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उधड़ी सिलाई से दिखती ज़िंदगी

कमरे की दीवारों का रंग उड़ गया है। उस कारीगर ने जाने कैसा रंग किया था। उसे खुद इसका कोई नाम मालूम न होगा। ऐसे नामालूम नाम वाले रंग के जैसी एक नामालूम चीज़ है। भारी पत्थर की बनी हुई घोड़े की नाल है। चुपके से सर के ऊपरी हिस्से में सलीके से फिट हो गयी है। जिस तरफ सर को घुमाओं साथ साथ उधर ही घूम जाती है। सिंक्रोंनाईज्ड है। बोझ नहीं है। दिमाग के भीतर के तरल द्रव्य के ऊपर तैर रही है। लगता है कुछ अनचाहा रखा हुआ है। ऐसा पहले नहीं था। 

सीना जैसे दुबले जानवर की पीठ है। भूल से इसके भीतर की ओर कोई जीन उल्टी कस दी गयी है। घुड़सवार लौटने का रास्ता भूल गया है। सांस लेना भी एक काम बन कर रह गया है। एक जगह बैठो सांस लो। न बैठ सको तो उठ कर चलो और चलते हुये सांस लो। सांस न लो। ये मुमकिन नहीं है। याद रख कर सांस लेना भूलते ही कोई छटपटाता है। जैसे किसी बासी पानी से भरे हुये अक्वेरियम में कोई मछली ताज़ा सांस की उम्मीद में पानी की सतह को चूमती है और डर कर वापस लौट आती है। वही अपारदर्शी, धुंधला और गंदला पानी जीवन बन जाता है। 

मट्ठा में समझते हो। हाँ छाछ। पतला किया हुआ फेट-फ्री दही। 
मैं फ्रीज़ का दरवाजा खोल कर रोटी खोजता हूँ। रोटी नहीं मिलती, दही का कटोरा निकाल लेता हूँ। जालीदार अलमारी में साग खोजता हूँ मगर कटोरदान हाथ आता है। तीन चपाती ले लेता हूँ। मट्ठा पीने से शायद सांस आएगी। मुझे छोटी कटोरी चाहिए मगर मैं एक चमच हाथ में लेकर खड़ा हूँ। मुझे एक ऐसी झेरनी चाहिए जिसे दिमाग के तरल में रखूँ और सिर के ऊपरी माले में रखी हुई घोड़े की नाल की आकार की भारी चीज़ को मथ दूँ। भूल जाता हूँ कि मुंह में रोटी का टुकड़ा बिना साग के रखा है या साग भी है। ज़रा देर सोच कर मालूम करता हूँ। मुंह में रोटी का टुकड़ा ही नहीं है। पकी हुई लौकी के टुकड़े और कुछ धनिये की पत्तियाँ है।

ये पेन ऊपर की जेब में क्यों रखा है।
मैं अपने हाथ वाली मट्ठे से भरी कटोरी को रसोई के स्टेंड पर रख कर अपने सीने पर हाथ रखता हूँ। वहाँ जेब ही नहीं है। मैंने टीशर्ट पहना हुआ है। मुझे याद आता है कि मैंने पेन को नीली जींस के दायें पॉकेट में रख लिया है। घर के ऊपर वाले माले से आवाज़ आती है। अपना हर दिन ऐसे जीयो, जैसे कि आखिरी हो। लतीफ़ेबाज़ फ़िल्मकार रोहित शेट्टी की फ़िल्म का एंड होने को है। मुझे याद आता है कि मिथुन दादा बहुत बूढ़े हो गए हैं। जैसे मैं बहुत उलझ गया हूँ। दोपहर का भोजन हो गया है फिर ये मट्ठा क्यों बचा हुआ है। अचानक, खुद को देखता हूँ और पाता हूँ कि शॉर्ट् पहने हुये हूँ। वरना कोई कहने वाला था। टक-इन किया करो।

उसका नाम माधवन था। वह कमीज़ को ट्राउजर से बाहर रखे किसी फ़िल्म के दृश्य में नथुने फड़काता हुआ, भय के कारोबार की चिंता करता रहता था। मैं किसकी चिंता करता हूँ। पाँव पर किसी का हल्का सा स्पर्श। कुछ सूखी पत्तियाँ है। गेंदे के फूलों की एक माला से छिटक कर आँगन में फर्श को चूमती फिर रही हैं। मैं ज़रा झुक कर उनको उठा लूँ इससे पहले याद आता है कि मट्ठे में सिर्फ गुलाब की सूखी पत्तियाँ डाली जा सकती हैं।

मैं रोज़ तय करता हूँ कि लिखना छोड़ दूँ।
* * *

[ Painting Image Courtesy : Sharon Cummings]

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