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प्यास भड़की है सरे शाम...

यात्रा वृतांत : चौथा भाग

मनवार शब्द का शाब्दिक अर्थ है आग्रह. अब तक धार्मिक पर्यटन पर निकले परिवारों के पच्चीस से पैंतीस आयु वर्ग के नए गृहस्थों की टोली जो मोबाइल पर ऊँची आवाज़ में बात करने, गाने सुनने और चुहलबाजियों में व्यस्त थी, एकाएक अच्छे मेजबानों में रूपायित हो गयी. हम सब के भोजन के बाद देसी घी से बनी मिठाई के डिब्बे हमारे कूपे में भी दाखिल हुए और बच्चों को पकड़ लिया. खाओ, अरे पापा मना नहीं करते हैं, तो क्या तुम मिठाई खाते ही नहीं, ले लो बेटा. इस तरह की मनवार से कोई कैसे बच सकता है.

वैसे भी राजस्थान के लोग मेजबानी और मनवार में अतुलनीय हुनर के धनी होते हैं. अट्ठारह सौ में बंगाल आर्मी में कमीशन लेकर आया केडेट जेम्स टोड कुछ साल मराठों को संभालने के लिए नियुक्त रहा फ़िर उसे राजपुताना में जासूस और निगोशियेटर बना कर भेज दिया गया. वह यहाँ आते ही मनवारों के सम्मोहन में गिरफ़्तार होकर कम्पनी और महारानी के आदेश को भूल गया. उसने पर्यटन किया. अद्भुत राजस्थान की भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं को दर्ज किया. उस कर्नल जेम्स टोड की लिखी पुस्तक "एन्नल्स ऐंड एंटीक्युटीज़ ऑफ़ राजस्थान" को आज भी राजस्थान का सच्चा और इकलौता इतिहास ग्रंथ माना जाता है.

दोपहर के भोजन के बाद वातानुकूलित डिब्बे में यात्रा करते हुए साँझ होने तक प्रति वयस्क आपको दो लीटर पानी की जरुरत होती है. रेगिस्तान के इस सफ़र की असली मुश्किल नागौर के बाद आपसे हाथ मिलाती है. जून महीने का तापमान चवालीस से उनचास डिग्री के बीच होता है. रेलवे स्टेशन खाली. सड़कें सूनी. मजदूर सुस्ताते हुए. पंछी गायब. दूर तक एक धूप की चमक साथ चलती है. डिब्बे का वातावरण किसी भरे हुए पब की आधी रात जैसा हो जाता है. गरम सांसें, चिपचिपा पसीना और फ्रेश के नाम पर सिर्फ़ झुंझलाहट.

इस गाड़ी में पेंट्री कार नहीं है. मतलब साफ है चाय, कॉफ़ी कुछ नहीं मिलेगा. दो रूपये के पानी की बोतल को पंद्रह रुपये में बेचने वाले इस डिब्बे में नहीं आयेंगे. आपके पास डिब्बे में कोई ज़िन्दा ऊंट भी नहीं होगा जिसे मार कर उसके पेट में रखा पंद्रह बीस लीटर पानी आप पी सकें. इसलिए हमेशा याद रखिये कि रेगिस्तान की प्यास बहुत बड़ी होती है. हमारे पास कोई तीन लीटर पानी था. धान मंडी के लिए प्रसिद्द जगह नोखा, चूहों की देवी करणी माता के मंदिर वाला देशनोक और कई छोटे स्टेशन गुजरते जाते हैं मगर सूने पड़े हुए इन स्टेशनों पर बस एक प्याऊ होती. जिस तक पहुँच कर पानी भर के लौटने के लिए माईकल जोर्डन जितना सामर्थ्य चाहिए. फ़िर उन स्थानों पर पानी हो इसकी संभावना आपके सौभाग्य पर निर्भर करती है.

आखिर बीकानेर आता है. नमकीन भुजिया की वैश्विक राजधानी. उस्ता कला के कारीगरों की नगरी और साल भर इस सूखे मरुथल में बारिश पर जुआ खेलने की अनोखी जगह. शहर के बीच पुरानी और बेहद तंग जगह पर पक्षियों को दाना डालने के लिए बने चबूतरे पर एक आधी मटकी में रेत रखी है. यह बारिश होने या ना होने का पैमाना है. हर दिन यहाँ शौक़ीन लोग सट्टा लगाते हैं कि आज बरसात होगी या नहीं. आप जानते हैं कि इस मरुस्थल में बरसात का हाल क्या रहता है. खैर इस अद्भुत बीकानेर के बारे जानने के लिए आपको कभी सर्द दिनों में सैर करनी चाहिए.

बाहर स्टेशन पर सूरज का कर्फ्यू लगा था. हमारे सह यात्रियों के दस लीटर क्षमता वाले पानी के दो आधुनिक पींपे थे. वे खाली हो गए. हमारे पास सिर्फ़ एक लीटर पानी बचा था. जो सूरतगढ़ तक पहुँचने के लिए काफी था. ट्रेन के रुकते ही लोग पानी लेने के लिए भागे. धूप में खड़ी झुलस रही सवारियां ऐसी कोच की ओर भागी. अन्दर आकर उनके चेहरे खिल गए मगर हम काफी उमस भरा महसूस कर रहे थे. दो मातहतों अथवा चहेतों की अगुवाई में डॉक्टर व्यास हमारी सीट के पास आये. वो ग्यारह नंबर सीट मेरी है. ऐसा कहते हुए उन्होंने देश के गरीब गुरबों पर तिरस्कार भरी नज़र डाली और कांच लगी खिड़की के पास बैठ गए.

डॉक्टर साहब की एंट्री ठेठ भारतीय थी फ़िर भी मुझे थोड़ी नरम इसलिए लगी कि उन्हें डिब्बे में बिठाने के लिए मात्र तीन लोग ही चढ़े थे. इस अद्भुत देश में रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर सत्तर फीसद भीड़ उन शुभचिंतकों की होती है जो अपने प्रियजनों को यात्रा के लिए विदा करने आये हों. गाड़ी के चलने से पहले साठ लोगों के बैठने को बने डिब्बे में सौ लोग भरे होते हैं. वे गलियारे को रोक कर खड़े रहते हैं ताकि यात्रियों को हतोत्साहित किया जा सके और वे अगली यात्रायें टालते जाएं. इससे देश की यातायात सुविधा पर बोझ कम होने का फायदा हो सके.

ट्रेन चल पड़ी. बीकानेर पीछे छूट रहा था. मेरी याद में महेंद्र का सुनाया हुआ एक ऐतिहासिक किस्सा घूमने लगा. बीकानेर और नागौर रियासतों के बीच एक अजब लडाई लड़ी गयी थी. एक मतीरे (वाटर मेलन) की बेल एक रियासत की सीमा में उगी किन्तु सीमा के दूसरी तरफ फ़ैल गयी. उस पर एक मतीरा यानि तरबूज लग गया. एक पक्ष का दावा था कि बेल हमारे इधर लगी है, दूसरे का दावा था कि फ़ल तो हमारी ज़मीन पर पड़ा है. उस मतीरे के हक़ को लेकर युद्ध हुआ. इतिहास में इसे "मतीरे की राड़" (वार फॉर वाटर मेलन) के नाम से जाना जाता है. आप जी खोल कर मुस्कुराइए कि साल भर बरसात के अभाव में निकम्मे बैठे रहने वाले हम रेगिस्तान वासियों के पास कितने अनूठे काम है.

जारी...

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