बाड़मेर रेलवे स्टेशन से बाहर निकले ही गाँधी जी स्टेशन रोड की ओर जाते हुए दीखते हैं. लेकिन वे कहीं नहीं जाते चुप खड़े रहते हैं. उनके चरणों के आस पास बने हुए सर्कल में धरनार्थी बैठे रहते हैं. बाईं तरफ की सड़क चौहटन की ओर जाती है लेकिन दायीं तरफ जाने वाली सड़क पर रेलवे की ज़मीन पर नेहरू युवा केंद्र खड़ा रहता और उसके ठीक पास एक सराय. यहीं भेलीराम की चाय की थड़ी. आगे गली में मुड़ जाओ तो हाई स्कूल.
उन दिनों स्कूल के अध्यापकों को भी भेलीराम की चाय खूब प्रिय थी. जब कभी स्कूल के टी क्लब में चाय बनाने वाला अनुपस्थित होता या फिर शिक्षकों को कुछ ऐसी बातें करनी होती, जो विद्यालय प्रबंधन से किसी तरह जुड़ी हुई हों तब अध्यापक चाय पीने भेलीराम के यहाँ पहुँच जाते थे. ये बहुत ख़तरे की बात थी. मैं वहाँ ढाबे पर रोज़ हो नहीं सकता था. वहां पर दो रास्ते थे. एक स्कूल की तरफ से दूजा रेलवे स्टेशन की ओर से. दो रास्ते होने से दुश्मनों को जान बख्शने का अवसर मिलता था. मास्टर लोग जिस तरफ से आते लडके दूजी तरफ से निकल जाते. स्कूल में मास्टरों का जितना दबदबा था स्कूल के बाहर उनको इतनी ही आशंकाएं भी रहती थी. इसलिए दोनों पक्ष एक दूजे की इज़्ज़त रखते थे. दो रास्ते होने के बावजूद मैंने अमित से कह दिया था कि कभी अचानक से पा आये तो भेलीराम की थड़ी संकट का कारण बन जाएगी. इसलिए जब भी वक्त मिलता मैं और अमित अपनी सायकिल लिए हुए नये ठिकानों की तलाश में घूम फिर कर घर लौट आते.
हर माँ बाप जिस ख़तरे से सदियों से डरते आए हैं, मैं उस ख़तरे की ज़द में था. ये ख़तरा था रुलियार फिरने का यानी आवारगी का. सायकिल पर पैडल मारते हुए किसी दोस्त के घर तक जाना और वहाँ से शहर की सड़क पर फेरा देना. ये उस ज़माने का सबसे बड़ा एब था. इससे भी बड़ा एब था गलियों के चक्कर काटना. हर माँ-बाप अपने ही नहीं दूसरे परिचितों के बच्चों पर कड़ी नज़र रखते थे. उनका सूचना तंत्र इतना मजबूत था कि शाम को घर आते ही हर बच्चे से उसके पापा पूछ रहे होते कि आज फलां गली में किस लड़के के साथ घूम रहे थे. क्या वहाँ अपने बाप का नाम रोशन कर रहे थे? इस लताड़ के बाद उस पर नमक और मिर्च भी छिड़कते कि वो लड़का कितना अच्छा पढता है. मालूम है उसके टेस्ट में कितने नंबर आते हैं. इस तरह अपमान का घूँट पीते हुए कस्बे के सारे निम्न और मध्यम दर्ज़े के नौसिखिए, आवारा होने को आतुर लड़के सर झुकाए रहते. वे अपने पिताजी की घुड़की सुनते जाते. इस दौरान वे उन कमीने जासूसों के बारे में भी कयास लगाते कि किसने ये बात पापा को बताई होगी.
