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जो अपने आप से रूठा रहे

समय की गति सापेक्ष है. हम अगर आकाशगंगा में एक निश्चित गति से कर सकें घूर्णन तो हमारी उम्र हज़ारों साल हो सकती है. ऐसा करने के बाद लौट कर आयें और न पहचान सकें किसी एक अपने की आँखें तो ये बचाई हुई उम्र किस काम की? हम अगर इसी पल स्वेच्छा से मर जाएँ और हज़ारों बरसों तक कोई हमें कोसता रहे तो ये चुवान किस काम का? तो क्या हम न अपने लिए जीयें और न अपने लिए मरे?

अमित सुनो. आज से बारह साल पहले तुम कैसी कहानियां लिखते थे. ये तस्वीर एक ऐसी निशानी है जिसमें तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ दुनिया का एक सबसे प्रिय संबोधन है. मेरी बेटी अपनी नर्सरी की किताब लिए हुए बैठी है. तुमने ही कहा था कि ये कहानी जहाँ छपेगी उसके साथ मुझे मानू की तस्वीर चाहिए. तुम्हारा प्रेम जो बेलिबास था उसे सब पागलपन समझते थे. मैं जितना जनता हूँ तुम्हे वह सब लिखने से एक किताब बन जायेगी. मैं इन दिनों दफ्तर के काम में व्यस्त हूँ फिर चुनाव है और उसके बाद वक्त होगा एक उपन्यास का. लेकिन फिर भी मैं ज़रूर लिखूंगा हमारे बचपन और अधेड़ होने की ओर बढते दिनों को.

मैंने चाहा कि तुम्हारी आवाज़ इंटरनेट पर तब तक बची रहे जब तक मैं हूँ मुफ्त का ब्लोगर है और मुफ्त का वर्ल्ड वाइड वेब है. बावजूद इसके कि दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है.

जो ऊग्या सो आथमें, फूल्या सो कुम्हलाय
जो चिणिया सो ढही पड़े जो आया सो जाय.

जो उदित होता है वह अस्त हो जाता है, जो खिलता है वह कुम्हला जाता है, जो चिना जाता है वह ढह जाता है और जो आता है उसे जाना पड़ता है.

अमित तुम्हारी कहानी माँ. इसे मैंने साल दो हज़ार दो में रिकार्ड किया था.

 

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