पनघट रोड बड़ा रूमानी सा लगता है. लेकिन हमारी पनघट रोड पर मोचियों, सुनारों, मणिहारों और अंत में एक भड़भूंजे की दूकान थी. इस पनघट रोड से होते हुए हम या तो गुरु जी आईदान सिंह जी के यहाँ जाते या संजय के घर.
अमित से जान पहचान और दोस्ती के सिलसिले के आगे बढ़ने के दौरान मैं एक छात्र संगठन में काम कर रहा था. वहाँ पोस्टर और बेनर बनाना, कवितायेँ सुनना और खूब सारा लिटरेचर पढ़ना भर मेरे काम थे. स्कूल से आते ही मैं बस्ते को ऐसे जमा करता कि जैसे अब इसका काम अगले जन्म ही पड़ने वाला हो. मैं जो घर में तनहा बैठा हुआ उजले दिनों के सपने देखता था, ग्यारहवीं में आते आते बाहर की दुनिया का लड़का हो गया था. मेरे आस पास खूब सारे लड़के हुआ करते. हम सब अक्सर कोई मोर्चा निकालने की योजना बना रहे होते.
अमित की दुनिया के लोग कोई और थे. उनमें मुझे संजय के सिवा कोई याद नहीं आता. संजय से मेरी असल मित्रता आकाशवाणी में एक साथ नौकरी करने के दौरान हुई लेकिन स्कूल के दिनों में अमित और संजय बड़े कहानीकार बन जाना चाहते थे. अमित की सायकिल राय कॉलोनी से निकलती तो फकीरों के कुएं के पास आते ही अपने आप बाएं मुड़ जाती थी. अक्सर सायकिल के साथ पैदल चलते हुए अमित कि छवि बनती थी. जोशियों के निचले वास में बालार्क मन्दिर से ठीक पहले संजय का घर आ जता था. घर की चार सीढी चढने पर बाहर के कमरे में संजय और अमित की कहानी और लेखन चर्चा चलती थी. मैं जब संजय के यहाँ गया तब सोचा कि अमित यहाँ बैठता होगा. लेकिन संजय का चाय प्रेम उनको उन दोनों को खींचकर पनघट रोड से नीचे की ओर धकेल देता था.
उन दोनों की कुछ कहानियां बाल भारती और चम्पक जैसी किताबों में आई. इसके बाद अमित दिल्ली प्रेस का दीवाना हो गया. ये दीवानगी कोई पल भर का प्यार न थी वरन उम्र भर चलने वाली थी. अमित और संजय कस्बे के लेखकों के घरों और दुकानों पर चक्कर लगाया करते थे. उनके लिए लिखना तूफानी रूमान की तरह था. वे रचनाएँ प्रकाशन के लिए भेजते और हल्के लिफ़ाफ़े का इंतज़ार करते थे. भारी लिफाफा लौट आना मतलब रचना का अस्वीकार हो जाना था. उनकी कई रचनाओं पर महीनों स्वीकृति के बाद भी छपी हुई किताब न आती. वे दोनों पोस्ट ऑफिस सुबह ही पहुँच जाते. डाकिये उन दोनों को मोहल्ले में इतना जानते थे जितना कि किसी वकील और डॉक्टर को नहीं. सबसे अधिक चिट्ठियां उन दिनों इन्हीं के नाम आती थी.
मैंने जब हाई स्कूल छोड़ी और कॉलेज में आया तब मैं छात्र आंदोलन से ऊब गया था. वहाँ सीमायें थीं. इसलिए मैं किसानों और मजदूरों के लिए काम करने लगा. साल भर राजस्थान की अनेक जगहों पर हो रहे किसानों के आंदोलनों में शिरकत करता. अपने जिले के कुछ गांवों में किसानों के साथ रात बिताता हुआ समझना चाहता कि असल माजरा क्या है. रोटी उगाने वाला खुद भूखा क्यों है? मेरे इन प्रवासों के कारण और राजनितिक रैलियों में घूमते रहने के कारण भी अमित और संजय से मिलना खत्म सा हो गया था.
अमित की लिखावट को खोजते हुए कल मुझे मेरी कई तस्वीरें मिली जिनमें मैं मजदूरों और किसानों को संबोधित कर रहा हूँ. वे झंडे लिए हुए बैठे हैं और मैं एक नीला कमीज पहने हुए हाथ में लिए कागज लहरा रहा हूँ. मुझे याद आया कि मेरे पास प्रेम करने के लिए साहित्य से ज़रुरी चीज़ थी.
