इस लेख को कहीं भी प्रकाशित किये जाने की अनुमति नहीं है. ये मेरे जीवन का निज हिस्सा और अपनी सोच का अक्स है. हम अगर कर पाते संभावित दुखों की मामूली सी कल्पना तो जान जाते कि ज़िंदगी का शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं. इस साल के बीतने में एक दिन बाकी है. साइबेरिया से उड़े पंछी रेगिस्तान की ओर आने के रास्ते में हैं. इधर मगर ठण्ड बढती जा रही है. मैं और ज्यादा बर्फ हुआ जाता हूँ कि दिल्ली जो मेरे देश की राजधानी है, वह एक डरावनी बहस में घिरी है. दो प्रमुख दल एक बात बड़े विश्वास से कह रहे हैं कि सस्ती बिजली और ज़रूरत का पानी उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है. मैं घबराया हुआ हूँ कि ‘ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पत्थर के जाते पाँव उखड़’ वाली जिजीविषा वाले मनुष्य ने अपने हौसले को खो दिया है. या फिर ये आदमी के खिलाफ आदमी की ही साजिश है. दोनों में से जो भी सत्य है वह नाउम्मीदी से भरा है. रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी, डूबते साल में हतप्रभ हों शायद. लेकिन ऐसा नहीं है. हम अक्सर अच्छी बातों को भूल जाते हैं और दुखों के सांप गले में लपेटे हुए, ज़हर पिए शिव बने रहने को याद...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]