श्री चिड़ीमार कथा के बाद मैं आपको अपने कस्बे के स्कूल का ज़रा सा मौसम दिखा देता हूँ.
बाड़मेर का हाई स्कूल एक भव्य विद्यालय था. दो हज़ार से अधिक बच्चे पढ़ते थे. कक्षाओं के सेक्शन ए से पी तक पहुँच जाते थे. विद्यालय में किसी बच्चे को बिना सेक्शन की जानकारी के खोजना असंभव सा था. निजी शिक्षा ने हमारी आनंदमयी स्कूलों खत्म कर दिया है. निजी स्कूलों के नाम पर बाड़े बचे हैं. अब न हंसोड़ अध्यापक दीखते हैं न बिना डर वाले बच्चे. सबकुछ एक होड़ ने निगल लिया है.
स्कूल दो पारियों में लगता था. स्कूल में आगे हॉकी का मैदान था. स्कूल के पीछे फ़ुटबाल का मैदान था. लेकिन पिछले मैदान में रेत अधिक होने के कारण लड़के हॉकी वाले मैदान में फुटबाल की प्रेक्टिस किया करते थे. मंच के बाएं प्रिंसिपल साहब का ऑफिस और उसके पास एडमिन के कमरे थे. दूजी तरफ गर्ल्स रूम था. उसके ठीक पास लाइब्रेरी का हॉल था. जहाँ कभी-कभी वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित होती थी. स्कूल में कुछ अच्छे डिबेटर लडके थे. एक था राजेश जोशी दूजा अनिल कुमार सिंह. मैं भी लगभग हर डिबेट में होता था. हम तीनों स्कूल आते या न आते मगर वाद विवाद प्रतियोगिता में ज़रूर एक साथ बैठे होते. अमित को इस तरह के आयोजनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह ऐसे आयोजनों के समय दल्लू जी की कचोरी खाने निकल पड़ता था.
एक माड़सा थे मग सिंह जी. हंसोड़ नहीं थे मगर चुटकियाँ लेने के माहिर थे और छात्रों में खूब लोकप्रिय थे. हमारे यहाँ लहंगे को घाघरा भी कहते हैं. घाघरे की निचली कोर से थोड़ा ऊपर एक अलग रंग की बेहद पतली तार जैसी कपड़े की लकीर लगायी जाती है. ये गोल घेर को सुन्दर बनाती है. इसे मगजी कहते हैं. माड़सा से किसी लडके ने पूछा कि माड़सा थोरों नोम की है? माने आपका नाम क्या है. वे कहते- "थारी बाई घाघरे हेटे लगावे जीको." ये बेहद श्लील प्रहसन खूब प्रसिद्द था. मुझे नहीं मालूम कि किसी लड़के ने ऐसा पूछा था या नहीं या माड़सा ऐसा कहते थे या नहीं. मगजी माड़सा को प्रिंसिपल साहब ने किसी बात पर कहा कि मिठाई खिलाओ. वे बाहर आए और महिला चपरासी को कहा कि बाई जी आपको प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं. बाई जी अंदर गयी. प्रिंसिपल साहब ने कहा कि मैंने तो नहीं बुलाया है. उन बाई जी का नाम था इमरती देवी.
हमारे ऐसे माड़सा स्कूल के बाद भी जहाँ कहीं लड़कों को घूमते देखते तो पूरा ध्यान रखते. अगले दिन कक्षा में आते ही सबके सामने पूछते कल कहाँ घूम रहा था? इसके बाद अगला असंगत सवाल होता कि पिछले टेस्ट में अंग्रेजी में कितने नम्बर आये थे.
सभी लोकप्रिय मास्टर अपनी कक्षाएं बड़ के पेड़ के नीचे लगाया करते थे. स्कूल में विद्यार्थी बहुत ज्यादा थे. उनके संख्या बल के आगे सभी कमरों का नाप छोटा पड़ चुका था. इसलिए सौ-सौ विद्यार्थी बाड़े की भेड़ों की तरह बैठे रहते थे. ज़मीन में छुपे हुए बारीक परजीवी लड़कों लड़कियों की टांगों से खून चूसते जाते थे. आखिर दो हज़ार से अधिक बच्चों और ए से पी सेक्शन तक पहुँच चुकी क्लासों को इसी तरह ही मेनेज किया जा सकता था. ऐसी ही कक्षा बड़ के पेड़ के नीचे लगी होती और स्टाफरूम के पास से अमित आता और लड़कों की भीड़ में मुझे खोजने लगता. हमारी नज़रें मिलती तो इशारों में ये तय हो जाता कि व रुके या चला जाये. अक्सर मैं मना कर देता कि समय से घर आना घर कि पहली शर्त थी.
