रात होते ही हर कहीं अंधेरा उतरता है। मुझे सबसे ज्यादा पहाड़ों पर दिखाई देता है। सहसा खयाल आता है कि सबसे घना अंधेरा वहाँ पर है जहां कुछ दिख नहीं रहा है। पहाड़ तो कितने सुंदर नज़र आ रहे हैं इस रात के आँचल में चुप खड़े हुये। मैंने पालथी लगा कर छत पर बैठे हुये, पहाड़ से पूछा- तुम किस तरह अपने महबूब से प्यार करते हो। तुम अपने प्रेम में अटल खड़े हो या इंतज़ार में। पहाड़ मुझे जवाब नहीं देता है। संभव है कि पहाड़ को इतना स्थिर होने का अभिमान है। मैं उससे मुंह फेर कर टहलने लगता हूँ। अचानक याद आता है कि पहाड़ पर देवताओं के भी घर हैं। उन तक जाने के लिए बने रास्ते पर रोशनी का प्रबंध है। मैं उस रास्ते को देखने के लिए मुड़ता हूँ। ईश्वर, उदास है। चुप बैठा हुआ है पहाड़ की ही तरह एक मूरत बन कर। ऐसे हाल में क्या तो उसको कोई अर्ज़ी दी जाए, क्या उसको बतलाया जाये। मैं उसे उसी के हाल पर छोड़ कर वापस मुड़ जाता हूँ।
ठंडी हवा का एक मासूम झौंका आया और आँखों को कुछ इस तरह छेड़ गया कि वे नम हो गयी। इस नमी में दिखता है कि धरती है, घर है, दीवारें हैं, मुंडेर है, हवा है, आसमान है, और कोई है जो मुझे रुला रहा है। वह चाहता है कि ये आदमी कई दिनों से तकलीफ में है। इसे अपने दिल का बोझ हल्का ज़रूर करना चाहिए। इसलिए वह रुलाता जाता है। जैसे शाख से तोड़ा हुआ फूल पानी में डालने पर एक बार का ज़िंदा होने जैसा दिखने लगता है वैसे ही मैं पाता हूँ कि रो लेने में बड़ा सुख है। मैं आज नया नया सा हूँ। मैं भीग रहा हूँ। मेरे चश्मे पर एक नमक की परत चढ़ रही है। जैसे हम ईचिंग से काँच को धुंधला कर देते हैं। इस लायक कि कोई न देख सके अंदर का हाल। लेपटोप का की बोर्ड भी धुल रहा है। सोचता हूँ कि ये कोई धुलने की चीज़ तो नहीं फिर मुस्कुरा देता हूँ कि दिल भी क्या रोने के लिए बना?
बेईमान आदमी सबसे पहले सोचता है
सिर्फ बेईमानी के बारे में।
निर्मल शैतान सोचता है
शैतान की पवित्र प्रेमिका के बारे में।
चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो नसीब
चालीस की उम्र तक मिल ही जाता है एक खरा महबूब।
और चौबीस करेट सोना, कभी खड़ा नहीं रह सकता अकड़ कर।
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भर रहा हूँ शराब इसमें सिर्फ इसलिए
कि मालूम हो साबुत बचा हुआ है पैमाना।
तुमने जिस तरह तोड़ा है उसका कोई जवाब नहीं
एक भरम तो मगर हो सबके पास जीने के लिए।
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कि मालूम हो साबुत बचा हुआ है पैमाना।
तुमने जिस तरह तोड़ा है उसका कोई जवाब नहीं
एक भरम तो मगर हो सबके पास जीने के लिए।
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और सच में मैंने चाहा था उसे
कि जी सकूँ एक मुकम्मल उम्र
उसके आसरे।
कहीं पत्थर नहीं होते कहीं दीवारें नहीं होती।
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ओ पहाड़ पर बैठे हुये ईश्वर
तुम अपने तक आने के रास्ते की
बत्तियाँ बुझा कर सोया करो।
कि जब भी महबूब बंद कर देता है, रास्ता
जाने क्यों, तुम तक आने को जी चाहता है।
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कैसी लाईफ बाबू और कैसा केयर
सब जी का जंजाल है, खुद ही रूठते हैं खुद मान जाते हैं।
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तुम हो कहीं ?
जी चाहता है कि
आखिरी अच्छे आदमी से बात कर ली जाए।
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क्या किसी के पास बची है थोड़ी सी विस्की
या थोड़ी सी गैरज़रूरी हिम्मत
या फिर बचा हुआ हो कोई टुकड़ा आत्मसम्मान का।
उधार दे दीजिये, कि एक पूरी ज़िंदगी का सवाल है।
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ईश्वर मैं उठ रहा हूँ तुम्हारा नाम लेकर
गर बची हो ज़रा सी भी गैरत
तो बचा लेना खुद का बेड़ा गर्क होने से।
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[तस्वीर जैसलमेर के गड़िसर तालाब की है। पिछले साल ली थी। सोच रहा हूँ कि महबूब न हुये होते तो इतनी सुंदर जगहें कैसे बनाई जा सकती]