यात्रा वृतांत : पांचवा भाग
निकम्मा माने निः कर्मकः. जिसके पास काम न हो. यहाँ अनंत विश्राम है मगर वह कीमत बहुत मांगता है. विशाल भू भाग पर फैले इस रेगिस्तान का जीवन बहुत दुष्कर है. मनुष्य ने किस तरह से इसे आबाद रखा है, ये सोचना भी कठिन है. मुझे अक्सर दुनिया में दो तरह के लोग ही सूझते हैं. एक वे जो नदियों के किनारे बसे, दूसरे वे जिन्होंने सहरा को आबाद किया. सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर अमेजन के आदिवासियों तक को पढ़ते हुए पाया कि मनुष्य ने सदा बेहतर सुविधा वाली जगहों पर रहना पसंद किया है. जहाँ पानी सहजता से उपलब्ध हो और ज़मीन उपजाऊ हो. व्यापार के मार्ग भी वे ही रहे जहाँ नदियाँ और समंदर थे. तो ये कैसे लोग थे जो इस सूखे मरुस्थल में सदियों तक रहे. तीन सौ हाथ नीचे ज़मीन को खोद कर पीने का पानी निकाला और विषम परिस्थितियों में भी जीवन के सोते को सूखने न दिया.
बीकानेर का रेगिस्तान रेल के साथ चलता है. खिड़की से बाहर छोटे छोटे से गाँव आते हैं. घरों की शक्लें बदल गयी है. झोंपड़ों वाला रेगिस्तान सीमा पर छूट गया. अब कच्चे घरों पर पक्के जैसी कारीगरी दिखती है लेकिन बाड़ वैसी ही, वही बबूल या कीकर घर की बाखळ में खड़े हुए. अब कसी हुई लंगोट वाली धोती नहीं रही. वह खुली हुई पंजाबी तहमद जैसी दिखने लगी. पुरुषों ने सफ़ेद कुरता पजामा और सर को धूप से बचाने के लिए अंगोछा लिया हुआ है. औरतें घाघरा ओढने में ही हैं लेकिन नागौरी महिलाओं की डीप गले वाली कांचली की जगह बंद से गले वाले कुरते आ गए. उनकी बाहें विवियन रिचर्ड को बाल फैंकने जा रहे कपिल देव के टी शर्ट जितनी हो गयी हैं. वे ना पूरी है ना ही आधी.
बच्चों को बाहर से गुज़रते हुए दृश्यों को देखने के लिए कहता हूँ. वे थक चुके हैं किन्तु विवशता में बाहर अधिक आकर्षक दिखाई देता है. डॉक्टर व्यास नया डिजी कैम लेकर आये हैं तो उसके मेन्युअल को बांच रहे हैं. उनको देखते हुए मुझे एक ताऊ की याद आती है. वे इस हद के खाली हुआ करते थे कि अख़बार में छपी निविदाएँ तक पढ़ लिया करते. सहयात्रियों के नन्हे बच्चे थक गए हैं. उन्हें नींद की जरुरत है किन्तु इस अजायबघर जैसे माहौल में उनकी जिज्ञासु आँखें अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाती. आखिर नासमझी से थक कर रोने लगते हैं. पापा के पास जाते हैं तो लगता है मम्मा अच्छी है. मम्मा के पास आते ही पापा की पुकार लगाते हैं. माँ-बाप की हालात उकताए हुए आढ़तियों जैसी हो गयी है. जो सौदा सही न होने पर ग्राहक का तिरस्कार कहते हैं और उसे पेढ़ी से धकेल देते हैं.
इस रास्ते पर मैंने दो साल तक सफ़र किया है. सूरतगढ़ में आकाशवाणी का हाई पावर ट्रांसमिशन है. ये विदेश प्रसारण सेवा के लिए बना बड़ा केंद्र है. मैं दो साल यहाँ पोस्टेड रहा और फ़िर से रेगिस्तान के अपने हिस्से में चला आया था. उन सालों की स्मृतियाँ ताज़ा है. अभी लूणकरणसर स्टेशन निकला है और जानता हूँ शाम साढ़े छ बजे महाजन स्टेशन आएगा. यहाँ आर्मी की फायरिंग रेंज है और इसका सामरिक हिसाब से बड़ा महत्त्व है लेकिन रेल यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है एक गैर अधिकृत वेंडर. जिसके ठेले पर पकौड़ियाँ मिलती हैं. सौ सौ ग्राम तोलते हुए भी दो मिनट में वह कई किलो पकौड़ियाँ बेच देगा. इनका स्वाद अलग है. कई सालों बाद उसी ठेले वाले को देखने के लिए मैं गाड़ी से उतर जाता हूँ. शाम के आने की गंध स्टेशन पर फैली है.