स्कूल के वे दिन सरल थे. जटिलताएं छू भी नहीं पाती थी.
स्कूल के दिनों से बाहर तीन लंबे सालों का लीप लेते हुए सीधा उस दिन पर आ जाता हूँ जब अमित खूब चिंतित था. मैं ये लीप इसलिए ले रहा हूँ कि इन तीन साल में मैं और अमित नहीं मिल सके. मैं अलग काम में लग गया था. मैं छात्र आन्दोलन में काम कर रहा था और अमित अक्सर किशोर कुमार के गाने सुनता और अपने लेखन में खोया रहता था. अमित की चाहना थी कि वह मुम्बई विश्व विद्यालय से हिंदी में एम ए करे. उसके घरवाले तैयार न थे. अमित का प्लान था कि वह वहाँ एम ए करने के दौरान फिल्मों में स्क्रिप्ट लेखन में अपने हाथ आजमाएगा. दो साल वहाँ रहने के दौरान पढाई भी हो सकेगी और काम के लिए तलाश भी. अमित को मुम्बई जाने की स्वीकृति नहीं मिली. घरवाले चाहते थे कि वह शादी कर ले और घर संसार को आगे बढ़ाये.
इस खींचतान में अमित ने एक ऐसा समझौता किया जिसने उसके जीवन को बदल दिया. उस दिन अमित मेरे पास बैठा था. वह शायद संजय के पास भी जाकर आया होगा. उसने मुझे कहा कि मैंने एक समझौता सोचा है. मैं पिताजी का कहना मान कर शादी कर लेता हूँ. इस पर वे मुझे बोम्बे जाने देंगे. मैंने कहा- "तुम पागल हो क्या? इसका मतलब जानते हो?" उसने किसी फिल्म के संवाद की तरह कुछ ऐसी बात कही जिसका अर्थ था कि अगर ज़िंदगी हमारे साथ दांव खेलना चाहती है तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए.
कुछ दिन बाद अमित दूल्हा बना हुआ था. मैं और संजय बारात की किसी जीप में बैठे हुए इन्द्रोई गाँव की तरफ जा रहे थे. मैं एक लेखक के पास बैठा था. संजय व्यास जिसकी कहानियां पत्रिकों में छपती थी. जीप रेत के धोरों के बीच बॉर्डर की ओर बढ़ी जा रही थी. इसी जीप यात्रा और अमित की शादी में मुझे संजय के साथ बहुत सारा समय बिताने को मिला. संजय और अमित पक्के मित्र थे. इसी तरह मैं और अमित भी थे लेकिन संजय से पहचान इसी समय मित्रता में बदलने लगी. शाम को मैं और संजय इन्द्रोई गाँव के रेत के धोरों पर घूमे. अँधेरा घिरते ही अमित विवाह के फेरे खाने चला गया. वहाँ मेहमानों के लिए कच्ची शराब थी. मैंने भी एक कप पी. उस एक कप शराब के पीते ही मुझे उल्टी हो गयी और फिर जाने कब सो गया. सुबह तक अमित विवाहित जीवन जीने के फेरे ले चुका था. घरवाले खुश थे. उसके पिताजी के चेहरे पर संतोष और गर्व का भाव था. ये सामाजिक होने का दर्प था.
इसके कुछ ही दिन बाद अमित ने कहा- "बंधू कल की शाम बाड़मेर की आखिरी शाम होगी." मैं मालगोदाम रोड पर खड़ी एक बस के पास खड़ा था. वह बस बोम्बे जाती थी. अमित के लिए ये सपने के सच होने की शुरुआत थी. हम गले मिले. उसने बस के रवाना होने से पहले मेरे हाथ में एक पर्ची रखी. जब बस चली गयी और मैं घर आया तब मैंने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था- क़यामत से कम यार ये ग़म नहीं / कि मैं और तूँ रह गए हम नहीं.
अम्बर टाकीज में जब फिल्म के क्रेडिट दिखाई देते थे तब लोग उन क्रेडिट्स को नज़र अंदाज किये हुए फ़िल्म के शुरू होने का इंतज़ार करते थे या एक्जिट से बाहर जा रहे होते थे लेकिन अमित की नज़रें उन क्रेडिट्स को पढ़ रही होती थी. मोहन जी के सिनेमा के जिस दरवाज़े को मैं नरक का द्वार समझता था वह अमित के सपनों का सुनहला आईना था. वही आईना उसे रेगिस्तान से उस समंदर के किनारे ले गया जहाँ मायावी संसार बसा हुआ था. बोम्बे.
