दो टहनियां हवा के साथ आपस में एक दूजे से लिपटी।
चर्र की हल्की आवाज़ आई। जैसे सावन के मौसम में भीगी चारपाई पर कोई आकर बैठ गया।
जैसे किसी ने आधी रात चुपके से उढके हुए दरवाज़े को खोला।
"क्या सचमुच अब किसी के दबे पांव चलने की आवाज़ आएगी?"
मेरे इतना सोचने भर से अंधेरे में रूमान झरने लगा। सहसा कंधे पर छुअन जगी।
आह! ये पेड़ से झड़ी दो सूखी पत्तियां थीं।
जितना मेरा कासा सूखा था, जितनी मेरे मुंह में प्यास थी, जितना किसी का होना, न होने में बदल गया था।
ठीक वैसा था सूखी पत्तियों का स्पर्श।
डब-डब की चार-छह आवाज़ों से मैंने कासे में गीलापन उड़ेल दिया।
जैसे कोई यायावर अचानक पास आ बैठा है और मैं उसके चोर दांत देख रहा हूँ।
उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...