कोई यायावर अचानक पास आ बैठा



दो टहनियां हवा के साथ आपस में एक दूजे से लिपटी।
चर्र की हल्की आवाज़ आई। जैसे सावन के मौसम में भीगी चारपाई पर कोई आकर बैठ गया।
जैसे किसी ने आधी रात चुपके से उढके हुए दरवाज़े को खोला।
"क्या सचमुच अब किसी के दबे पांव चलने की आवाज़ आएगी?"
मेरे इतना सोचने भर से अंधेरे में रूमान झरने लगा। सहसा कंधे पर छुअन जगी।
आह! ये पेड़ से झड़ी दो सूखी पत्तियां थीं।
जितना मेरा कासा सूखा था, जितनी मेरे मुंह में प्यास थी, जितना किसी का होना, न होने में बदल गया था।
ठीक वैसा था सूखी पत्तियों का स्पर्श।
डब-डब की चार-छह आवाज़ों से मैंने कासे में गीलापन उड़ेल दिया।
जैसे कोई यायावर अचानक पास आ बैठा है और मैं उसके चोर दांत देख रहा हूँ।