* * *
बात अभी जारी है.
बाड़मेर का हाई स्कूल एक भव्य विद्यालय था. दो हज़ार से अधिक बच्चे पढ़ते थे. कक्षाओं के सेक्शन ए से पी तक पहुँच जाते थे. विद्यालय में किसी बच्चे को बिना सेक्शन की जानकारी के खोजना असंभव सा था. निजी शिक्षा ने हमारी आनंदमयी स्कूलों खत्म कर दिया है. निजी स्कूलों के नाम पर बाड़े बचे हैं. अब न हंसोड़ अध्यापक दीखते हैं न बिना डर वाले बच्चे. सबकुछ एक होड़ ने निगल लिया है.
स्कूल दो पारियों में लगता था. स्कूल में आगे हॉकी का मैदान था. स्कूल के पीछे फ़ुटबाल का मैदान था. लेकिन पिछले मैदान में रेत अधिक होने के कारण लड़के हॉकी वाले मैदान में फुटबाल की प्रेक्टिस किया करते थे. मंच के बाएं प्रिंसिपल साहब का ऑफिस और उसके पास एडमिन के कमरे थे. दूजी तरफ गर्ल्स रूम था. उसके ठीक पास लाइब्रेरी का हॉल था. जहाँ कभी-कभी वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित होती थी. स्कूल में कुछ अच्छे डिबेटर लडके थे. एक था राजेश जोशी दूजा अनिल कुमार सिंह. मैं भी लगभग हर डिबेट में होता था. हम तीनों स्कूल आते या न आते मगर वाद विवाद प्रतियोगिता में ज़रूर एक साथ बैठे होते. अमित को इस तरह के आयोजनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह ऐसे आयोजनों के समय दल्लू जी की कचोरी खाने निकल पड़ता था.
एक माड़सा थे मग सिंह जी. हंसोड़ नहीं थे मगर चुटकियाँ लेने के माहिर थे और छात्रों में खूब लोकप्रिय थे. हमारे यहाँ लहंगे को घाघरा भी कहते हैं. घाघरे की निचली कोर से थोड़ा ऊपर एक अलग रंग की बेहद पतली तार जैसी कपड़े की लकीर लगायी जाती है. ये गोल घेर को सुन्दर बनाती है. इसे मगजी कहते हैं. माड़सा से किसी लडके ने पूछा कि माड़सा थोरों नोम की है? माने आपका नाम क्या है. वे कहते- "थारी बाई घाघरे हेटे लगावे जीको." ये बेहद श्लील प्रहसन खूब प्रसिद्द था. मुझे नहीं मालूम कि किसी लड़के ने ऐसा पूछा था या नहीं या माड़सा ऐसा कहते थे या नहीं. मगजी माड़सा को प्रिंसिपल साहब ने किसी बात पर कहा कि मिठाई खिलाओ. वे बाहर आए और महिला चपरासी को कहा कि बाई जी आपको प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं. बाई जी अंदर गयी. प्रिंसिपल साहब ने कहा कि मैंने तो नहीं बुलाया है. उन बाई जी का नाम था इमरती देवी.
हमारे ऐसे माड़सा स्कूल के बाद भी जहाँ कहीं लड़कों को घूमते देखते तो पूरा ध्यान रखते. अगले दिन कक्षा में आते ही सबके सामने पूछते कल कहाँ घूम रहा था? इसके बाद अगला असंगत सवाल होता कि पिछले टेस्ट में अंग्रेजी में कितने नम्बर आये थे.
सभी लोकप्रिय मास्टर अपनी कक्षाएं बड़ के पेड़ के नीचे लगाया करते थे. स्कूल में विद्यार्थी बहुत ज्यादा थे. उनके संख्या बल के आगे सभी कमरों का नाप छोटा पड़ चुका था. इसलिए सौ-सौ विद्यार्थी बाड़े की भेड़ों की तरह बैठे रहते थे. ज़मीन में छुपे हुए बारीक परजीवी लड़कों लड़कियों की टांगों से खून चूसते जाते थे. आखिर दो हज़ार से अधिक बच्चों और ए से पी सेक्शन तक पहुँच चुकी क्लासों को इसी तरह ही मेनेज किया जा सकता था. ऐसी ही कक्षा बड़ के पेड़ के नीचे लगी होती और स्टाफरूम के पास से अमित आता और लड़कों की भीड़ में मुझे खोजने लगता. हमारी नज़रें मिलती तो इशारों में ये तय हो जाता कि व रुके या चला जाये. अक्सर मैं मना कर देता कि समय से घर आना घर कि पहली शर्त थी.
