सायबान के नीचे खड़ी गाड़ी में बैठा हुआ था। गाड़ी की चाबी अंगुलियों के बीच उलझी थी। जैसे कहीं जाना न था। या मैं जो इस गाड़ी में बैठा था असल में यहां न होकर कहीं और जा चुका था।
जब मैं लौटकर आया तो देखा कि मेरी कोहनियां स्टीरिंग का सहारा लिए थी। मेरी आंखें बन्द थी। मैंने एक सांस ली। ये उस माहौल की ख़ुशबू का पता करना था, जहां से मैं लौटा था। धीरे से आँखे खोलते हुए मैंने सुना कि उसने कहा- "तुम जो चाहो, वही"
मुझे वो रास्ता याद है। ऑफिस से घर आते समय गाड़ी अपने आप चलती है। वह सारे मोड़, स्पीडब्रेकर और रास्ते की रुकावटों को पहचानती है। मैं केवल गाड़ी में होता हूँ। अक्सर नहीं भी होता। कल जब हैंडब्रेक लगाया तो समझ आया कि घर आ चुका है। दरवाज़ा खोलने से पहले फिर उसी तरह गाड़ी में बैठा रहा, जैसे सायबान के नीचे खड़ी गाड़ी में बैठा था।
हवा में थोड़ी ठंडक है। शॉवर को देखते हुए हाथ को प्लग की ओर बढ़ा देता हूँ।
रात का कौनसा पहर है? क्या कोई सोचता होगा कि मैं इस समय क्यों नहा रहा हूँ। इधर उधर रखी छोटी शीशियों से सुगंधित तरल हथेली में लिए हुए भीगा खड़ा होता हूँ। पानी मद्धम बहता रहता है। कोई ख़ुशबू फैल रही होती है।
मैं एक लम्बी सांस लेकर कहता हूँ। शुक्रिया।
हल्की सिहरन, कंपकपी और थोड़ी तेज़ी से बिस्तर में घुस जाता हूँ। हथेलियां ख़ुशबू से भरी है। एसी की ठंडक बाहर वाली ठंडक से अलग है। पतली रजाई में कभी अचानक तेज़ हो जाने वाली सांस से चौंकता हूँ।
मैं कहाँ हूँ? सचमुच हर समय मैं कहाँ होता हूँ। अगर मैं यहां नहीं हूँ तो तो जो यहां छूट जाता है उस आदमी को क्या चीज़ बचाये हुए है। ये मेरे बिना कैसे जी रहा है।