उस रंग को जाने क्या कहते हैं
लोहे की पटरियों पर जैसे किसी नादान रंगरेज़ के हाथों से निकल कर कोई रेलडिब्बा चला आया है। कुछ ज्यादा गहरे रंग से रंगा हुआ। स्कूल के सबसे ऊंचे हाल के कंगूरे के पास दिखती सीमेंट की चद्दरों पर बैठा हुआ कोई कबूतर। जो स्टेशन मास्टर के बागीचे में खुले पड़े पानी के पाइप से नहाकर आया हो। और पंखों के नीचे का अंधेरा उसके रंग को गहरा करता हो। या फिर किसी लड़के ने नीले पेन से लिखे को रबर से मिटाने की ज़ुर्रत में कॉपी के पन्ने का मुंह रंग दिया हो।
वो रेगिस्तान था। बरसता नहीं था। सूखा ही रहता था। वहीं एक सिगरेट थी। नेवी कट कहलाती थी। बरसों मुंह से लगी रही। अजीब गंध थी। धुआँ किसी सूरत में अच्छी गंध न था। बस एक बेशकल तस्वीर हवा में तामीर होती थी। यही हासिल था। उसका रंग बरसे हुये बादलों जैसा होता था। बस नाम ही नेवी कट था।
मैं क्या पी लेना चाहता हूँ। मैं किसी स्याहीसोखू के जैसा हूँ क्या? जिसकी प्यास में कुछ होठ ही लिखे हुये हैं? या किसी उदासी के प्याले की सूखी हुई किनारी। इस रंग से क्या वास्ता है? किसलिए वार्डरोब भरा रहता है एक ही परछाई से। मेरे अंदर एक कुनमुनाहट है। ये तुम्हारे पास जो रंग है उसे भी चुरा लेना चाहती है।
वो जो शाम के समय बुझने पहले रेल की पटरियों पर खड़ा हुआ, आँखों से ओझल होता जाता है, उस रंग को क्या कहते हैं? आह मैं एक रेल हो जाना चाहता हूँ। तुम मेरी कमीज़ को पकड़ कर कुछ दूर पीछे पीछे चलो तो.... एक अरसा हुआ किसी को चूम कर रोया नहीं हूँ मैं।
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राख़ में खिला हुआ फूल, अनेक चिंताओं से मुक्त होता है। आग को बुझ जाने दो। जो जल रहा हो, उसकी रोशनी में कल की तैयारी करो। प्रेम, मित्रता और संबंध के नफे को एक बार दूर रख कर देखो। ये साफ होगा कि वह जो मुकर गया है, वह जो मुरझा गया है, वह जो अड़ गया है। किस काम का था। उसका बोझ कहाँ तक उठाते और किसलिए।
राख़ में नए फूल खिलते हुये मैंने देखे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि जंगल भी अपने आपको कई बार नया नवेला करने के लिए राख़ करता जाता है। मैं खुश हूँ कोई नया फूल खिल रहा है, बरबादी की राख़ पर। चीयर्स।
नाम क्या है तुम्हारा? ज़रा एक बार तुम्हारी आवाज़ में सुन सकूँ तो देर तक मुस्कुराऊंगा। कहो एक बार...
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उसे कोई नाम नहीं सुनाई दिया।
पानी और धूप के बीच जो चीज़ होती है, वैसा ही कुछ अगर किसी रिश्ते के दरमियान बैठा हुआ है तो तुमको इस बारे में ज़रूर सोचना चाहिए। प्रेम में दो लोगों के बीच किसी तीसरे के होने से अच्छा है बिचोलिए के ही प्रेम में पड़ जाना।
नदी न किसी को मिलाती है, न अलग करती है। भीगी हुई आवाज़ में तुम जो नाम सुनते हो वह नदी के भंवर और किनारों के टकराने से नहीं उपजा है। वह तुम्हारे मन की आवाज़ है। तुम चाहो तो इससे भागने में लगे रह सकते हो, चाहो तो यहीं ठहर जाओ।
पत्थर के भीगे हुये हिस्से पर दायें पैर के अंगूठे से लिखा एक नाम। जैसे कई बार हम खुद के लिए आग की कूची से लिखते हैं, ज़िंदगी।
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नाकामी
नहीं कुछ नहीं। खिड़की के पास लगी लोहे की ग्रिल पर एक परिंदा बैठा रहता था। कई दिनों से आया नहीं। उसके होने के दिनों में उसके होने का अहसास कम था। अब नहीं है तो लगता है जाने क्या क्या खो गया है। एक सन्नाटा खिड़की से बेरोकटोक अंदर चला आता है। तुम इस पार नहीं थे मगर उस पार से दिखते थे। अब नहीं दिखते। मिटने को तो दुनिया में क्या कुछ नहीं मिटता।
कॉफी के प्याले में कोई लहर नहीं उठती। तुम अक्सर अपने पाँव हिलाते रहते थे। मुझे कॉफी के मग से ये मालूम होता था। अब जब कोई लहर न उठेगी तो इस कॉफी का स्वाद कुछ बदल जाएगा क्या?
बाहर बारिश नहीं है। वैसे गरमी में पसीने से भीगे हुये बदन पर जमा बूंदें और नहाने के बाद बची बूंदों में उतना ही फर्क होता है। जितना तुम्हारे होने और न होने में हुआ करता है। शायद...