अमित के बोम्बे जाने के पहले दो साल खुशी से भरे होने और उसके ग्राफ के लगातार नीचे गिरते जाने के थे. वह धीरेन्द्र अस्थाना से मिलता था. उसके होस्टल के सामने उदित नारायण रहते थे और उनकी अक्सर मुलाकातें होती थीं. बम्बई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के हेड बांदिवडेकर साहब का प्रिय शिष्य था. सांताक्रूज स्थिति कलीना केम्पस के न्यू बॉयज हॉस्टल में रहने वाले सभी लड़के मैदानी इलाकों से आए हुए थे. वे सब फ़िल्मी दुनिया में सितारा होने की आशा से भरे थे. ऐसे माहौल में अमित का होना, सपन संसार में आ जाना ही था. वह वहाँ मंटो की कहानियों पर नाटक करता था. कहानी टोबाटेक सिंह पर उसका निर्देशित नाटक उन दिनों बहुत सराहा गया था.
वह मुझे खत लिखता था. वह मुझसे शिकायतें करता था कि तुम मुझे भूल गए हो. तुम अपने बारे में कुछ नहीं लिखते.
अमित के बोम्बे जाने के फैसले को सोचते हुए मुझे ख़याल आता कि ये हद दर्ज़े का दुस्साहस है. उसने कैसे एक सपने के लिए समझौता किया है. क्या वह इस चक्रव्यूह में मारा नहीं जायेगा. मैं अक्सर सोचता कि बड़े बनने का सपना देखना सबके लिए समाजवाद की तरह था मगर बड़े बनने को असल जामा पहनाना जंगल राज की तरह था. लाखों सपने देश के कोनों से चलकर आते हैं और बोम्बे में आखिरी सांस लेते हैं. क्या अमित के लिए भी यही था कि वह किसी चाल में शराब पीते हुए किसी नई औरत के साथ जीते हुए जीवन को इति की ओर ले जाये. या फिर वह हो सकता था एक मध्यम वर्गीय पत्रकार या स्क्रिप्ट लेखक? लेकिन मुझे इस बात पर यकीन नहीं था कि वह कभी सेंटर टेबल पर चमकीले काले जूते पहने पाँव रखे हुए रणजीत की तरह वेट 69 पी रहा होता और कह पाता कि ज़िन्दगी तुम मुझसे दांव खेलना चाहती थी न? आ आज कर मुकाबला. देख वे रेगिस्तान की गलियां कहाँ छूट गयी है पीछे, देख आज इस पचासवीं मंज़िल के शीशे के पास कैसा दिखता है समंदर.
मैं बोम्बे गया तब तक खूब वक्त पिघल कर बह चुका था. लेकिन उसकी चाल और सिगरेट पीने के सलीके में कोई बदलाव न था. शाम होने के बाद हम दोनों सांताक्रूज के एक बार में बैठे थे. उसके साथ उसके दो दोस्त थे. अमित ने कहा क्या पियोगे? मैंने कहा शराब होनी चाहिए. उसने कहा वोदका चलेगी? मैंने कहा कुछ भी चलेगा. अमित के दोस्त ने जेब से अपना रुमाल निकाला. पहले हमारे प्याले में पानी भरा और फिर रुमाल के सहारे शराब को इस तरह प्याले में उतारने लगा कि शराब और पानी आपस में मिल न जाएँ. पेग बन गए. नीचे पानी ऊपर नीट शराब. बारी बारी से सबने एक ही सांस में उन प्यालों को अप किया. वे पूरे फ़िल्मी लोग थे. रात के बारह बजे तक हम शराब पीते रहे. इसके बाद हमको खाने के लिए कुछ नहीं मिला.
आपने, कहो ना प्यार है फ़िल्म का एक ट्रेक सुना ही होगा. एक पल का जीना फिर तो है जाना... ये विजय अकेला का लिखा हुआ गीत है. विजय हॉस्टल में अमित का पड़ोसी था. अमित का कहना था कि होस्टल के लड़कों को सिगरेट खत्म होने पर सिर्फ मेरे पास ही उम्मीद बचती है. अमित कुछ इस अंदाज में कहता कि जैसे हिन्दुस्तान की टोबेको कम्पनी वही है. आईटीसी का वेयर हाउस उसके होस्टल का ही कमरा है. उसके इस फेंकू अंदाज से मुझमें थोड़ी आस जागती थी कि लालची लोगों की दुनिया में वह कुछ कर पायेगा. हॉस्टल में सब ज्ञानी और रचनाधर्मी लड़के रहते थे. एक कमरे के दरवाज़े पर सूचना लगी थी. “सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो/अभी पकड़े पकड़े सो गया है.” वे सब लड़के सिनेमा संसार में कहाँ खो गए. उनके सपनों का क्या हुआ? विजय अकेला अब क्या करता होगा?
