मेरे पास एक माइक्रोफोन और एक छोटा रिकॉर्डर था। विद्यालय में प्रवेश करते ही मेरी नज़र इसी तरफ गयी। मैंने अपने साथ चल रहे गुरुजी से पूछा कि क्या मैं ये टॉयलेट्स देख सकता हूँ। वे बोले "अरे ज़रूर देखिए।" विद्यालय के मुख्य द्वार से हम उसी ओर चल पड़े। रेगिस्तान के बीच किसी विद्यालय में इतने सुंदर दिखने वाले और स्वच्छ शौचालय मेरे लिए आकर्षण का कारण होने से अधिक प्रसन्नता का विषय थे।
ये छह शौचालय हैं। फाइबर से बने हुए हैं इसलिए इनकी उम्र काफी होने की आशा की जा सकती है। इनको इतना ऊंचा इसलिए बनाया गया कि इस ऊंचाई के नीचे पीछे वेस्ट के लिए पिट बने हैं। उनमें एक विशेष प्रकार का सूखा रासायनिक मिश्रण डाला हुआ है जो विष्ठा को गंध रहित खाद में बदल देता है। फाइबर बॉडी के ऊपर जो लाल रंग की पट्टी दिख रही है, वह असल में वाटर टैंक है। शौचालय का उपयोग करने के बाद फ्लश किया जा सकता है। एक फ्लश में इतना कम पानी खर्च होता है कि एक टॉयलेट का वाटर स्टोरेज तीन दिन तक चल जाता है।
मैंने गुरुजी से पूछा कि क्या विद्यालय की लड़कियां इनका उपयोग कर रही हैं। उन्होंने कहा- "लड़कियों के लिए सचमुच ये कष्टप्रद ही था कि वे कच्चे टॉयलेट्स में नहीं जाने के कारण घर लौटकर ही लघुशंका आदि से निवृत होती थी। लेकिन अब स्कूल की सब लड़कियां इनका बिना झिझक के उपयोग करती हैं।"
रेगिस्तान के सब विद्यालयों में अभी तक शौचालय की व्यवस्था नहीं है। शिक्षिकाएं विद्यालय भवन की चारदीवारी के उस कोने तक जाती हैं जहां बबूल आदि झाड़ियां खड़ी हैं। वे दो तीन एक साथ जाती हैं। एक जब लघुशंका के लिए जाए तो दूजी मुंह फेरकर चौकीदारी करती हैं। विद्यालय की बालिकाएं भी कम ओ बेश इसी तरह नैसर्गिक आवश्यकताएँ पूरी करती हैं। ऐसे में इस विद्यालय में बने इन शौचालयों ने मुझे प्रसन्नता से भर दिया।
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