अमित से दोस्ती पक्की होने के पहले चरण में हम दोनों ने अलग अलग गलियों के सात चक्कर सायकिल पर लगा लिए थे. दूजे चरण में अमित को मैंने कहा घर आना. वह एक सुबह सायकिल लेकर घर चला आया. अमित ने घर आते ही दीवार में लम्बे आलों की शक्ल में बनी अलमारी को देखना शुरू किया. वहां सौ एक किताबें रखीं थी. अमित उन किताबों को किसी पेंटिंग को देखने की तरह देखता रहा. उसने मुझे पूछा "तुमने इनमें से कौनसी किताब पढ़ी है?" मैंने एक छोटी सी किताब की ओर इशारा किया. वह राहुल सांस्कृत्यायन की किताब थी." उसने मुझे कहा- "इतिहास की इतनी सारी किताबें हैं, इनको क्यों नहीं पढ़ते?" उन बरसों में माएं बाबू देवकीनंदन खत्री के ऐयारों की तरह घर में आये दोस्तों के आस पास गुप्त रूप से बनी रहती थी. वे मालूम करना चाहती थी कि लड़का कैसा है? लेकिन मेरी माँ को इससे कोई वास्ता न था. मेरी माँ आई और हमको पूछा- "छोरों चा पी हो?"
भेली राम की थड़ी पर पी गयी चाय मुझे किसी अहसान जैसी लगती थी. मुझे लगता था कि मैंने अमित के पैसे खर्च करवा दिए हैं. इसलिए माँ के हाथ की बनी चाय अमित को पिलाकर मुझे बहुत बहुत अच्छा लगा. अमित जब जाने लगा तो पक्की दोस्ती का प्रदर्शन करने के लिए मैं उसे कुछ दूर तक विदा करने के लिए गया. बाड़मेर रेलवे स्टेशन से जोधपुर की ओर जाने वाले मार्ग पर दो रेलवे फाटक हैं. पहला फाटक उदास खड़ा रहता है जबकि दूजे फाटक से आवागमन होता रहता है. दूजा फाटक खड़ी चढ़ाई वाला था. उस फाटक के पास आते ही अमित सायकिल से उतर गया. पैदल चलकर सायकिल खींचता हुआ फाटक की चढाई चढ़ने लगा. मुझे लगा कि वह बहुत आलसी किस्म का है हालाँकि फाटक की चढाई खूब खड़ी चढाई थी.
शहर के बीच की बापू कॉलोनी के नौजवान अपनी सायकिल लेकर नेहरू नगर आया करते थे. फाटक से उतरना शुरू होते ही अच्छी सायकिलें एफसीआई तक बिना पैडल मारे चलती जाती थी. लेकिन बापू कॉलोनी के बाशिंदों की सायकिलें स्टेडियम रोड आते ही अपने आप रुक जाती थीं. करणजी की कोने वाली दूकान से आगे पांचवीं दुकान सायकिल की दूकान थी. दुकान के आगे बबूल के नीचे एक घड़ा मिट्टी में दबा रहता था. ये लोकल फ्रीज़ का काम करता था. गाँधी जी जिस पेय से घृणा करते थे, वही आसव इस फ्रीज़ में ठंडा हो रहा होता. जो भी आता दो रुपये देकर एक लोटा कच्ची शराब पी सकता था. बच्चन की मधुशाला जो भेद मिटाती, वही पावन कार्य उगमजी के यहाँ हुआ करता था. बापू कॉलोनी के बाशिंदे लोटा पीकर वापस लौटते तो उनका पॉवर फाटक की चढाई खत्म होने से पहले हर हाल में टूट जाता और उनकी सायकिल लुढकती हुई फिर उसी दुकान तक आ जाती. शाम को दो चार लोग सफाई का कचरा ढोने वाला हाथ ठेला लेकर आते और कुछ ज़िंदा ख़ूबसूरत लोगों को बेरहमी से उसमें पटक कर बापू कॉलोनी तक ले जाते. अमित के इस तरह सायकिल से उतरने ने मुझे उसके शराबी हो जाने की आशंका से भर दिया.
