसिल होती बस रेल सुविधाएं उनको नए चेहरे और रास्ते दिखाती रहती हैं। वे मॉल्स में जाकर, मल्टीप्लेक्स में जाकर, पब में जाकर अपनी ऊब को स्थानांतरित करते रहते हैं। वे शहरी जो गरीब हैं, सम्पन्न शहरियों की जीवनशैली की आलोचना और ईर्ष्या में स्वयं को बिताते रहते हैं। शहरों की ऊब और गांव की ऊब में केवल गति का अंतर है। गांव में मारक शिथिल गति से ऊब सरकती है जबकि शहरों में द्रुत गति से ऊब फ्लाईओवर लांघती जाती है।


गांव के इस सरल लड़के का राजनीतिक ज्ञान, नीति की जानकारी, धर्म, धार्मिक ग्रंथों, इतिहास का ज्ञान उच्च कोटि का है। वह तीखी बहसें करता है। हर बात का जवाब खोजकर लाता है। फ़र्ज़ी ख़बरों की सैंकड़ों वेब साइट्स के लिंक उसने सहेज रखे हैं। ये साइट्स उसके लिए वेद और पुराण हैं। जहां इनकी सीमा आ जाती है वहां उसका अपना एक वेद वाक्य है। "तुम जैसे सूतियों के कारण ही हम पिसड़े हुए हैं"

उसकी प्रोफ़ाइल पर डेढ़ हज़ार से चार हज़ार रिएक्शन प्रति पोस्ट होते हैं।

आपको लगता है कि फेसबुक लाइक कोई पैमाना है और सोशल साइट्स जीवन का अनिवार्य अंग है तो ये झोला उठाकर चल देने का सही समय है और जाना सीधा मनोचिकित्सक के पास है। 
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तस्वीर बाड़मेर के मोखी नम्बर आठ माने मोक्षधाम की एक अग्निवेदी में सो रहे अघोरी की है। प्रणाम।


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