मीर तक़ी मीर के शेर "आरज़ुएँ हज़ार रखते हैं, तो भी हम दिल को मार रखते हैं." की तर्ज़ पर मैं कुछ खरीदता नहीं हूँ कि सफ़र लम्बा है और बच्चे नाज़ुक. तिस पर इस तरह का चटोरापन आगे का रास्ता मुहाल कर सकता है. पत्नी के लिए चाय खरीदता हुआ सोचता हूँ कि सूरतगढ़ स्टेशन पर एक लाजवाब आदमी मिलेगा भूपेंदर मौदगिल. रेडियो का शौकिया प्रेजेंटर है मगर अपने पुश्तैनी काम को सम्हालने में परिवार की मदद करता है. हाय मैं किसी रेलवे स्टेशन पर वेंडर हुआ तो लाखों हसीनाओं को पहली नज़र में दिल दे चुका होता. खैर भूपेंदर से मेरा आज के दौर का एसएमएस वाला रिश्ता है और मैंने उनको बताया नहीं कि मैं इस रास्ते से जा रहा हूँ.
इस सफ़र के बारे में महबूब शायर राजेश चड्ढा को भी बताता लेकिन उसका अंज़ाम ये होता कि वे खाने पीने से भरे हुए थेले लिए स्टेशन पर इंतजार कर रहे होते. वे ऐसे ही हैं अनगिनत परिवारों के सुख और दुःख के सहभागी हैं. ट्रेन चल पड़ी थी और अंदरखाने के बोरियत भरे माहौल से परेशान मेरी बेटी दरवाज़े के पास चली आई. मैं उसे थामे हुए था और वह हत्थियाँ पकड़े हुए मद्धम गति से चलती रेल से बाहर के रेत के धोरे देख रही थी. रेलवे ट्रेक के पास राष्ट्रीय राजमार्ग गुजर रहा था. बाद बरसों के लग रहा था कि मुझे सूरतगढ़ पर उतर जाना है और यहाँ से कोई रिक्शे वाला मुझे रेडियो कॉलोनी ले जायेगा. फ़िर मैं कुलवंत कि दुकान से सिगरेट खरीदूंगा. पिपेरन वाले चौराहे से अच्छी विस्की लेता हुआ अपनी सुजुकी बाइक से उतर कर फ्लेट नम्बर सी-13 में दाखिल हो जाऊँगा.
इंसान कहीं नहीं पहुँचता. वह ठहरा रहता है. जैसे मेरी आँखों में इस वक़्त अपनी तीन साल की बेटी ठहर गयी थी. खेजड़ी वाले बालाजी के मंदिर से जया की अंगुली थामें ढलान उतरती हुई या फ़िर मीनाक्षी आंटी के आगे पीछे भागते हुए गौरव गरिमा के साथ मुस्कुराती हुई. मैं फ़िर से इस पांच फीट ऊँची लड़की को देखता हूँ जो मेरे आगे खड़ी है. अचानक वह पीछे की ओर सरकी. पापा देखो यहाँ से गिर जाये तो ? मैं उसका हाथ और मजबूती से पकड़ लेता हूँ. एक शानदार मोड़ पर रेल रुक गयी. उसके दोनों सिरे दिख रहे थे. जैसे चालीस की उम्र में आप बीत चुकी आधे से अधिक ज़िन्दगी को देख सकें और और बचे हुए कुछ सालों की तस्वीर का आभास होने लगे.
रेत के समंदर में सूरज डूबने को था. उसकी बुझती हुई केसरिया चूनर के नीचे सिमट आये सूखे पेड़ किसी वियोग में जलते हुए से दिख रहे थे.
