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कुछ सबक पड़ोसी से भी लेने चाहिए

इधर चुनाव की घोषणा हुई और असंख्य लोगों को अपने मंसूबे साकार होने का वक्त करीब आता हुआ दिखने लगा. मैंने अखबार में देखा कि हमारे यहाँ चुनाव कब होने को है? हम सब लोकतंत्र में खूब आस्था रखते हैं इसलिए बड़े सब्र के साथ अच्छी बुरी सरकारों को काम करने देते हैं. इसका सबसे बड़ा उदहारण ये है कि विगत पांच सालों में देश के सबसे बड़े कथित घोटाले उजागर होते गए और जनता चुप देखती रही. सबसे बड़ा विपक्षी दल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार अपूर्व मौन साध कर प्रतीक्षारत बना रहा. सरकारें खुद के कर्मों से जनता का विश्वास खोती रहे तब भी विपक्ष से आशा की जाती है कि वह देश को गर्त में जाने से बचने के लिए जनता की आवाज़ बने. मगर कई बार टूट रहा छींका हमें भला लगता है और हम इस बात की परवाह नहीं करते कि कि छींके में रखा हुआ सामान भी टूट बिखर जायेगा. क्या हम उसी को चाटने के लिए बने हैं. हमारी मर्यादाएं इतनी भर है कि देखिये सत्ता का फिसला हुआ पहिया खुद हमारे पाले में चला आ रहा है. हम मौन को निराधार समझें तो ये हमारा बचपना होगा. ये वास्तव में मरणासन्न देह के करीब बैठे हुए कोवे की प्रतीक्षा है. जो चाहता है आँख के बुझ जाने से पहले आँख को निकाल खाने का इंतज़ार. इसके बाद सत्ता के दांतों से मरणासन्न धन का खूब दोहन किया जा सके. इसबार कई एक्जिट पोल की पोल सामने आ चुकी है. इस बार अधिनायकवाद का परचम पूँजी के बल से फहराया जाने को है. इस बार लोगों को उम्मीद है सब बेहतरीन हो जायेगा. लेकिन इस बार क्या हमने इतिहास की खिड़की में झाँका है. अधिनायकवाद और सेना जैसे शासन में लोकतंत्र और लोक का क्या हाल होगा.

मिस्र का राजनैतिक घटनाक्रम हमारे लिए एक ज़रुरी उदाहरण है. ये बहुत पुरानी बात नहीं है सन उन्नीस सौ बावन में फौजी विद्रोह ने राजशाही को खत्म किया था. अब्दुल गमाल नासिर के नेतृत्व में एक लोकतान्त्रिक देश कि स्थापना की गयी थी. उस दौर के अनेक राष्ट्रों ने इसे मान्यता प्रदान की. मिस्र में इस राजनितिक बदलाव का असर सबसे अधिक अमेरिका और पश्चिमी देशों पर हुआ. उनके हितों को सीधी चोट पहुंची. लेकिन ये सब अधिक न चल सका और गमाल के बाद उन्नीस सौ सत्तर में अनवर सादत के सत्ता संभालते ही अरब देशों के दरवाज़े पश्चिमी देशों के लिए खुल गए. यहीं से मध्यपूर्व पर अमिरिका के अधिकार का मार्ग खुला. उन्नीस सौ इक्कासी में सादात की हत्या के बाद होस्नी मुबारक ने मिस्र की सत्ता अपने हाथ में ली. इस तानाशाह के कारनामें से दुनिया वाकिफ रही है. उनके बारे में कुछ लिखना इस पन्ने को और लफ़्ज़ों को जाया करना होगा. लेकिन क्या हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि होस्नी मुबारक के पश्चिम के हतों के लिए देश को किस हाल में पहुँचाया था. साल दो हज़ार दस के आने से पहले ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस देश की दश को अत्यधिक दारुण बताया. यूएनओ का कहना था कि जो हाल इस देश के युवाओं का है वैसा दुनिया के किसी कोने में इन बरसों में नहीं देखा गया. देश के ऐसे हाल में सांप्रदायिक ताकतों ने मौके का फायदा उठाया और मुस्लिम ब्रदरहुड देश के गरीब वंचित और शोषित युवाओं में अपनी पैठ बना ली. एक लोकतान्त्रिक देश में सांप्रदायिक ताकत का उदय होगया. ऐसा हो सकने के कारण वहीँ उपस्थित थे. देश की पैंतालीस फीसद आबादी प्रतिदिन दो रियाल कम पा रही थी.

