प्रेम, निर्वात में रखी हुई
अक्षुण और अरूप अनुभूति है
काल और क्षय से परे।
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ये तीन दिन पहले की बात है। दोपहर के वक़्र्त अपने ड्राइंग रूम के आँगन पर एक शॉर्ट पहने लेटा हुआ था। बरसात आने की उम्मीद का दिन था। कुछ लाल चींटियाँ किसी की तलाश में थी। एक चींटी ने मेरी पीठ के नीचे बायीं तरफ कुछ जाँचना चाहा। उसे शायद मेरी पीठ से कुछ काम था। वह पर्वतारोही की तरफ मेरे सीने का फेरा लगा कर नीचे उतर गयी। मेरे पास कोई काम नहीं था। मुझे किसी के पास जाना नहीं था। मेरे पास किसी का कोई संदेश नहीं आना था। खिड़की से कोई हवा का झौंका आता तो मैं उसके सम्मान में एक बेहद हल्की मुस्कान से उसका स्वागत करता।
अचानक मुझे उछल जाना चाहिए था लेकिन उतनी ही तेज़ी से ये खयाल आया कि ये लाल चींटी ही है। उसने अपने दांत मेरी पीठ में उसी जगह गड़ा दिये थे। जहां से उसने मेरी तलाशी लेनी शुरू की थी। मैं इस बार भी मुस्कुरा दिया। मैंने उस एक लाल चींटी को भूल कर आँगन को देखा। वहाँ अनेक चींटियाँ थी। सोचा कि अनेक दुखों में से सिर्फ एक दुख ने मेरे गले में बाहें डाली हैं। ये सभी चींटियाँ अगर मुझे काट लेना चाहे तो?
मैं आँखें बंद कर के आँगन पर बिना हिले डुले लेटा रहा। लेकिन एक ही चींटी के काटने का दर्द होता रहा। मैंने उस दर्द के बीच एक बीते हुये वक़्त में छलांग लगा दी। चींटी से कहा कि क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो? उसको शायद समझ नहीं आया होगा। इसलिए मैंने कहा कि जिस तरह आदमी रोटी से प्रेम करता है, क्या उसी तरह तुम्हें मेरे बदन से प्रेम है?
अब एक और चींटी मेरे हाथ पर से गुज़र रही थी। ऐसा लग रहा था मानो मेरा अपना कोई टूटा हुआ बाल हाथ पर रह गया है और हवा के साथ सरक रहा है। उस चींटी ने मुझे काटा नहीं। मैंने चाहा कि वह काट ले तो कितना अच्छा हो। इसका एक फायदा है कि मैं हाथ पर काटते ही पीठ का दर्द भूल सकता हूँ। ये ऐसा ही है जैसे आप प्रेम में ठोकर खाते हैं और सोचते हैं कि अब कोई भी आपको बाहों में छुपा ले।
मुझे दो बजे दफ्तर जाना था। मैंने सोचा कि ये इतनी सारी चींटियाँ मिल कर मुझे अभी का अभी काट क्यों नहीं लेती। एक बार नेट जियो पर देखा था कि इन लाल चींटियों को ज़िंदा पीस कर आदमी चटनी बना लेता है। चींटियों में पाया जाने वाला ऐसिड रोटी को बहुत तीखा और चरपरा बना देता है। आदमी सिर्फ चींटियाँ ही नहीं, दूसरे आदमी के दिल की चटनी भी बनाने का हुनर जानता है।
अब तक तीन चींटियाँ मुझे काट रही थी। ये दर्द असहनीय था। लेकिन जब आप कभी कुछ तय करते हैं तब सहन करने की सीमा को आगे पीछे किया जा सकता है। जैसे प्रेम में जब टूटन होने लगती है तब सहनशीलता का पैमाना लगातार छोटा होता जाता है। प्रेम जब बढ़ता है तो सहन करने का हिसाब बेहिसाब हो जाता है।
मैंने तय किया था कि इन चींटियों को काट लेने दो। मुझे इनसे प्रेम नहीं था। हालांकि जिनसे था उन्होने भी ऐसा ही किया था। मैं नासमझ होने की दवा नहीं लेना चाहता हूँ। इसलिए चाहता हूँ कि मेरा ध्यान किसी और चीज़ पर रहे। इसलिए चींटियाँ देवदूत बन कर आए थी। मैं एक घंटे बाद उठा और वाश बेसिन के पास लगे आईने में अपनी पीठ को देखा। वहाँ दो छोटे से लाल घेरे थे। तीसरा घेरा मेरी बाएँ हाथ की बांह के पीछे था।
मैंने शोवर लिया। लंच के नाम पर दो चपाती और दो ग्लास छाछ ली और दफ्तर चला गया। बरसात होने के दिन हैं तो खूब उमस है। ऐसा है तो खूब पसीना आता है। पसीना उन छोटे लाल धब्बों को छूता तो एक बेहिसाब जलन होती। मैं अपने रुमाल से उसे पौछ देना चाहता हूँ। लेकिन फिर रुक जाता हूँ।
मैं अपनी एक लंबी तकलीफ भूल गया। मुझे सिर्फ चींटियों के काटने की ही जलन होती रही इसके सिवा मैंने उन चार दिनों में क्या किया याद नहीं। आज वे धब्बे खत्म हो गए हैं। मुझे फिर याद आने लगी है। आँगन पर देखता हूँ। एक भी चींटी नहीं दिख रही। कैसा नसीब है?
आह बदनसीब आदमी कोई अच्छी चीज़ चुनी होती।
[Photo courtesy : Nicolo' Barreca]
[Photo courtesy : Nicolo' Barreca]