निकम्मा माने निः कर्मकः. जिसके पास काम न हो. यहाँ अनंत विश्राम है मगर वह कीमत बहुत मांगता है. विशाल भू भाग पर फैले इस रेगिस्तान का जीवन बहुत दुष्कर है. मनुष्य ने किस तरह से इसे आबाद रखा है, ये सोचना भी कठिन है. मुझे अक्सर दुनिया में दो तरह के लोग ही सूझते हैं. एक वे जो नदियों के किनारे बसे, दूसरे वे जिन्होंने सहरा को आबाद किया. सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर अमेजन के आदिवासियों तक को पढ़ते हुए पाया कि मनुष्य ने सदा बेहतर सुविधा वाली जगहों पर रहना पसंद किया है. जहाँ पानी सहजता से उपलब्ध हो और ज़मीन उपजाऊ हो. व्यापार के मार्ग भी वे ही रहे जहाँ नदियाँ और समंदर थे. तो ये कैसे लोग थे जो इस सूखे मरुस्थल में सदियों तक रहे. तीन सौ हाथ नीचे ज़मीन को खोद कर पीने का पानी निकाला और विषम परिस्थितियों में भी जीवन के सोते को सूखने न दिया.
बीकानेर का रेगिस्तान रेल के साथ चलता है. खिड़की से बाहर छोटे छोटे से गाँव आते हैं. घरों की शक्लें बदल गयी है. झोंपड़ों वाला रेगिस्तान सीमा पर छूट गया. अब कच्चे घरों पर पक्के जैसी कारीगरी दिखती है लेकिन बाड़ वैसी ही, वही बबूल या कीकर घर की बाखळ में खड़े हुए. अब कसी हुई लंगोट वाली धोती नहीं रही. वह खुली हुई पंजाबी तहमद जैसी दिखने लगी. पुरुषों ने सफ़ेद कुरता पजामा और सर को धूप से बचाने के लिए अंगोछा लिया हुआ है. औरतें घाघरा ओढने में ही हैं लेकिन नागौरी महिलाओं की डीप गले वाली कांचली की जगह बंद से गले वाले कुरते आ गए. उनकी बाहें विवियन रिचर्ड को बाल फैंकने जा रहे कपिल देव के टी शर्ट जितनी हो गयी हैं. वे ना पूरी है ना ही आधी.
बच्चों को बाहर से गुज़रते हुए दृश्यों को देखने के लिए कहता हूँ. वे थक चुके हैं किन्तु विवशता में बाहर अधिक आकर्षक दिखाई देता है. डॉक्टर व्यास नया डिजी कैम लेकर आये हैं तो उसके मेन्युअल को बांच रहे हैं. उनको देखते हुए मुझे एक ताऊ की याद आती है. वे इस हद के खाली हुआ करते थे कि अख़बार में छपी निविदाएँ तक पढ़ लिया करते. सहयात्रियों के नन्हे बच्चे थक गए हैं. उन्हें नींद की जरुरत है किन्तु इस अजायबघर जैसे माहौल में उनकी जिज्ञासु आँखें अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाती. आखिर नासमझी से थक कर रोने लगते हैं. पापा के पास जाते हैं तो लगता है मम्मा अच्छी है. मम्मा के पास आते ही पापा की पुकार लगाते हैं. माँ-बाप की हालात उकताए हुए आढ़तियों जैसी हो गयी है. जो सौदा सही न होने पर ग्राहक का तिरस्कार कहते हैं और उसे पेढ़ी से धकेल देते हैं.
इस रास्ते पर मैंने दो साल तक सफ़र किया है. सूरतगढ़ में आकाशवाणी का हाई पावर ट्रांसमिशन है. ये विदेश प्रसारण सेवा के लिए बना बड़ा केंद्र है. मैं दो साल यहाँ पोस्टेड रहा और फ़िर से रेगिस्तान के अपने हिस्से में चला आया था. उन सालों की स्मृतियाँ ताज़ा है. अभी लूणकरणसर स्टेशन निकला है और जानता हूँ शाम साढ़े छ बजे महाजन स्टेशन आएगा. यहाँ आर्मी की फायरिंग रेंज है और इसका सामरिक हिसाब से बड़ा महत्त्व है लेकिन रेल यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है एक गैर अधिकृत वेंडर. जिसके ठेले पर पकौड़ियाँ मिलती हैं. सौ सौ ग्राम तोलते हुए भी दो मिनट में वह कई किलो पकौड़ियाँ बेच देगा. इनका स्वाद अलग है. कई सालों बाद उसी ठेले वाले को देखने के लिए मैं गाड़ी से उतर जाता हूँ. शाम के आने की गंध स्टेशन पर फैली है.
