लिख रहा हूँ मगर उस बीते हुये मौसम से बेखबर एक रूह सीने पर आ बैठी है। कहती है पीठ के तकिये को नीचे करो। इस पर सर रखो और सो जाओ. दुनिया खाली है। इसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। मैं दो पंक्तियाँ और लिख कर हार जाता हूँ। लेपटोप टेबल को एक तरफ रख देता हूँ। खिड़की से दिखते पहाड़ पर सूनापन है। जिंदगी में भी। अभी इसी वक़्त किसी की अंगुलियों का स्पर्श चाहिए। इस भारी रूह को विदा करना चाहता हूँ कि सांस आराम से आए। मुझे चाहिए कि कोई भी आए, कोई भी पर इसी वक़्त आए। ज़िंदगी तुम्हें मैंने खुद ने बरबाद किया है। इसलिए अपने हिस्से की इस सज़ा को कम भी किस तरह करूँ। तीन बार अलमारी तक गया और लौट आया... आह ! गुलाबी रंग की दवा नहीं भर सकती कोई रंग। वह मुझे शिथिल कर देगी। मैं बिस्तर पर आधा लेटा हुआ, ये सब लिखता सोचता हूँ। रहम एक बड़ा शब्द है... रहम करो।
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ग्रेवीटि के खिलाफ़ काम करती है मुहब्बत। दुनिया नहीं पसंद करती हवा में उड़ते आदमी को इसलिए वह खड़ी रहती है स्थापित मूल्यों के साथ और ग्रेविटी के फ़ेवर में एक दिन मार गिराती है इस शे को।
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आत्मकथाओं में लिखा जाने वाला कॉमन झूठ है, बरबादी की वजह। इसलिए कि मैं जिसके लिए लिखता हूँ आँसू, मेरी किस्मत में वही था। हालांकि उम्र भर मैंने दी कितनों को ही आवाज़ और हो जाना चाहा था बरबाद उनके लिए। आत्मकथाएं इन आवाज़ों को छिपा लेती है।
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काश तुकबंदी करने जितनी आसान होती ज़िंदगी
संशय की लहरों पर जीना, अजनबीयत का सागर भीना, खुद को ही बुद्धू कर दीना, छान छान कर रिश्ते पीना, ऐसा कब तक काम करेंगे, क्यों न हम आराम करेंगे। किसी दूर देश के परबत को, किसी घने कोहरे के जंगल को, किसी नीले सागर के पैरों को, किसी रूठे हुये आदिम भैरों को, हम अपना असलाम कहेंगे, इस कूचे में नहीं रहेंगे। उस सुंदर सी एक बाला को, इस कड़वी सी हाला को, दर्द भरे के एक नाला को, दिल में बैठे छाला को कब तक आँखों से जाम पिलाएँ कब तक रूठें तोड़ते जाएँ, कब तक चीखें कब तक चिल्लाएँ, ये ऐसा जीवन, जाने कैसा जीवन है, ये मिटता ही नहीं हैं, मिटता है तो बुझता ही नहीं है, बुझता है तो धुआँ नहीं है, आखिर कुछ हमको हुआ नहीं है। जी के इतने जंजाले को नहीं सहेंगे, सच कहता हूँ नहीं रहेंगे... लेकिन कब तक आखिर कब तक?
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वह धुंधलका, चुप्पी, अक्स, जिज्ञासा,
रोशनी, अंधेरा और लिबास है
वह है एक अनवरत घेरती हुई शाम।
मैं एक मुट्ठी धूल हूँ, हवा में, मगर उसी के लिए हूँ।
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उस परिंदे के गुलाबी पैरों में
न बांधो कोई ज़ंजीर
कि मोहब्बत भी एक कफ़स है।
न हो कोई ख्वाब बाकी,
न किसी दोशीजा को पाने की हसरत
मगर तुम भी चलते रहो
किसी मुसाफिर की तरह, कि अभी है तुममें सांस बाकी।
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