Skip to main content

कि मोहब्बत भी एक कफ़स है

लिख रहा हूँ मगर उस बीते हुये मौसम से बेखबर एक रूह सीने पर आ बैठी है। कहती है पीठ के तकिये को नीचे करो। इस पर सर रखो और सो जाओ. दुनिया खाली है। इसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। मैं दो पंक्तियाँ और लिख कर हार जाता हूँ। लेपटोप टेबल को एक तरफ रख देता हूँ। खिड़की से दिखते पहाड़ पर सूनापन है। जिंदगी में भी। अभी इसी वक़्त किसी की अंगुलियों का स्पर्श चाहिए। इस भारी रूह को विदा करना चाहता हूँ कि सांस आराम से आए। मुझे चाहिए कि कोई भी आए, कोई भी पर इसी वक़्त आए। ज़िंदगी तुम्हें मैंने खुद ने बरबाद किया है। इसलिए अपने हिस्से की इस सज़ा को कम भी किस तरह करूँ। तीन बार अलमारी तक गया और लौट आया... आह ! गुलाबी रंग की दवा नहीं भर सकती कोई रंग। वह मुझे शिथिल कर देगी। मैं बिस्तर पर आधा लेटा हुआ, ये सब लिखता सोचता हूँ। रहम एक बड़ा शब्द है... रहम करो।
* * *

ग्रेवीटि के खिलाफ़ काम करती है मुहब्बत। दुनिया नहीं पसंद करती हवा में उड़ते आदमी को इसलिए वह खड़ी रहती है स्थापित मूल्यों के साथ और ग्रेविटी के फ़ेवर में एक दिन मार गिराती है इस शे को।
* * *

आत्मकथाओं में लिखा जाने वाला कॉमन झूठ है, बरबादी की वजह। इसलिए कि मैं जिसके लिए लिखता हूँ आँसू, मेरी किस्मत में वही था। हालांकि उम्र भर मैंने दी कितनों को ही आवाज़ और हो जाना चाहा था बरबाद उनके लिए। आत्मकथाएं इन आवाज़ों को छिपा लेती है।
* * *

काश तुकबंदी करने जितनी आसान होती ज़िंदगी 

संशय की लहरों पर जीना, अजनबीयत का सागर भीना, खुद को ही बुद्धू कर दीना, छान छान कर रिश्ते पीना, ऐसा कब तक काम करेंगे, क्यों न हम आराम करेंगे। किसी दूर देश के परबत को, किसी घने कोहरे के जंगल को, किसी नीले सागर के पैरों को, किसी रूठे हुये आदिम भैरों को, हम अपना असलाम कहेंगे, इस कूचे में नहीं रहेंगे। उस सुंदर सी एक बाला को, इस कड़वी सी हाला को, दर्द भरे के एक नाला को, दिल में बैठे छाला को कब तक आँखों से जाम पिलाएँ कब तक रूठें तोड़ते जाएँ, कब तक चीखें कब तक चिल्लाएँ, ये ऐसा जीवन, जाने कैसा जीवन है, ये मिटता ही नहीं हैं, मिटता है तो बुझता ही नहीं है, बुझता है तो धुआँ नहीं है, आखिर कुछ हमको हुआ नहीं है। जी के इतने जंजाले को नहीं सहेंगे, सच कहता हूँ नहीं रहेंगे... लेकिन कब तक आखिर कब तक?
* * *

वह धुंधलका, चुप्पी, अक्स, जिज्ञासा, 
रोशनी, अंधेरा और लिबास है 
वह है एक अनवरत घेरती हुई शाम। 

मैं एक मुट्ठी धूल हूँ, हवा में, मगर उसी के लिए हूँ। 
* * *

उस परिंदे के गुलाबी पैरों में 
न बांधो कोई ज़ंजीर 
कि मोहब्बत भी एक कफ़स है। 

न हो कोई ख्वाब बाकी, 
न किसी दोशीजा को पाने की हसरत 
मगर तुम भी चलते रहो 
किसी मुसाफिर की तरह, कि अभी है तुममें सांस बाकी। 
* * *

Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...