हमारे जीवन की सीमा रेखा में हर वक्त कोई न कोई नई चीज़ संक्रमण कर रही होती है. इस क्रिया के अनेक लक्षण प्रत्यक्ष होते हैं. हम समझ रहे होते हैं किन्तु हमारा मन एक स्वीकृति के साथ उनको प्रवेश करने देता है. मैं अमित को अपनी दुनिया में आने दे रहा था. उसकी उपस्थिति से एक खास किस्म का सौहार्द्र अनुभूत होता था. इसलिए उसके होने से ख़ुशी होती थी. लेकिन उसका होना, होने की कामना का अल्पांश भर हो सकता था. मैं सुबह स्कूल जाता और लौट कर घर पर ही रहता. घर मुझे खूब अच्छा लगता था क्योंकि वह अक्सर खाली होता. पापा स्कूल होते और माँ अपना काम करके पड़ोसी औरतों के साथ गली में किसी घर के बाहर बैठ कर दोपहर को जी रही होती.
दोपहर बाद मैं नानक दास धारीवाल सर के पास ट्यूशन पढ़ने जाया करता था. उनको सब नानग जी माड़सा कहते थे. वे मेरे पापा के परम मित्र थे. उन दो दोस्तों के पास एक दजे के अनगिनत क़िस्से भी थे. मुझे नेहरू नगर से प्रताप जी प्रोल तक रोज़ जाना होता. वहाँ बटर पेपर जैसे पन्नों के बीच पांच-सात कार्बन डाल कर सर गणित पढ़ाते थे. वे जो लिखते उनकी एक एक कॉपी सब बच्चों को मिल जाती. मुझे वहाँ पढ़ी गयी भौतिक, गणित और अंग्रेजी की कोई याद नहीं. मुझे याद है कि लोक कथाओं में नानग जी धारीवाल सर दो सिगरेटों को नीम के एक बारीक तिनके से जोड़ कर सिगरेट पिया करते थे. इस कथा में कुछ लड़के खूब अचरज से दावा करते थे कि धारीवाल सर के लिए दो सिगरेट से दो कश ही हो पाते हैं.
वे एक सन्यासी किस्म के आदमी लगते थे. सुबह स्कूल, दोपहर घर में पपलू और शाम को ट्यूशन पढाया करते. वो हमारे समय के अनूठे क्रांतिकारी इंसान थे. उन्होंने वणिकपुत्र माने जैनी होते हुए भी बॉर्डर के मुस्लिम बहुल इलाके के राजनेता अब्दुल हादी साहब के बेटे गफ़ूर को अपने घर में रखा था. हादी साहब चाहते थे कि किसी तरह उनके साहबजादे दसवीं पास कर सकें. गफ़ूर एक निहायत शरीफ और सीधा-सादा लड़का हुआ करता था. वह मुझे तहमद पहने ट्यूशन में बैठा पढता हुआ या पानी का लोटा लता ले जाता दिख जाता था. उसका खाना पीना रहना सब एक जैनी के यहाँ होता था. जबकि तीस साल बाद आज भी रुढियों और बेड़ियों में जकड़े हुए समाज में, ये किसी जैनी के बस की बात न होगी कि वह किसी मुस्लिम को अपने घर में बच्चे की तरह रख सके. धारीवाल सर हमारे लिए ज़िंदा भगत सिंह थे.
मैं धारीवाल सर के यहाँ से ट्यूशन पढकर जेठू सिंह माड़सा के घर चला जाया करता. वहाँ भरत और अशोक के पास खूब सारे खरगोश थे. उन खरगोशों से जी भरकर खेलता. उनकी लाल आँखों से आँखें मिलाता. उनको जी भरकर प्यार करता. इसके बाद मैं और भरत घर से बाहर निकलते. नरगासर के देवीय कृपा वाले पानी में पड़ी हुई भैंसे, किनारे पर चद्दरें धोते खत्री और पास ही अमर बकरों की अद्वितीय गंध बसी रहती. इलोजी और सब्जी मंडी के आस पास की गलियों में शाम डूब जाती थी.
