चेखव की एक कहानी पढ़ते हुये याद आया कि गरीबी से बाहर आने में शिक्षित होने की बड़ी भूमिका है। आज के दौर का नया नारा भी यही है कि शिक्षा आपके भविष्य का बीमा है। यह एक सत्य है। इतना कि आप इस पर आँख मूँद कर यकीन कर सकते हैं। मैं दोपहर बाद ऑफिस जाने से पहले ज़रा सी मीठी झपकी ले रहा था कि स्कूल से बच्चे लौट आए। उनके आते ही मालूम हुआ कि सोमवार को विध्यालय जाना होगा। मैं उसी विध्यालय की मेनेजमेंट कमिटी का सदस्य भी हूँ। इसलिए वहाँ आना जाना लगा रहता है। लेकिन इस बार जाने की वजह यह थी कि मुझे अपनी बेटी कि जमानत करवानी थी। विध्यालय द्वारा ली गई तलाशी में उसके बस्ते से अमिश का उपन्यास निकला था। ये हिन्दू मायथोलोजी का ऐडोप्शन है। बारहवीं के कला वर्ग की कक्षा पूरे विध्यालय में बदनाम। ये नाम किस तरह बद हुआ इसके बारे में मुझे कुछ खास मालूम नहीं है किन्तु कुछ महीने पहले विध्यालय के प्राचार्य महोदय बता रहे थे कि बच्चों से अधिक अनुशासनहीन वे हैं जिन पर इन बच्चों की परवरिश का जिम्मा है। मुझे उनकी लाचारी और दुख दोनों का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। वे छह फीट लंबे दो बच्चों को डांट रहे थे। बच्चे विध्यालय में किसी अध्यापक की इन्टरनेट पर छवि बिगाड़ने और उनके प्रति असम्मानजनक शब्दों का सार्वजनिक उपयोग करने के अपराधी थे। विध्यालय के शारीरिक शिक्षक उनको कहीं से खोज कर लाये थे। खोज कर लाने का आशय है कि बच्चे कहीं भाग जाने की धमकी देकर आए थे। ये एक तरह से ऐसा था कि किसी अन्न के दाने की जगह दो पाटों के बीच किसी मजबूत पत्थर का आ जाना। अभिभावक भी दुखी और शिक्षक भी। जब प्राचार्य उन बच्चों को डांट रहे थे, तब वे दोनों बच्चे बिना किसी अपराधबोध के मासूमों की तरह विश्राम की मुद्रा में पीछे हाथ बांधे हुये चुप खड़े थे। उनके जवाब सुन कर आपको उन पर दया आ जाती कि इतने भोले भाले बच्चों पर इस तरह का दोष लगाना ठीक न होगा। लेकिन मेरी जानकारी में उनकी सारी करतूतें थी। उनके व्यवहार, आचरण, उपस्थिती और मुख मुद्रा से वे वाकई कला के विध्यार्थी कहलाने लायक थे।
विध्यालय में नयी प्राचार्य आई हैं। उन्होने आते ही शैक्षणिक व्यवस्था और अनुशासन को सुधारने पर ध्यान देना शुरू किया होगा। उनके हिसाब से आफत सिर्फ एक ही रही होगी। उससे निपट लेना, आगे का रास्ता आसान कर सकता होगा। विज्ञान के बच्चे बदमाश नहीं है। इसलिए कि उनके पास शिक्षा के नक़ली जुए से सर बाहर निकालने का कोई अवसर ही नहीं है। वे बच्चे सुबह पाँच बजे जागते हैं तीन बजे विध्यालय से लौटते हैं। इसके बाद बारी बारी से तीन चार जगह पर ट्यूशन पढ़ने जाते हैं। फिर रात नौ बजे घर लौट कर एक बार और अपने सहपाठियों से आगे निकाल जाने की होड़ लगाते हैं। उनका जीवन कला, साहित्य और संकृति से कोई वास्ता नहीं रखता है। उनके जीवन में खेल भी है तो वह किसी ट्यूशन की ही तरह शामिल है। उसमें आनंद कम और आगे निकल जाने की होड़ ज्यादा है। इसलिए विज्ञान और वाणिज्य की कक्षाओं में किसी तलाशी का आयोजन किया जाना निरर्थक ही होता। मैं जब विध्यार्थी था तब विध्यालय में उपन्यास लाना क्या, उसका नाम लेना भी अपराध था। उपन्यास पढ़ने वाले बच्चे जीवन की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। इसलिए