कक्षा नौवीं जी कई बार केमस्ट्री लैब के पास वाले कमरे में लगती थी. कई बार उस कमरे की ठीक विपरीत दिशा में बने हुए थियेटर जैसे बड़े कमरे में लगती थी. लैब के पास वाला कमरा रेल के डिब्बे जैसा था. जिसमें पीछे वाली बेंच पर बैठने वाले बच्चे बिना टिकट यात्रियों की तरह छुप जाते थे. अक्सर विज्ञान पढाने वाले मास्टर पहले दो महीनों में अपने ट्यूशन के लिए छात्र छात्राओं का शिकार कर चुकने के बाद इस बात से उदासीन हो जाते थे कि पीछे की बेंच पर कौन बच्चे हैं और वे क्या गुल खिलाते हैं.
मैं पीछे की बेंच पर होता और वहाँ से हर रोज़ मुझे बरामद कर लिया जाता. जो भी माड़साब, जिनका पीरियड होता वह याद से पूछते- "अरे शेरजी वाला किशोर कहाँ गया." पिताजी उसी स्कूल के इतिहास में अध्यापक थे और उनसे प्रेम के कारण उनके सहकर्मी मेरे भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे. मैं इस प्रेम के कारण अँधेरे से रौशनी में आ जाता और भारत की इस जेल शिक्षा को मन ही मन खूब गालियाँ देता था. मेरी लास्ट वाली बेंच का छिन जाना कुछ ऐसा होता जैसे कि अभी स्वर्ग के द्वार पर थे और यमदूतों ने हांक कर नरक में ला पटका हो.
आगे वाली बेंच पर आने के बाद मन बाहर की ओर भागने लगता.
बाहर रेत ही रेत थी. हाई स्कूल के लंबे चौड़े मैदान में बतूलिये उठते रहते थे. बाल मंदिर स्कूल की तरफ एक बड़े भूभाग की ओर नज़र डालो तो इकलौता मूत्रालय नज़र आता था. रोमन सभ्यता से अलग दस वर्गफीट से ज्यादा बड़े भाग में बने इस मूत्रालय के एक तरफ के दो दरवाज़ों पर हमेशा ताले लगे रहते थे. ये छात्राओं की सुविधा वाला हिस्सा था. लेकिन लड़कियों के लिए इस तरह खुले मैदान की ओर जाना ठीक न था इसलिए उनके लिए कहीं गुप्त जगह पर कोई व्यवस्था थी. लड़के गर्ल्स रूम में जा नहीं सकते थे और मैं पापा के कारण ये सोच भी नहीं सकता था. उनके डर के आगे इस दुनिया की सब चीज़ें स्वतः मेरे लिए वर्जित थीं.
बालमंदिर की दिशा में बने हुए उस भव्य मूत्रालय के पास अनगिनत किस्से थे. उनमें से एक कुछ अधिक ख्यात था. वह एक लोककथा या किंवदंती जैसा था. उस समय के एचएमवी कम्पनी के गायक और विद्यालय के लैब सहायक का किसी बदमाश छात्र ने उसी मूत्रालय की छत पर चढ़कर स्टिंग ऑपरेशन कर लिया था. उसका दावा एक दवा की तरह था. केमस्ट्री लैब में सहपाठी छात्राओं के साथ कथित रूप से छेड़खानी करने वाले लैब सहायक इस दुनिया की वंशवृद्धि में योगदान देने में असमर्थ थे. इस ख़बर की पुष्टि हर छात्र करता था. जैसे उसने ख़ुद अपनी आँखों से देखा हो. छात्रहित में इस अमूल्य योगदान देने वाले महान छात्र का नाम एक रहस्य था. जिसे मैंने अपने जीवन में कभी नहीं जाना. मेरे लिए इस तरह की बात करना निषेध था. ना मालूम किस जगह से पापा आ जाये और वे मेरे मुख से उच्चरित ऐसा कोई वाक्य सुन लें.
मैं समंदर का ज्ञान लेने के लिए पिंजरे में बंद करके छोड़ा हुआ कोई दरियाई घोड़े का बच्चा था जिसे कोई शार्क निगल न जाये, जिसे कोई अपवित्र समुद्री आत्मा छू न ले.
