आज की सुबह सोचा है अच्छी विस्की होनी चाहिए। क्योंकि मेरे लिए अच्छे जीवन का मतलब अच्छी विस्की ही होता है। मैं करता हूँ न सब-कुछ। मानी जो इस दुनिया में एक अच्छा पति करता है, पत्नी के लिए। पिता, बच्चों के लिए। बेटा, माँ के लिए। भाई, भाई के लिए। महबूब, महबूब के लिए। ये सब करते जाने में ही सुख है। ज़िंदगी और कुछ करने के लिए नाकाफी है। इसलिए कि मैंने ये चुना है, इसके मानी न जानते हुये चुना है। मगर अब तो फर्ज़ है कि किया जाए। नींद नहीं आ रही इसलिए सोचा कि स्कूल में जो अक्षर लिखने सीखे थे, जिन अक्षरों के लिखने से पिता खुश हुये थे। जिनको देख कर मास्टर साहब के चहरे पर मुस्कान आई थी। जिनको पढ़ कर तुमने महबूब होने में खुशी पायी। उन्हीं अक्षरों से आज खुद के लिए सुकून का लम्हा बुन लूँ, इसलिए लिख रहा हूँ।
रेगिस्तान में आधी रात के बाद
जाने क्या क्या आता है याद
और फिर इस तरह शुरू करता हूँ समझाना खुद को।
कि किसी के हिस्से में नहीं बचती ज़िंदगी
इसलिए इस रात का भी
ऐसे ही कुंडली मारे हुये, ज़िंदा रह पाना मुमकिन नहीं है
और तुम गुज़रते हुये उसके ख़यालों से
भले ही सो न सको सुकून की नींद, मगर ठहरेगा कुछ भी नहीं।
उसकी आमद की खुशी को पिरोया था जिन दिनों में
डूब गए वे दिन
और फिर हवा के एक झौंके ने उलट दी मेज पर रखी उसकी तस्वीर।
सर्द रातों में खुला पड़ा दरवाज़ा, एक सफ़ेद पतली रज़ाई
एक उसका झीना कुर्ता
एक शहर की रोशनी में खोये हुये चाँद की भरपाई करता उसका चेहरा
एक मैं अपने ही गुमशुदा होने के अफसोस को सीने से लगाए हुए चुप पड़ा हुआ।
ये कोई दीवाली की रातें न थी
ये कोई बसंत के बाद की खुशबू से भरी सुबहें न थी
ये गरम रुत के सबसे बड़े दिनों की तवील शामें भी न थी
ये ऐसे अबूझ वक़्त के हिस्से थे
कि जितनी बार चूमना था उतनी ही बार बढ़ जानी थी बेक़रारी
और उतना ही भरते जाना था ज़िंदगी का प्याला याद से।
ये और बात है कि आँखों से दूर होते ही
उसने झटक कर अलग कर दिया होगा मुझे
कि उसके हिसाब में जाने क्या होता है ज़रूरी, क्या नहीं?
मेरे लिए सुबह उसकी छातियों के बीच अपना सर रख कर सुनी गयी धड़कन
आखिरी ज़िंदा चीज़ की याद है।
इस वक़्त रेगिस्तान में बीत चुकी है आधी से ज्यादा रात
आँधी उड़ा रही है मेरे लंबे बाल।
मैं उदास हूँ, मेरी आँखें पनियल हैं,
बहलाता हूँ खुद को कि ये खोये हुये घरवालों की भीनी याद का मौसम है
मगर हर कोई जानता है इस सृष्टि में कि उसका नाम क्या है
क्या चुभ रहा है मुझे बिस्तर की सलवटों में
किसलिए वह होकर भी नहीं होता।
सूखी पड़ी नदी में जिस तरह भंवर खाती हुई उड़ती है रेत
उसी तरह उसके बारे में बेहिसाब बातें घूमती हैं मेरे सिर के पास
मैं घबराता हूँ, खुद को हौसला देने के लिए फरियाद करता हूँ
सोचता हूँ कि क्या किसी का महबूब हुआ करता है उसके लिए मुबारक।
बस एक आखिरी बार कर लूँ दुआ
कि मुझे दे दो कोई नींद की सुराही से कुछ बूंदें, कि मैं सो सकूँ
कि अपनी ही कही बात पर एतबार ज़रा कम है कि किसी के हिस्से नहीं बचती ज़िंदगी।
मेरे लिए मुश्किल है ये घड़ी गुज़ारना भी
कि जाने कैसे तो बीतेगी ये रात कैसे खत्म होगी ज़िंदगी।
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[तस्वीर मेरी ख़ुद की ही है पिछले शुक्रवार 1 मार्च की दोपहर को ली हुई]