सभी अभिभावक इस पर प्रकट रोक लगाए रखते हैं। जबकि हर विध्यालय का पुस्तकालय उपन्यासों से भरा होता है। हिन्दी और अन्य भाषाओं के साहित्य को बिना उपन्यासों के कभी जाना समझा नहीं जा सकता है। भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियाँ उपन्यास और महाकाव्य ही हैं। बंदूक, गोली और तोपखाना बनाना सीखना मनुष्यता का पोषक कभी नहीं हो सकता है। विज्ञान हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। इसकी उपयोगिता और इसके वरदान मनुष्य के लिए अतुलनीय है। किन्तु मनुष्य के मन को भी विज्ञान में बदल दिया जाए ये मेरे लिए असहमति की बात है। मैंने अपनी बेटी से कहा कि आपकी नयी प्राचार्य आपके भले के लिए ये सब कर रही हैं। उनका हर एक कदम अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए है। अशैक्षणिक पुस्तकों का विध्यालय न ले जाना एक अच्छी बात है। उनका ये कहना सही है कि इस तरह की पुस्तकें विध्यालय समय के पश्चात होनी चाहिए अन्यथा घर विध्यालय के बीच का भेद और दोनों के लक्ष्य अधूरे ही रह जाएंगे।
केंद्रीय विध्यालयों में दसवीं पास करने के बाद ग्यारहवीं में प्रवेश लेने के लिए कुछ प्राप्तांकों के बार बने हुये थे। उनके हिसाब से अव्वल नंबर लाने वाले बच्चे विज्ञान, उनसे कम वाले वाणिज्य और उनसे भी कम वाले कला में दाखिला पा जाते थे। इसमें ऐसी कोई बाध्यता न थी कि अव्वल नंबर लाने वाला बच्चा कला नहीं ले सकता है। इस बार इसे हटा लिया गया है। जो भी बच्चा विज्ञान पढ़ना चाहता है वह उपलब्ध सीट पर प्रवेश के लिए आवेदन कर सकता है। और ऐसा किए जाने के बाद जो भयानक संकेत आया है, वह है कि विध्यालयों में कला में प्रवेश लेने वाले बच्चे नहीं मिले। कला की कक्षाएं खाली हो गयी है और सेक्शन को तोड़ दिया गया है। हम सब बच्चों को विज्ञान क्यों पढ़ाना चाहते हैं। वे कौन लोग हैं जिंहोने बच्चों के मन में ये बैठा दिया है कि विज्ञान ही जीवनदाई शिक्षा है। विज्ञान के बिना वे सबसे पिछड़े रह जाएंगे। ये कैसी होड़ है और इसे किसलिए बनाया गया है। इसका पोषण करने वाले लोग कौन हैं। क्या निजी कोचिंग इंस्टीट्यूट और एमएनसी हमारे शिक्षा तंत्र और ज्ञान को लंगड़ा नहीं करते जा रहे हैं। ये कैसे हमारे भीतर आ गया है कि सिर्फ विज्ञान के सहारे ही मनुष्य एक बेहतर समाज की रचना कर सकता है। मैं सचमुच चिंतित हूँ कि वाणिज्य और कला विहीन शिक्षा से बनने वाला समाज कैसा होगा?शरीर के विभिन्न अंगों की जगह हम एक स्टील के मजबूत सर वाले मानव की कल्पना करके देखें तो कैसा लगेगा। सिर्फ बंदूक की गोली बनाते जाने से मानव सभ्यता कहाँ जाएगी सोचा है? मूर्तिकला और साहित्य के अभाव वाला जीवन कैसा होगा। जहां किताबें, नाट्य, सिनेमा और अन्य संचारी कलाएं सिर्फ विज्ञान में बदल जाएगी उस समाज का एक दिन कैसा होगा? हम पढ़ लिख कर गरीबी से बाहर आने की जगह कहीं और ज्यादा गरीब तो नहीं हो रहे हैं। निदा फ़ाजली कहते हैं- बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छू लेने दो/ चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे। और दुआ कि हम बच्चों को कम से कम सिर्फ मशीन होने की किताबें न पढ़ाएँ।
[Image courtesy : 1samoana.com]
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