उस मूत्रालय के पास मुझे अमित मिला. खाकी पेंट और सफ़ेद कमीज पहने हुए. उसकी गणवेश में एक खास किस्म की निडरता थी. उसने अपने कमीज की बाहें मोड़ रखी थी. जैसे हाई स्कूल के सामने वाली गली के मोड़ वाली कोने की जूस की दुकान के अंदर राजेश खन्ना फ़िल्मी पोस्टर में दीखते थे. उस दुकान से जूस पीने जितने पैसे हमारे पास कभी नहीं हुए मगर वह दुकान एक खास आकर्षण का केंद्र थी. उसी दुकान पर एक गाना बजता था जिसे बेशर्म लोग रुक कर सुनते थे और इज्ज़तदार लोग सुन लिए जाने का भाव मन में भरते हुए बिना आवाज़ वाली आह भरकर आगे बढ़ जाते थे. गीत था आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए... तो बात बन जाये. बात बन जाये का असल भाव हर कोई यही समझता था कि इस अवसर के आने पर बाप बन जाने की पूरी संभावना है. मेरे सहपाठी इस अवसर के लिए इस कदर बेचैन थे कि बाप बन जाने जैसी जिम्मेदारी उठाने के दावे किया करते थे. इस तरह के दावे करने वाले सहपाठी मेरे लिए बड़े खतरे थे. उनके साथ रहना विषैले जीव पालने जैसा काम था. अस्पृश्य अभिलाषाओं से भरे हुए वे लड़के मुझे कभी भी पापा से पिटवा सकते थे इसलिए मैं किसी अच्छे लड़के की तलाश में था.
मूत्रालय से निवृति के बाद अमित की नज़र बाल मंदिर स्कूल की तरफ थी. मैंने कहा- तुम कवितायेँ लिखते हो?
अमित की आँखों में ज़बरदस्त चमक आई. उससे शायद पहली बार स्कूल के किसी लड़के ने इस हुनर के बारे में पूछा था. उसने कहा तुम शेरजी के लड़के हो न. मैंने कहा हाँ. उसने कहा जल्दी भागो. हम दोनों वहां से भागकर भेलीराम की होटल कहलाने वाली चाय की थड़ी पर आ गए. उसने मेरे सामने शेक्सपीयर और कीट्स होने के, रामधारी सिंह दिनकर, बच्चन और दुष्यंत के होने से भी बड़े होने जैसे भावों का प्रदर्शन किया. उसने अपनी जेब से तीन कवितायेँ निकाली और चाय का ऑर्डर दिया. मैंने कहा मेरे पास पैसे नहीं है. मैं डर गया कि बिना पैसे चाय पीने के बाद चायवाला जाने क्या सलूक करेगा. उसने कहा कि तुम डरो नहीं. मेरे पास पैसे हैं.
उस मीटिंग में मुझे मालूम हुआ कि वह खूब पैसे वाला लड़का है. इसलिए कि उसने चाय की थड़ी पर दो बार चाय का ऑर्डर किया. ये कार्य मेरे लिए दुनिया का एक असम्भव कार्य था. उसने अपनी तीन कवितायेँ सुनाने के बाद मेरी पहली ही कविता को आधे रास्ते ही रोक दिया. उसका व्यव्हार ऐसा था जैसे कोई नामसझ कविता की तलवार से खुद को ही घायल किये जा रहा हो. उसने अपना मुंह बिचकाया और कहा- "अच्छी है मगर अभी और कोशिश करनी चाहिए." ये मेरी कविता का घोर अपमान था. मैं उन सब लोगों को निर्दयी मानता आया हूँ जिन्होंने भी किसी कवि कवयित्री को सुन कर कहा कि प्रयास अच्छा है. इस वाक्य में मुझे अहंकार की बू आती थी, अब भी आती है.
बारह बजकर बीस मिनट होते ही अमित के पैर बेकाबू होने लगे. वह बम विस्फोट के डर से भाग रहे किसी आदमी की तरह स्कूल की ओर गायब हो हो गया.
कई मुलाक़ातों के बाद मुझे मालूम हुआ कि मूत्रालय के पार दिखने वाली बालमंदिर स्कूल की ओर से एक ठंडी हवा का झोंका आता था. स्कूल से निकलकर वह झोंका अग्रवालों की गली के किसी घर में गुम हो जाता था. उसकी पहली तीन कविताओं में से तीन कवितायेँ उसी झोंके के नाम थी. मेरा कवि होना ख़ारिज कर दिया गया था बावजूद इसके साल उन्नीस सौ पचासी की उस सुबह ने एक ऐसे दोस्त से मिलवाया जो बरसों बरस धूप की तपिश और बादलों की ठंडी छाँव की तरह मेरे मन के सूखे रेगिस्तान में बना बना रहा.
वो मूत्रालय हमारे प्रथम मिलन का स्थल है. रबातक शिलालेख पर अंकित जानकारी जिस तरह कुषाणों की पहचान में भ्रम पैदा करती है उसके विपरीत हमारे पहले मिलन की अधिक गहरी पहचान स्थापित करने वाला न लिखा गया शिलालेख, हाई स्कूल का ऐतिहासिक मूत्रालय था.
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आगे की बात अगली कड़ी में