मैं नेहरू नगर से ट्यूशन पढ़ने अपने दोस्तों के पास आता था और सब्जीमंडी से लेकर प्रताप जी की प्रोल तक की सब जगहें मेरी प्रिय जगहें थीं. जबकि अमित राय कॉलोनी के आगे सूजेश्वर जाने वाली सड़क के मार्ग पर ही अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता था. इसलिए हमारे मिलन के बारे में शीन काफ निज़ाम साहब के शेर की ये टूटी फूटी पंक्तियाँ माकूल हैं. "मैं बहता हुआ दरिया तूँ वादी का सीना, जाने कैसे मिलन होगा हमारा तुम्हारा”
हम नहीं मिलते थे. नहीं मिल पाते थे. या ये कुछ ऐसा था कि अमित ने मेरे भीतर थोड़ा सा इन्वेस्ट कर दिया था और उसे रिजल्ट का इंतज़ार था.
और रिजल्ट खूब उदास करने वाला आया.
अमित को फ़िल्में देखने का ख़ूब शौक था और मेरे लिए सिनेमा हाल के आस-पास देखा जाना असमय मृत्यु का कारक हो सकता था. मेरे ताउजी पुलिस में थानेदार साहब थे और वे अच्छे पिता की तरह एक कांस्टेबल को फिल्म देखने भेजते. वह आठवीं पास कांस्टेबल फिल्म समीक्षक बन कर लौटता और पूरी फिल्म की कहानी बताता. सम्भव है कि वे इस बारे मेंक ह्र्चा करते होंगे कि फ़िल्म में हिरोइन और हीरो के बीच के दृश्यों पर सेंसर बोर्ड ने कहीं लचीला रुख तो नहीं अपनाया है? या बच्चे इस फिल्म से क्या सीख लेंगे? शायद इसी तरह की बैटन पर विचार विमर्श होता होगा. आखिर सब फ़िल्में ख़ारिज होती जाती. एक फिल्म एप्रूव हुई थी “बिन माँ के बच्चे”. पुलिस की जीप में बैठकर हम मोहन जी के सिनेमा पहुंचे. वहाँ खूब मान सम्मान से हमें अंदर बिठाया गया. उस फिल्म में एक पिता अरसे बाद घर लौट कर दरवाज़े पर लगी ऊपर वाली कुण्डी को हथोड़े से तोड़ता है. वह जब अंदर देखता है तो सूना घर. बच्चे नहीं है. सिर्फ खालीपन. मैं उसे देखते हुए मन ही मन रोने लगा. मैंने चाहा कि बाहर भाग जाऊं. मैंने सोचा कि मेरे भाई बहनों ने मुझे इस तरह रोते हुए देखा तो मेरी खूब बे इज्ज़ती हो जायेगी. मैं सिनेमा का भगोड़ा था.
इस तरह सेंसर पर सेंसर होकर देखी जाने वाली फ़िल्मों से ये सबक आया कि कभी सिनेमा हाल के पास देख लिए गए. किसी ने पापा को बता दिया तो तय था कि मेरे जीवन का हाल परमारों की शापित राजधानी किराडू जैसा होता. मैं अपने आप को किराडू के भग्नावेशों की तरह देखने लगता. कोई आक्रांता मुझे रोंदता हुआ गुज़र रहा है. मेरे सौंदर्य के हर एक अक्स को तोडा जा रहा है. मैं टूटी हुए टांगें लिए बिस्तर पर पड़ा हूँ या फिर अपने छोटे भाइयों की नज़रों के सामने घर के ही आँगन में मुर्गा बना हुआ हूँ. इसलिए मैंने अमित से साफ़ कहा कि मैं फिल्में नहीं देखता हूँ. अमित के लिए फ़िल्में न देखने वाला इंसान दुनिया का दोयम दर्ज़े का अधूरा इंसान होता था.
