मेरे सामने से एक सफ़ेद रंग की बाईस पच्चीस लाख रुपये कीमत वाली एसयूवी गाड़ी गुज़री। उसके बोनट पर एक पर्दा लगा हुआ था। उस पर लिखा था रिफायनरी बचाओ संघर्ष समिति। पर्दे पर इस लिखावट की पृष्ठभूमि में किसी पेट्रोलियम रिफायनरी की तस्वीर बनी हुई थी। अभी महीना भर पहले जो गाडियाँ दिखती थीं, वे गाड़ियाँ किसानों को उनकी कृषि भूमि से बेदखल होने से बचाने के लिए दौड़ती हुई दिखती थी। अचानक से पासा पलट गया है। चित्त की जगह पट ने ले ली है। जो भूमि बचाने पर आमादा थे वे अब भूमि देने पर आमादा हो गए हैं। मैं सोचता हूँ कि ये कौन लोग हैं जिनके पास पच्चीस पच्चीस लाख रुपये के मशीनी घोड़े हैं। जिनके पास इतनी दौलत है कि ये घोड़े हिनहिनाते हुये कुलाचें भरते ही जाते हैं। इनकी अश्वशक्ति का स्रोत क्या है? हालांकि मैंने गरीब और मजदूरों के आंदोलनों में भाग लिया है, मैंने उनके साथ चौराहों पर रातें बिताई है मगर इतना बड़ा आर्थिक राजनैतिक चिंतन करने में असमर्थ हूँ कि किसानों के पक्षधर इन दौलतमंद लोगों की असली मंशा क्या है। ये किसानों का हित क्यों चाहते हैं। ऐसे घोर कलियुग में भी ये सुखी सम्पन्न लोग ऐश भरा जीवन त्याग कर किसानों के बीच घूल फांक रहे हैं। ये लोग आम किसान का इतना भला चाहते हैं कि भलाई के हवन में अपनी अंगुलियाँ जला रहे हैं।
आप समझने की कोशिश कीजिये। माजरा ये है कि न दोहराए जा सकने वाले रेगिस्तान को मिले विकास के इस वरदान के बाद भारत सरकार के पेट्रोलियम मंत्रालय और इससे सभी आनुषांगिक संस्थानों की सहमति के बाद तय पाया गया था कि बायतु के लीलाला ग्राम और आस पास की ज़मीन पर रिफायनरी की स्थापना की जाएगी। इससे होने वाले विकास और इसके रेगिस्तान पर पड़ने वाले असर से अलग बस दो घटनाओं पर गौर करिए। इसकी पहली प्रतिक्रिया ये थी कि किसानों के आगीवाण बन कर आए नेताओं ने आंदोलन का उद्घोष किया। उनका माँगपत्र पढ़ कर आप हंसी से लोटपोट हो सकते थे। लेकिन वह माँगपत्र अब रेत में कहीं खो गया है। उनकी मांगों में करोड़ों का मुआवजा चाहिए था, ज़मीन के बदले ज़मीन भी चाहिए थी, रिफायनरी में किसानों की हिस्सेदारी भी चाहिए थी और उसी रिफायनरी में हिस्सेदार इन नए उध्योगपतियों को नौकरी भी चाहिए थी। भले लोग इसे हंस कर टाल सकते हैं मगर समझदार लोगों को ये बात साफ समझ आती है कि इस माँगपत्र के तले किया जाने वाला आंदोलन किसानों के हित के लिए नहीं था। ये आंदोलन रिफायनरी किसी सूरत में न लग पाये इसलिए किया जा रहा था। कोई ऐसा क्यों करेगा? मुझे दो तीन बातें ये समझ आई कि इसके बड़े राजनीतिक उद्धेश्य हो सकते हैं। इससे किसी स्थानीय चुनाव को प्रभावित किया जा सके और तीसरा कारण हो सकता है कि वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा में शह और मात का खेल। इन तीनों ही कारणों से किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है, ये हर कोई समझ सकता है तो क्या आंदोलनरत किसानों को ये बात समझ नहीं आई। वे किसान जिंहोने अपने श्रम और विवेक से इस उजाड़ रेगिस्तान की रक्षा की और अन्नदाता बन