आप ज़रा सोचिये कि हमारे देश में गरीबों की कमाई और भोजन को लेकर जो रुपयों के दावे किये जाते हैं वे कितने हास्यास्पद रहे हैं. गरीब की कमाई को लेकर पेश किये जाने वाले आंकड़े उसकी खिल्ली उड़ाने वाले हैं. कुछ नेता भरपेट भोजन के लिए पांच रुपये का दावा करते हैं. क्या सचमुच हम नहीं जानते कि इस देश में सेहतमंद भोजन तो दूर ज़रुरी भोजन के लिए कितने रुपयों की ज़रूरत होती है. तो क्या हम इसे भी भूल रहे हैं कि दो रियाल में मिस्र की जनता की गुज़र कैसे होती होगी. उनके इस हाल में मुस्लिम ब्रदरहुड के पास जाने के सिवा जनता के पास क्या विकल्प बचा होगा. धर्म की अफीम और नये बेहतर शासन की आस में एक नया ज़हर बोया जाना कितना आसान रहा होगा. एक और घटना पर नज़र डालिए कि दो हज़ार आठ में पुलिस बर्बरता में मारे गए एक शख्स खालिद सईद के नाम से बुद्धिजीवियों, कामगारों और कर्मचारियों ने एक आंदोलन खड़ा किया. इसका नाम था “हम सब खालिद सईद” क्या याद आया आपको? अपना देश याद नहीं आया. उसके आगे का दृश्य भी सोचिये. अगर हम किसी फौजी शासन के तले होते होते तो देश का क्या अंजाम होता. हम मिस्र की बर्बादी से किस तरह अलग होते. किस तरह हम पश्चिमी शक्तियों के जंजाल से बाहर रह पाते. मिस्र के आंदोलन में हज़ारों बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. वह आंदोलन किसलिए था? दो वक्त की चैन की रोटी के लिए. उनको क्या चाहिए थी? एक ऐसी सरकार जो जनकल्याणकारी हो. लेकिन आज उनके हिस्से में इतनी कुर्बानियों के बाद क्या है? उनके पास अस्थिरता है. उनके आस पास तोपें और गोलियाँ हैं. उनको खाने को रोटी मिलेगी या नहीं लेकिन इतना तय है कि उनको गोली ज़रूर मिल सकती है. ये सब उसी तानशाही का परिणाम है. जो एक व्यक्ति के शासन द्वारा आई थी. ये सब उसी का परिणाम है जो मुस्लिम ब्रदरहुड के नाम पर फिर से पश्चिमी देशों की साज़िश का शिकार हो जाने देने के कारण है. हमारे सामने हमारा अपना देश है और हमें ये तय करना करना है कि जिस लोकतंत्र में हम सांस ले रहे हैं क्या उसे किसी एक व्यक्ति के हाथ में सौपन दें? या फिर हम बेहतर सामाजिक बराबरी वाले गठबंधनों के सामूहिक नेतृत्व को चुने. इसलिए नहीं कि अगले पांच साल हमें क्या मिलेगा. इसलिए कि हमारी आने वाली पीढ़ी को हम कैसा भारत देना चाहते हैं. हम सबको तानाशाही भरे मंसूबे खूब अच्छे लगते हैं. हम सब अपने से अलग को देश और दुनिया से बाहर कर देना चाहते हैं. यही इस दुनिया की सबसे बड़ी फिरकापरस्ती है.

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हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउ

स्वर्ग से निष्कासित

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