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Showing posts from August, 2013

खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

मैं टूटे हुये तीर-कमां देख रहा हूँ।

होने को फसल ए गुल भी है, दावत ए ऐश भी है

रेगिस्तान के एक कोने के पुस्तकालय में प्रेमचंद