कर पेट पाला। वे किन कारणों से इस आंदोलन का हिस्सा थे या वास्तव में हिस्सा थे ही नहीं। इस आंदोलन के दौरान कई तरह के आयोजन हुये। इन आयोजनों का नेतृत्व कर रहे लोगों के चेहरे पर कभी कोई उदासी, कोई निराशा या हताशा नहीं देखी गयी। समाचारपत्रों और स्थानीय केबल टीवी पर दिखने वाले इनके चहरों पर एक खुशी थी। एक उल्लास था। क्या ये इस बात का था कि इन्हें कहीं ये मालूम हो गया था कि रिफायनरी यहाँ न लगाने देने का आंदोलन सफल होने वाला है।
राज्य सरकार के लिए रिफायनरी की स्थापना का पत्थर रोपना एक बेहद महत्वपूर्ण काम है। वह इसे किसी भी सूरत में टाल नहीं सकती है। विकास और उसके लाभ को भुनाने के अवसरों को कौन छोड़ देना चाहता है। किसानों के हित की बात करना नक्कारखाने में तूती की आवाज़ है। इसे न सुना जाएगा न सुनने दिया जाएगा। मेरे चाचा – ताऊओं की काश्तकारी की ज़मीन का अधिग्रहण किया गया है। उनको दिये गए मुआवजे मे असीमित असमानताएं हैं। सरकार ने जिस कंपनी के लिए ज़मीन का अधिग्रहण किया है, उसके लिए चुकाए गए मूल्य में दो गुने से ज्यादा अंतर है। ऐसा क्यों है? सरकार वही, कंपनी वही और ज़मीन भी वही। क्या ये तंत्र किसी बड़े के फायदे के लिए छोटे को छल लेने को जायज समझता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि सरकार अपने किसान की जगह कंपनी की पक्षधर बन जाए। इसलिए कुछ किसान अब भी न्यायालय की शरण में हैं। उनकी भूमि पर सरकारी ज़ंजीर की आवाज़ दूर तक दौड़ चुकी है। ऐसे सभी किसानों और भविष्य में अवाप्त होने वाली लीलाला के किसानों की ज़मीन के बदले भी उचित मुआवजा मिलना चाहिए था। उनको कृषि योग्य ज़मीन कहीं और सरकार की तरफ से ऐलोट की जानी चाहिए थी। वह सपना टूट चुका है। इस सपने को तोड़ने वालों की पहचान के लिए ज्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है। ये वो लोग हैं जो एसयूवी पर सवार हवा से बातें करते हैं। इनके मक़सद कुछ और हैं।
अब जो नया आंदोलन चल रहा है, क्या उसकी मंशा किसानों को उनका हक़ दिलवाने की है? या इसके पीछे भी वैसे ही लोग हैं और उनकी सूरतें अलग अलग हैं। अब जो आंदोलन है वह कहता है कि रिफायनरी को बायतु से जाने नहीं देंगे। आने नहीं देंगे से जाने नहीं देंगे तक के सफर में नेतृत्व परिवर्तन हो चुका है। जबकि लीलाला, बायतु और तेल कुओं के आस पास का किसान अब भी उसी बदहाली में जी रहा है। उनके पास किसी से कोई उम्मीद नहीं है। विकास की राह में विकास होने की जगह आम आदमी को सपने दिखा कर उनको तोड़ने का काम प्रगति पर है। कुछ ज़मीन की खरीद फ़रोख्त से जुड़े लोग हैं। कुछ वे हैं जिंहोने किसानों से सस्ते दामों में प्रस्तावित रिफायनरी के आस पास की ज़मीन खरीदी और उसका बड़ा मुनाफा चाहते हैं। इस सारे घटनाक्रम को देखते हुये मैं सोचता हूँ कि अगर आम किसान सागर सिद्धिक़ी के इस शेर पर आ जाए तो जाने इन लीडरान साहेबो का हाल कैसा हो। सिद्दीक़ी साहब कहते हैं-
तेरी सूरत जो इत्तिफाक़ से हम, भूल जाएँ तो क्या तमाशा हो
ये किनारों से खेलने वाले, डूब जाएँ तो क्या तमाशा हो