हमारे एक साथ होने की एक वजह इस तरह कट गयी जैसे गाँधी खानदान के एक पुराने युवराज ने आपातकाल में देश की आबादी पर अंकुश पाया था.
* * *
उन दिनों स्कूल के अध्यापकों को भी भेलीराम की चाय खूब प्रिय थी. जब कभी स्कूल के टी क्लब में चाय बनाने वाला अनुपस्थित होता या फिर शिक्षकों को कुछ ऐसी बातें करनी होती, जो विद्यालय प्रबंधन से किसी तरह जुड़ी हुई हों तब अध्यापक चाय पीने भेलीराम के यहाँ पहुँच जाते थे. ये बहुत ख़तरे की बात थी. मैं वहाँ ढाबे पर रोज़ हो नहीं सकता था. वहां पर दो रास्ते थे. एक स्कूल की तरफ से दूजा रेलवे स्टेशन की ओर से. दो रास्ते होने से दुश्मनों को जान बख्शने का अवसर मिलता था. मास्टर लोग जिस तरफ से आते लडके दूजी तरफ से निकल जाते. स्कूल में मास्टरों का जितना दबदबा था स्कूल के बाहर उनको इतनी ही आशंकाएं भी रहती थी. इसलिए दोनों पक्ष एक दूजे की इज़्ज़त रखते थे. दो रास्ते होने के बावजूद मैंने अमित से कह दिया था कि कभी अचानक से पा आये तो भेलीराम की थड़ी संकट का कारण बन जाएगी. इसलिए जब भी वक्त मिलता मैं और अमित अपनी सायकिल लिए हुए नये ठिकानों की तलाश में घूम फिर कर घर लौट आते.
हर माँ बाप जिस ख़तरे से सदियों से डरते आए हैं, मैं उस ख़तरे की ज़द में था. ये ख़तरा था रुलियार फिरने का यानी आवारगी का. सायकिल पर पैडल मारते हुए किसी दोस्त के घर तक जाना और वहाँ से शहर की सड़क पर फेरा देना. ये उस ज़माने का सबसे बड़ा एब था. इससे भी बड़ा एब था गलियों के चक्कर काटना. हर माँ-बाप अपने ही नहीं दूसरे परिचितों के बच्चों पर कड़ी नज़र रखते थे. उनका सूचना तंत्र इतना मजबूत था कि शाम को घर आते ही हर बच्चे से उसके पापा पूछ रहे होते कि आज फलां गली में किस लड़के के साथ घूम रहे थे. क्या वहाँ अपने बाप का नाम रोशन कर रहे थे? इस लताड़ के बाद उस पर नमक और मिर्च भी छिड़कते कि वो लड़का कितना अच्छा पढता है. मालूम है उसके टेस्ट में कितने नंबर आते हैं. इस तरह अपमान का घूँट पीते हुए कस्बे के सारे निम्न और मध्यम दर्ज़े के नौसिखिए, आवारा होने को आतुर लड़के सर झुकाए रहते. वे अपने पिताजी की घुड़की सुनते जाते. इस दौरान वे उन कमीने जासूसों के बारे में भी कयास लगाते कि किसने ये बात पापा को बताई होगी.
