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हमारा क्या होगा?

पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक मंदिर था। वहाँ से नीचे पाँच सौ मीटर का रास्ता तय करना था। जब हम ऊपर गए थे तब उसे जाने क्या हो गया था। वह कुलांचें भरते हुए पत्थरों की ओट में बढ़ती गयी। उसे इस बात की परवाह न थी कि वह अकेली है। मैं पीछे छूट गया हूँ। बाइस की उम्र ऐसी भी नहीं होती कि बचपना जाग उठे।

जब मैं ऊपर पहुंचा तब वह एक अधेड़ पुजारी से बात कर रही थी। मुझे देखकर चहक कर बोली "ये चमत्कारी जगह है, देखो बाबा ने मुझे पहचान लिया" मैं पल दो पल निर्विकार रहा तब तक उसने आगे कहा "सचमुच ये बड़ी बात है। किसी लड़की के चेहरे पर थोड़े ही लिखा होता है कि उसके पिता आर्मी ऑफिसर है" वह मंदिर के चारों ओर पत्थर की दीवार को छूते हुए परिक्रमा करने लगी। जब चक्कर पूरा हुआ तब मैंने कहा- "चलें"

उसने मंदिर के चारों ओर बनी रेलिंग को पकड़कर एक दो बार नीचे ज़मीन की ओर झाँका। हम उतरने लगे। इस बार वह तेज़ नहीं उतर रही थी। बल्कि हाथ थामकर आहिस्ता साथ चल रही थी। "हमारा क्या होगा?" पहाड़ की ढलान उतरते हुए उसने पूछा। मैंने कहा- "हम बहुत जल्द सब भूल जाएंगे" उसने शंकित निगाहें मेरे चेहरे पर जमा दी और ठहर गयी। "इसका क्या मतलब है?" मैंने उसके हाथ को खींचा और हम नीचे की ओर चलने लगे। "ये एक अच्छी न लगने वाली बात है मगर क्या करें?" वह दो कदम चली और रुक गयी। उसने एक बड़े पत्थर से अपना सर टिका लिया। उसने मेरा हाथ खींचा। मैंने कहा- "क्या सर फोड़ना है?" उसने कहा- "नहीं। देखो इतनी धूप में भी ये पत्थर ठंडा है।" वह मुस्कुरा रही थी।
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टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउ

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्यों की थी।  उनकी कथाओं के

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न