ननिहाल में देग चढ़े, कड़ाह चढ़े। सारणों के घर डोगीयाल, बिनियाल, डूडी, लेगा, जाखड़ सब आये। राजपूत, रेबारी, कुम्हार, मेघवाल, ढाढ़ी और नाई भी आये। सबने चाय की बटकी खाली की। चक्की नुक्ती खाई। बुझी हुई बीड़ी को देखा। गीली मूंछों को पोंछा। अंगूछे को बगल दबाया। मामा के घर से मुझे मौसा ने साफा बंधाया। मैंने भरपेट साग-रोटी खाई और नानी को कहा- "नानी तू इस चरके में ही ज़्यादा मीठी लगती हो"
उस लोक में नानी के मेंढे-भेड़ें बराबर मिल गए होंगे वरना अब तक वह बगल में थैली दबाए, पगरखी पहने स्वर्ग लोक से रूठकर आ चुकी होती। यहां लौटते ही गालियों के धमके उठ रहे होते "आक दूँ ओंरे, डीकरा काले-पिरुं सैढा भोंगे हा। आज चूरमें रा गटका करे हैं।"
एक वही तो दोस्त थी। जिसके सामने मैं संजीदा नहीं रहता था। मैं ऑफिस से घर लौटते ही आवाज़ देता। "माँ जीवता हो?" नानी कहती "लैर है" इस पर मैं कहता- "जीवता हो तो झोली कराओ"
सुबह शाम हम दोनों खुले आंगन में बैठे बटकी भरके चाय पीते। सब दुःख चिंताएं मिट जाती थी।
मेरे पिताजी मृत्युभोज के कड़े विरोधी थे। उन्होने हमेशा कहा कि ये एक कुरीति है। गरीब की दुश्मन बीमारी है। इस बीमारी के लगने पर निजात मुश्किल काम हो जाती है। वे अपने घर परिवार में भी इसका विरोध करते रहे मगर उन्होने विरोध को कोरा आदर्शवादी नहीं रखा। वे भाइयों के बीच बैठे रहे। आप लोग केएचआरसीएच करना चाहते हैं और मेरी बात नहीं मानते तो कोई बात नहीं। मैं अपने यहीं हूँ और दाल रोटी ज़रूर खाऊँगा। आपकी मिठाई मुझे नहीं चाहिए।
जब पिताजी का देहावसान हुआ तो मेरे ताया जी ने साफ कहा कि मेरे भाई ने मृत्युभोज न किया और न करवाना चाहा इसलिए ये सब इस घर में नहीं होगा। हम बच्चों को उनके निर्णय से आसानी हुई। हम भी नहीं चाहते थे कि ये कुरीति हमारे द्वारा पोषित हो। दुख की घड़ी में हम अपने कड़े निर्णयों को ढील दे देते हैं। हमको लगता है कि जीवन हमारे बस की बात नहीं है तो बाकी बातों के लिए क्या मुंह फेरा जाए। लेकिन हमने उस घड़ी में भी पिताजी के बताए रास्ते को नहीं छोड़ा।
नानी के यहाँ यही सब होना था। इसकी आयोजक भी हमारी माएं ही थी। मैंने चाचा मौसा को कहा कि ये सब मत करिए। उन्होने कहा तुम्हारी माएं ही कर रही है। हमने तो मना कर दिया है। मैं माँ को इस उम्र में कोई सीख नहीं देना चाहता हूँ। इसलिए मैंने कहा कि मैं इससे अलग हूँ। जो करके खुश हो रहा है वह मेरे हिसाब से समझदार नहीं है।
मैं वहीं था। खाने के समय मैंने मना कर दिया कि मैं ये मीठा नहीं खा रहा। उन्होने पूछा क्या व्रत उपवास है? मैं उनको झूठ कह सकता था कि हाँ ऐसा ही है लेकिन मैंने उनसे साफ कहा कि मैं मृत्युभोज नहीं करता। अपने घर की रोटी ज़रूर खा लेता हूँ।
लोग धोती तेवटा झाड़कर उठते गए। औरतें थालियाँ माँजती रही। चक्की नुकती की खुशबू से बंधे कुछ कुत्ते खेत में बैठे रहे। वे कब तक बैठे रहते। शाम होते ही कुत्ते-कोवे सब अपने मार्ग चल दिये।
नानी ये सोचा मिठाई की खुशबू उड़ जाएगी। कल तो चाय पत्ती और लालमिर्च-नमक की घर में ज़रूरत रहेगी। उस लोक में बैठी नानी ने अपनी बुगची देखी। बुगची में जाने क्या था क्या नहीं। वे बहुत देर तक देखती रही।