अमित से दोस्ती पक्की होने के पहले चरण में हम दोनों ने अलग अलग गलियों के सात चक्कर सायकिल पर लगा लिए थे. दूजे चरण में अमित को मैंने कहा घर आना. वह एक सुबह सायकिल लेकर घर चला आया. अमित ने घर आते ही दीवार में लम्बे आलों की शक्ल में बनी अलमारी को देखना शुरू किया. वहां सौ एक किताबें रखीं थी. अमित उन किताबों को किसी पेंटिंग को देखने की तरह देखता रहा. उसने मुझे पूछा "तुमने इनमें से कौनसी किताब पढ़ी है?" मैंने एक छोटी सी किताब की ओर इशारा किया. वह राहुल सांस्कृत्यायन की किताब थी." उसने मुझे कहा- "इतिहास की इतनी सारी किताबें हैं, इनको क्यों नहीं पढ़ते?" उन बरसों में माएं बाबू देवकीनंदन खत्री के ऐयारों की तरह घर में आये दोस्तों के आस पास गुप्त रूप से बनी रहती थी. वे मालूम करना चाहती थी कि लड़का कैसा है? लेकिन मेरी माँ को इससे कोई वास्ता न था. मेरी माँ आई और हमको पूछा- "छोरों चा पी हो?"
भेली राम की थड़ी पर पी गयी चाय मुझे किसी अहसान जैसी लगती थी. मुझे लगता था कि मैंने अमित के पैसे खर्च करवा दिए हैं. इसलिए माँ के हाथ की बनी चाय अमित को पिलाकर मुझे बहुत बहुत अच्छा लगा. अमित जब जाने लगा तो पक्की दोस्ती का प्रदर्शन करने के लिए मैं उसे कुछ दूर तक विदा करने के लिए गया. बाड़मेर रेलवे स्टेशन से जोधपुर की ओर जाने वाले मार्ग पर दो रेलवे फाटक हैं. पहला फाटक उदास खड़ा रहता है जबकि दूजे फाटक से आवागमन होता रहता है. दूजा फाटक खड़ी चढ़ाई वाला था. उस फाटक के पास आते ही अमित सायकिल से उतर गया. पैदल चलकर सायकिल खींचता हुआ फाटक की चढाई चढ़ने लगा. मुझे लगा कि वह बहुत आलसी किस्म का है हालाँकि फाटक की चढाई खूब खड़ी चढाई थी.
शहर के बीच की बापू कॉलोनी के नौजवान अपनी सायकिल लेकर नेहरू नगर आया करते थे. फाटक से उतरना शुरू होते ही अच्छी सायकिलें एफसीआई तक बिना पैडल मारे चलती जाती थी. लेकिन बापू कॉलोनी के बाशिंदों की सायकिलें स्टेडियम रोड आते ही अपने आप रुक जाती थीं. करणजी की कोने वाली दूकान से आगे पांचवीं दुकान सायकिल की दूकान थी. दुकान के आगे बबूल के नीचे एक घड़ा मिट्टी में दबा रहता था. ये लोकल फ्रीज़ का काम करता था. गाँधी जी जिस पेय से घृणा करते थे, वही आसव इस फ्रीज़ में ठंडा हो रहा होता. जो भी आता दो रुपये देकर एक लोटा कच्ची शराब पी सकता था. बच्चन की मधुशाला जो भेद मिटाती, वही पावन कार्य उगमजी के यहाँ हुआ करता था. बापू कॉलोनी के बाशिंदे लोटा पीकर वापस लौटते तो उनका पॉवर फाटक की चढाई खत्म होने से पहले हर हाल में टूट जाता और उनकी सायकिल लुढकती हुई फिर उसी दुकान तक आ जाती. शाम को दो चार लोग सफाई का कचरा ढोने वाला हाथ ठेला लेकर आते और कुछ ज़िंदा ख़ूबसूरत लोगों को बेरहमी से उसमें पटक कर बापू कॉलोनी तक ले जाते. अमित के इस तरह सायकिल से उतरने ने मुझे उसके शराबी हो जाने की आशंका से भर दिया.