अमित से मिलने बहुत सारे लोग बोम्बे गए. उनमें प्रकाश सिंह राठौड़, संजय और मेरा छोटा भाई मनोज भी थे. वे सब अपने ही किसी काम से बोम्बे गए मगर अमित से मिलकर ज़रूर आए. मनोज और राकेश शर्मा एमएससी करने के दौरान गोवा जाते समय अमित से मिले थे. जो भी उससे मिलकर आता उसकी लंबी फेंकी हुई चीज़ों पर मुस्कुराता रहता था. अमित ने मगर फ़िल्मी संसार को समझते हुए अपने लिए रोज़गार के रूप में पत्रकारिता की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था. वह मुझे खत लिखता तो ऐसे सपने ज़रूर बांटता था. उसके खतों में एक खास किस्म का रुमान और खुशी छलकती थी. उसने दो साल में जो जो काम किया उनका क्या हुआ नहीं मालूम मगर हिंदी विभाग से पहले दर्ज़े में उसने एम ए की डिग्री ज़रूर ले ली.
उसका समझौता इस पढाई भर का समझौता था. समझौता टूटने का दिन आने से पहले भी कई बार लगभग तोड़ा जा चुका था. वह किसी तरह इस बात पर अड़ा रहा कि पिताजी आपने मुझे बोम्बे जाने की अनुमति दी थी. उसके पापा का कहना था कि नहीं ये सिर्फ तुम्हारी पढाई के लिए था. वह छुट्टी में बाड़मेर आता तो मुझसे मिलता और यही बात कहता कि घरवाले कुछ समझते ही नहीं. मैं उसके इसी एक प्रलाप का पोषण नहीं कर सकता था. इसलिए एक दिन मैंने कह दिया- "वह लड़की जो तुमसे ब्याही है, उसे क्या करना चाहिए?" अमित खूब नाराज हुआ. बोला कि ये उसके बाप को और मेरे बाप को तय करना होगा. मैंने थोड़े कहा था कि मैं शादी करना चाहता हूँ. इतना कहते हुए उसका चेहरा ज़र्द हो जाता. वह और अधिक परेशान होता जाता. सिगरेट पीता. फिर मेरी ओर देखते हुए पूछता- "तुम्हारे पास कितनी ज़िन्दगी है?" मैं उसे सुनता रहता वह कहता ही जाता.
हम तिलक बस स्टेंड पर रेखे की चाय पीते. चाय पीने के बाद फिर बात करते. बात हर बार इसी बात पर अटक जाती कि तुम शादी का क्या करना चाहते हो. अमित कहता और चाय पीनी है? सिगरेट सुलगाता और सायकिल को स्टेंड से उतार देता. हम रेलवे फाटक के पास आते और वह बाएं मैं दायें मुड़ जाता. फाटक के नीचे कुत्ते मेरा इंतज़ार कर रहे होते. वे मेरे साथ चलते हुए मुझे गली तक छोड़ कर वापस मुड़ जाते.
अमित स्वेच्छा से चक्रव्यूह में अपने पाँव रख चुका था और उसके लौटने का खेल शुरू होने से पहले ही उसके अपनों ने घेरा कसना शुरू कर दिया था.
मैं जो उसे सलाह दे रहा था. वह नातज़ुर्बेकारी थी. मैं कहता कि तुम लिखो खूब सारा लिखो मगर एक सुन्दर घर बनाओ. मैंने सोच रखा है कि किसके साथ घर बसाऊंगा. मैंने अमित से कहा कि देखो मेरा फ़ैसला मुझे ख़ुशी देगा या नहीं ये मैं नहीं जानता हूँ मगर इतना मालूम है कि मैं इसकी शिकायत किसी से न करूँगा. इसलिए तुमने जो किया उसे निभाओ. मेरे ऐसा कहते ही वह अचानक से बोम्बे की अनिगिनत मज़िलों वाली दुनिया की बात शुरू करता. लोगों के ज्ञान को कमतर बताता. वह रेगिस्तान में सूख कर मर जाने को कायरता कहता.
वह आखिर मैं पूछता- "तुम क्या कहते हो?" मैं चुप रहता और वह मेरे पास से उठते हुए कहता- "तुम मुझसे प्यार नहीं करते हो. तुम्हारे अंदर अहंकार है. तुम सबको छोड़ देने के लिए बहाने खोजते हो." अनेक आशंकाओं से घिरा हुआ, अपने रास्ते में खड़ी दीवार के पार जाने में असमर्थ और हताश अमित मेरे से विदा हो जाता. उसका जाना कुछ इस तरह होता कि जैसे वह कभी लौट कर न आएगा.
मैं जब भी किसी लड़के या आदमी को सायकिल खींचते हुए देखता हूँ तो अचानक चौकन्ना होकर सायकिल के चैन कवर को देखता हूँ. पढ़ना चाहता हूँ कि इस पर क्या लिखा है? क्या मेरे दोस्त का नाम है?
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