सड़क किनारे के बुझे लैम्पपोस्ट पर नज़र गयी तो लगा कि अभी वो सो गया होगा। जाने कितने ही दिनों की थकान उसे जगाए हुए है। अगला लैंपपोस्ट देखते ही ख़याल आया कि जाग ही रहा होगा कि जब ज़िन्दगी में रिश्तों के धागे ज़रा उलझे हों तो वे फंदे हो जाते हैं। वे सुलझ जाएं तो सुलझाने में जली अंगुलियां भूलने नहीं देती कि ऐसा था।
फिर दूर तक लैम्पपोस्ट नहीं थे। इस खालीपन से सिहरकर अंगुलियां आपस में कस गईं। ऐसा तो नहीं न कि उसके होने का केवल भ्रम था। वह नहीं है। मौसम से अक्टूबर की शीतलता गुम हो जाती है। हवा की मुसलसल छुअन के बाद भी बेचैनी बढ़ती जाती है।
अचानक चाहता हूँ कि रोशनी की कतारें जगमगा उठें। सड़क पर दूर तक रोशनी फैली हो और बीते दिनों की सब तस्वीरें, बातें और लिखावट सामने आ खड़ी हों। सन्नाटा कुछ नहीं बोलता मगर सन्न सन्न की आवाज़ का ओसिलेटर ऑन हो जाता है। अनवरत।
रात स्याह स्याह बीत जाती है।
सुबह कमरे की सब खिड़कियां खोलकर बैठे होने पर रोशनी महरम बन जाती है। हर कोने तक रोशनी। बहुत सारे रंग खिलने लगते हैं। उतने रंग जो पैरहन में बसे हुए थे। अचानक सोचता हूँ हमारी कितनी छोटी सी चाहना होती है मगर उसके उस पार अकेलेपन का भयावह विस्तार होता है। इस पार अपराजिता पर नीले फूल खिल आते हैं। बिल्कुल लिखने वाली नीली स्याही जैसे।