हमारे जीवन की सीमा रेखा में हर वक्त कोई न कोई नई चीज़ संक्रमण कर रही होती है. इस क्रिया के अनेक लक्षण प्रत्यक्ष होते हैं. हम समझ रहे होते हैं किन्तु हमारा मन एक स्वीकृति के साथ उनको प्रवेश करने देता है. मैं अमित को अपनी दुनिया में आने दे रहा था. उसकी उपस्थिति से एक खास किस्म का सौहार्द्र अनुभूत होता था. इसलिए उसके होने से ख़ुशी होती थी. लेकिन उसका होना, होने की कामना का अल्पांश भर हो सकता था. मैं सुबह स्कूल जाता और लौट कर घर पर ही रहता. घर मुझे खूब अच्छा लगता था क्योंकि वह अक्सर खाली होता. पापा स्कूल होते और माँ अपना काम करके पड़ोसी औरतों के साथ गली में किसी घर के बाहर बैठ कर दोपहर को जी रही होती.
दोपहर बाद मैं नानक दास धारीवाल सर के पास ट्यूशन पढ़ने जाया करता था. उनको सब नानग जी माड़सा कहते थे. वे मेरे पापा के परम मित्र थे. उन दो दोस्तों के पास एक दजे के अनगिनत क़िस्से भी थे. मुझे नेहरू नगर से प्रताप जी प्रोल तक रोज़ जाना होता. वहाँ बटर पेपर जैसे पन्नों के बीच पांच-सात कार्बन डाल कर सर गणित पढ़ाते थे. वे जो लिखते उनकी एक एक कॉपी सब बच्चों को मिल जाती. मुझे वहाँ पढ़ी गयी भौतिक, गणित और अंग्रेजी की कोई याद नहीं. मुझे याद है कि लोक कथाओं में नानग जी धारीवाल सर दो सिगरेटों को नीम के एक बारीक तिनके से जोड़ कर सिगरेट पिया करते थे. इस कथा में कुछ लड़के खूब अचरज से दावा करते थे कि धारीवाल सर के लिए दो सिगरेट से दो कश ही हो पाते हैं.
वे एक सन्यासी किस्म के आदमी लगते थे. सुबह स्कूल, दोपहर घर में पपलू और शाम को ट्यूशन पढाया करते. वो हमारे समय के अनूठे क्रांतिकारी इंसान थे. उन्होंने वणिकपुत्र माने जैनी होते हुए भी बॉर्डर के मुस्लिम बहुल इलाके के राजनेता अब्दुल हादी साहब के बेटे गफ़ूर को अपने घर में रखा था. हादी साहब चाहते थे कि किसी तरह उनके साहबजादे दसवीं पास कर सकें. गफ़ूर एक निहायत शरीफ और सीधा-सादा लड़का हुआ करता था. वह मुझे तहमद पहने ट्यूशन में बैठा पढता हुआ या पानी का लोटा लता ले जाता दिख जाता था. उसका खाना पीना रहना सब एक जैनी के यहाँ होता था. जबकि तीस साल बाद आज भी रुढियों और बेड़ियों में जकड़े हुए समाज में, ये किसी जैनी के बस की बात न होगी कि वह किसी मुस्लिम को अपने घर में बच्चे की तरह रख सके. धारीवाल सर हमारे लिए ज़िंदा भगत सिंह थे.
मैं धारीवाल सर के यहाँ से ट्यूशन पढकर जेठू सिंह माड़सा के घर चला जाया करता. वहाँ भरत और अशोक के पास खूब सारे खरगोश थे. उन खरगोशों से जी भरकर खेलता. उनकी लाल आँखों से आँखें मिलाता. उनको जी भरकर प्यार करता. इसके बाद मैं और भरत घर से बाहर निकलते. नरगासर के देवीय कृपा वाले पानी में पड़ी हुई भैंसे, किनारे पर चद्दरें धोते खत्री और पास ही अमर बकरों की अद्वितीय गंध बसी रहती. इलोजी और सब्जी मंडी के आस पास की गलियों में शाम डूब जाती थी.