मीर तक़ी मीर के शेर "आरज़ुएँ हज़ार रखते हैं, तो भी हम दिल को मार रखते हैं." की तर्ज़ पर मैं कुछ खरीदता नहीं हूँ कि सफ़र लम्बा है और बच्चे नाज़ुक. तिस पर इस तरह का चटोरापन आगे का रास्ता मुहाल कर सकता है. पत्नी के लिए चाय खरीदता हुआ सोचता हूँ कि सूरतगढ़ स्टेशन पर एक लाजवाब आदमी मिलेगा भूपेंदर मौदगिल. रेडियो का शौकिया प्रेजेंटर है मगर अपने पुश्तैनी काम को सम्हालने में परिवार की मदद करता है. हाय मैं किसी रेलवे स्टेशन पर वेंडर हुआ तो लाखों हसीनाओं को पहली नज़र में दिल दे चुका होता. खैर भूपेंदर से मेरा आज के दौर का एसएमएस वाला रिश्ता है और मैंने उनको बताया नहीं कि मैं इस रास्ते से जा रहा हूँ.
इस सफ़र के बारे में महबूब शायर राजेश चड्ढा को भी बताता लेकिन उसका अंज़ाम ये होता कि वे खाने पीने से भरे हुए थेले लिए स्टेशन पर इंतजार कर रहे होते. वे ऐसे ही हैं अनगिनत परिवारों के सुख और दुःख के सहभागी हैं. ट्रेन चल पड़ी थी और अंदरखाने के बोरियत भरे माहौल से परेशान मेरी बेटी दरवाज़े के पास चली आई. मैं उसे थामे हुए था और वह हत्थियाँ पकड़े हुए मद्धम गति से चलती रेल से बाहर के रेत के धोरे देख रही थी. रेलवे ट्रेक के पास राष्ट्रीय राजमार्ग गुजर रहा था. बाद बरसों के लग रहा था कि मुझे सूरतगढ़ पर उतर जाना है और यहाँ से कोई रिक्शे वाला मुझे रेडियो कॉलोनी ले जायेगा. फ़िर मैं कुलवंत कि दुकान से सिगरेट खरीदूंगा. पिपेरन वाले चौराहे से अच्छी विस्की लेता हुआ अपनी सुजुकी बाइक से उतर कर फ्लेट नम्बर सी-13 में दाखिल हो जाऊँगा.
इंसान कहीं नहीं पहुँचता. वह ठहरा रहता है. जैसे मेरी आँखों में इस वक़्त अपनी तीन साल की बेटी ठहर गयी थी. खेजड़ी वाले बालाजी के मंदिर से जया की अंगुली थामें ढलान उतरती हुई या फ़िर मीनाक्षी आंटी के आगे पीछे भागते हुए गौरव गरिमा के साथ मुस्कुराती हुई. मैं फ़िर से इस पांच फीट ऊँची लड़की को देखता हूँ जो मेरे आगे खड़ी है. अचानक वह पीछे की ओर सरकी. पापा देखो यहाँ से गिर जाये तो ? मैं उसका हाथ और मजबूती से पकड़ लेता हूँ. एक शानदार मोड़ पर रेल रुक गयी. उसके दोनों सिरे दिख रहे थे. जैसे चालीस की उम्र में आप बीत चुकी आधे से अधिक ज़िन्दगी को देख सकें और और बचे हुए कुछ सालों की तस्वीर का आभास होने लगे.
रेत के समंदर में सूरज डूबने को था. उसकी बुझती हुई केसरिया चूनर के नीचे सिमट आये सूखे पेड़ किसी वियोग में जलते हुए से दिख रहे थे.
जारी...