एक फासला था। उसने कहा- देखो ये फासला है। शायद कहा नहीं था। ऐसा कहना चाहा था, ये मैंने सोचा।
अखबार में लिखा था- कश्मीर से कन्याकुमारी तक बारिशें। जितने बड़े फॉन्ट थे उसके दसवें हिस्से जितनी भी बूंद नहीं गिरी थी। शायद ऊपर से नीचे की इन दो जगहों से अलग रेगिस्तान का ये हिस्सा खाली छूट जाता है। इसलिए मैंने उसको भी कोई शिकायत न की जिसने कहा था- फासला है। या फासला बना रहे ऐसा कहा होगा।
बारिशें नहीं आई। आवाज़ की लकीर थी कुछ कदम चल कर रुक जाती। मैं फिर वहीं से शुरू करता। उसी जगह जाकर ठहर जाता। मैं चुप्पी में फिर से आवाज़ के सिरे को थामता हूँ। जैसे आप किसी बूढ़े रिश्तेदार के हाथों चढ़ गए हों और वह अपने इन तेज़ी से बुझते हुये दिनों में आपसे पहचान को हर जगह से छूकर बुनता है। वह अपनी सभी इंद्रियों को इस काम में लगा देता है कि इस प्रिय को अपने भीतर समेट सके।
रात बीत गयी। सुबह आसमान बादलों से भरा है। बरसेगा नहीं। जैसे किसी की तस्वीर को देख सकते हों मगर वह बोलता न हो। मैं अचानक याद करता हूँ कि रात सपने में आवाज़ की लकीर दूर तक जा रही थी। कोई मुझसे पूछ रहा था कि क्या कर रहे हो। मैं डरते हुये कहता हूँ- कहानी सुन रहा हूँ। ये नहीं कहता कि आवाज़ सुन रहा हूँ।
ये भीगी मिट्टी की गंध कहाँ से आई। तुम कुछ कहने वाले हो क्या?
[तस्वीर : अपने ही घर में पलंग पर बिखरी हुई ज़िंदगी की ज़रूरी चीजों की है। तरतीब और सिलसिले में बस कुछ शामें हैं जो अक्सर हाथ से छूट जाती है। एक खाली सुबह लाने के लिए]