मैं नेहरू नगर से ट्यूशन पढ़ने अपने दोस्तों के पास आता था और सब्जीमंडी से लेकर प्रताप जी की प्रोल तक की सब जगहें मेरी प्रिय जगहें थीं. जबकि अमित राय कॉलोनी के आगे सूजेश्वर जाने वाली सड़क के मार्ग पर ही अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता था. इसलिए हमारे मिलन के बारे में शीन काफ निज़ाम साहब के शेर की ये टूटी फूटी पंक्तियाँ माकूल हैं. "मैं बहता हुआ दरिया तूँ वादी का सीना, जाने कैसे मिलन होगा हमारा तुम्हारा”
हम नहीं मिलते थे. नहीं मिल पाते थे. या ये कुछ ऐसा था कि अमित ने मेरे भीतर थोड़ा सा इन्वेस्ट कर दिया था और उसे रिजल्ट का इंतज़ार था.
और रिजल्ट खूब उदास करने वाला आया.
अमित को फ़िल्में देखने का ख़ूब शौक था और मेरे लिए सिनेमा हाल के आस-पास देखा जाना असमय मृत्यु का कारक हो सकता था. मेरे ताउजी पुलिस में थानेदार साहब थे और वे अच्छे पिता की तरह एक कांस्टेबल को फिल्म देखने भेजते. वह आठवीं पास कांस्टेबल फिल्म समीक्षक बन कर लौटता और पूरी फिल्म की कहानी बताता. सम्भव है कि वे इस बारे मेंक ह्र्चा करते होंगे कि फ़िल्म में हिरोइन और हीरो के बीच के दृश्यों पर सेंसर बोर्ड ने कहीं लचीला रुख तो नहीं अपनाया है? या बच्चे इस फिल्म से क्या सीख लेंगे? शायद इसी तरह की बैटन पर विचार विमर्श होता होगा. आखिर सब फ़िल्में ख़ारिज होती जाती. एक फिल्म एप्रूव हुई थी “बिन माँ के बच्चे”. पुलिस की जीप में बैठकर हम मोहन जी के सिनेमा पहुंचे. वहाँ खूब मान सम्मान से हमें अंदर बिठाया गया. उस फिल्म में एक पिता अरसे बाद घर लौट कर दरवाज़े पर लगी ऊपर वाली कुण्डी को हथोड़े से तोड़ता है. वह जब अंदर देखता है तो सूना घर. बच्चे नहीं है. सिर्फ खालीपन. मैं उसे देखते हुए मन ही मन रोने लगा. मैंने चाहा कि बाहर भाग जाऊं. मैंने सोचा कि मेरे भाई बहनों ने मुझे इस तरह रोते हुए देखा तो मेरी खूब बे इज्ज़ती हो जायेगी. मैं सिनेमा का भगोड़ा था.
इस तरह सेंसर पर सेंसर होकर देखी जाने वाली फ़िल्मों से ये सबक आया कि कभी सिनेमा हाल के पास देख लिए गए. किसी ने पापा को बता दिया तो तय था कि मेरे जीवन का हाल परमारों की शापित राजधानी किराडू जैसा होता. मैं अपने आप को किराडू के भग्नावेशों की तरह देखने लगता. कोई आक्रांता मुझे रोंदता हुआ गुज़र रहा है. मेरे सौंदर्य के हर एक अक्स को तोडा जा रहा है. मैं टूटी हुए टांगें लिए बिस्तर पर पड़ा हूँ या फिर अपने छोटे भाइयों की नज़रों के सामने घर के ही आँगन में मुर्गा बना हुआ हूँ. इसलिए मैंने अमित से साफ़ कहा कि मैं फिल्में नहीं देखता हूँ. अमित के लिए फ़िल्में न देखने वाला इंसान दुनिया का दोयम दर्ज़े का अधूरा इंसान होता था.
हमारे एक साथ होने की एक वजह इस तरह कट गयी जैसे गाँधी खानदान के एक पुराने युवराज ने आपातकाल में देश की आबादी पर अंकुश पाया था.
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