स्कूल के वे दिन सरल थे. जटिलताएं छू भी नहीं पाती थी.
स्कूल के दिनों से बाहर तीन लंबे सालों का लीप लेते हुए सीधा उस दिन पर आ जाता हूँ जब अमित खूब चिंतित था. मैं ये लीप इसलिए ले रहा हूँ कि इन तीन साल में मैं और अमित नहीं मिल सके. मैं अलग काम में लग गया था. मैं छात्र आन्दोलन में काम कर रहा था और अमित अक्सर किशोर कुमार के गाने सुनता और अपने लेखन में खोया रहता था. अमित की चाहना थी कि वह मुम्बई विश्व विद्यालय से हिंदी में एम ए करे. उसके घरवाले तैयार न थे. अमित का प्लान था कि वह वहाँ एम ए करने के दौरान फिल्मों में स्क्रिप्ट लेखन में अपने हाथ आजमाएगा. दो साल वहाँ रहने के दौरान पढाई भी हो सकेगी और काम के लिए तलाश भी. अमित को मुम्बई जाने की स्वीकृति नहीं मिली. घरवाले चाहते थे कि वह शादी कर ले और घर संसार को आगे बढ़ाये.
इस खींचतान में अमित ने एक ऐसा समझौता किया जिसने उसके जीवन को बदल दिया. उस दिन अमित मेरे पास बैठा था. वह शायद संजय के पास भी जाकर आया होगा. उसने मुझे कहा कि मैंने एक समझौता सोचा है. मैं पिताजी का कहना मान कर शादी कर लेता हूँ. इस पर वे मुझे बोम्बे जाने देंगे. मैंने कहा- "तुम पागल हो क्या? इसका मतलब जानते हो?" उसने किसी फिल्म के संवाद की तरह कुछ ऐसी बात कही जिसका अर्थ था कि अगर ज़िंदगी हमारे साथ दांव खेलना चाहती है तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए.
कुछ दिन बाद अमित दूल्हा बना हुआ था. मैं और संजय बारात की किसी जीप में बैठे हुए इन्द्रोई गाँव की तरफ जा रहे थे. मैं एक लेखक के पास बैठा था. संजय व्यास जिसकी कहानियां पत्रिकों में छपती थी. जीप रेत के धोरों के बीच बॉर्डर की ओर बढ़ी जा रही थी. इसी जीप यात्रा और अमित की शादी में मुझे संजय के साथ बहुत सारा समय बिताने को मिला. संजय और अमित पक्के मित्र थे. इसी तरह मैं और अमित भी थे लेकिन संजय से पहचान इसी समय मित्रता में बदलने लगी. शाम को मैं और संजय इन्द्रोई गाँव के रेत के धोरों पर घूमे. अँधेरा घिरते ही अमित विवाह के फेरे खाने चला गया. वहाँ मेहमानों के लिए कच्ची शराब थी. मैंने भी एक कप पी. उस एक कप शराब के पीते ही मुझे उल्टी हो गयी और फिर जाने कब सो गया. सुबह तक अमित विवाहित जीवन जीने के फेरे ले चुका था. घरवाले खुश थे. उसके पिताजी के चेहरे पर संतोष और गर्व का भाव था. ये सामाजिक होने का दर्प था.
इसके कुछ ही दिन बाद अमित ने कहा- "बंधू कल की शाम बाड़मेर की आखिरी शाम होगी." मैं मालगोदाम रोड पर खड़ी एक बस के पास खड़ा था. वह बस बोम्बे जाती थी. अमित के लिए ये सपने के सच होने की शुरुआत थी. हम गले मिले. उसने बस के रवाना होने से पहले मेरे हाथ में एक पर्ची रखी. जब बस चली गयी और मैं घर आया तब मैंने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था- क़यामत से कम यार ये ग़म नहीं / कि मैं और तूँ रह गए हम नहीं.
अम्बर टाकीज में जब फिल्म के क्रेडिट दिखाई देते थे तब लोग उन क्रेडिट्स को नज़र अंदाज किये हुए फ़िल्म के शुरू होने का इंतज़ार करते थे या एक्जिट से बाहर जा रहे होते थे लेकिन अमित की नज़रें उन क्रेडिट्स को पढ़ रही होती थी. मोहन जी के सिनेमा के जिस दरवाज़े को मैं नरक का द्वार समझता था वह अमित के सपनों का सुनहला आईना था. वही आईना उसे रेगिस्तान से उस समंदर के किनारे ले गया जहाँ मायावी संसार बसा हुआ था. बोम्बे.
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बात अभी जारी है.