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Showing posts from 2019

वह एक अफ़ीम ही था।

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उसके इशारे में जाने क्या सम्मोहन था कि मैंने अपनी गाड़ी रोक दी। उसके थैले में पोस्त का चूरा भरा है। उसने अपनी बंडी में अफ़ीम छुपा रखी है। वह कुछ चुराकर भाग रहा है। उसकी रेलगाड़ी छूट रही है। उसको बस अड्डे तक जाना है। कोई प्रिय अस्पताल में उसका इंतज़ार कर रहा है। वह ख़ुद अस्वस्थ है। उसके हाथ से इशारा करने के पीछे अनेक वजहों में से कोई भी वजह हो सकती थी। उस वजह का मैं भागीदार हो चुका था। वह नशीले पदार्थ लिए होता तो मैं अपने को निर्दोष साबित करने के लिए भटकता रहता। उसे किसी ज़रूरी काम में कहीं पहुंचना होता तो वह अपनी ज़रूरत में मुझे कैसे याद रख पाता। उसको क्या याद रहता कि शुक्रिया कहना चाहिये। वह मेरे पास की सीट पर बैठा था। उसने अपनी एक उलझन कही। पूछा कि इसका क्या हो सकता है। मैंने उसको रास्ता बताया। ऐसा करने से तुम्हारी मुश्किल आसान हो जाएगी। मैंने एक फ़ोन लगाया। उसके बारे में बात की। मेरे कहने से उसे आसानी हो गयी। इतना होते ही उसने एक नई समस्या मेरे सामने रख दी। मैंने कहा घबराओ मत। इस पर अधिक न सोचो। वह मेरी ओर इस तरह देखने लगा कि जैसे मैं कुछ करूँ। मैंने उसे कागज़ के छो

पानी के रंगों वाला पेड़

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पानी के रंग बरतने वाले कलाकारों के चित्रों में कुछ एक जैसा होता ही है। उनकी डायरी में ये पेड़ भी अक्सर मिल जाता है। यूं तो दुनिया भर में गिरती हुई स्वर्णिम पत्तियों से ही पतझड़ सुंदर दिखता है किन्तु पेड़ पर एक साथ लगी सुनहरी, पीली और हरी पत्तियां इसे मोहक बनाती हैं। ये मुझे अपनी ओर खींचता रहता है। पेड़ के साथ तस्वीर में आभा है।

तुम भय के बारे में क्या जानते हो?

माले कैम्प में एक रेस्तरां के आगे गुज़रते हुए ज्यूमा ने देखा लोग खा-पी रहे थे। रेस्तरां के भीतर सिगरेट का धुआँ था। वह एक खिड़की में रखे केक देखने लगा तभी उसके कंधे को किसी ने थपथपाया। ज्यूमा ने मुड़कर देखा पुलिसवाला था। पुलिस वाले को देखते ही अपनी जेब से पास निकाला और आगे बढ़ा दिया। पुलिस वाले ने कहा "तुम यहाँ क्या कर रहे हो। घर जाओ अंगीठी के पास बैठो और बीयर का मज़ा लो" इस बात से ज्यूमा को समझ आता है कि पुलिसवाला उस पर तंज कस रहा है। वह पूछता है "क्या आप मुझे जेल भेजने वाले हैं" ज्यूमा वहां से चलकर ऐलोफ़ स्ट्रीट होता हुआ शहर के चौक तक पहुंचता है। उसका ध्यान गली में एक छत की ओर जाता है। वहाँ छत पर कोई भाग रहा है। भागता हुआ आदमी अचानक छत से फिसल कर लटक जाता है। उस आदमी के पीछे पुलिस वाले हैं। आदमी का एक हाथ छूट जाता है। दर्शकों को पुलिस वाले धमका कर दूर कर देते हैं। तभी वह आदमी नीचे सड़क पर गिर जाता है। सब उसकी ओर दौड़ते हैं। भीड़ को हटाते हुए पुलिस वाले आते हैं। लोग हटते हैं लेकिन एक आदमी उसके पास बैठा रहता है। पुलिस वाले पूछते हैं "तुम क्यों नही

एक लिफाफे में रेत

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प्रेम की हड़बड़ी में वो स्नो शूज पहने हुये रेगिस्तान चली आई थी। वापसी में रेत उसके पीछे झरती रही। कार के पायदान पर, हवाई अड्डे के प्रतीक्षालय में, हवाई जहाज और बर्फ के देश की सड़कों तक ज़रा-ज़रा सी बिखर गयी। थोड़ी सी रेत उसके मन में बची थी। उसके मन में जो रेत बसी हुई थी वह बिखर न सकी। शिकवे बनकर बार बार उठती थी। उसके सामने अंधेरा छा जाता था। सांस लेने में तकलीफ होने लगती थी। बेचैनी में कहीं भाग जाना चाहती थी लेकिन रास्ता न सूझता था। बारीक रेत का स्याह पर्दा उसे डराता रहता था। उस रेत को उसने एक लिफाफे में रखकर मुझे भेज दिया। मैंने उसे केवल एक ही बार पढ़ा था। उसे पढ़ा नहीं जा सकता था। उसमें मेरे लिए कोसने थे। बेचैनी थी। मैं लिफाफे को कहीं रखकर भूल जाना चाहता था। और मैंने बड़ी भूल की। उस लिफाफे को मन के अंदर रख लिया। "तुमसे मिलते ही मैं बर्बाद हो गयी। मैं अपने बच्चों से, पति से, घरवालों से, पेंटिंग से, सोचने से, समझने से और हर उस बात से बेगानी हो गयी, जो मेरी दुनिया थी। जहां चाहे हरदम खुशियों के फूल न झरते थे मगर शांति थी। तुम्हारे पास से लौटकर छोटी बेटी को ग

रंगीन पैबल्स

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जीवन रंगीन पैबल्स के लुढ़कने का कोई खेल है। अनिगिनत रंग बिरंगे पैबल्स अनजाने-अनदेखे रास्ते पर लुढ़कते हुए टकराते हैं। साथ चलते है। बिछड़ते हैं। कोई रास्ते से बाहर उछल जाता है। कोई टूटता हुआ बढ़ता रहता है। अंततः हर पैबल रंगीन धुएं में बदल जाता है। इस खेल में हमारा सफ़र खत्म हो जाता है। कभी दफ़्तर से लौटकर, कॉलेज से आकर, दुकान से आकर लगता है कि कितना बोझिल है। इससे हम कब मुक्त होंगे। घर साफ करते, खाना पकाते, परिवार को आकार देते हुए एक मोड़ पर यह सब भी बोझिल होने लगता है। हताशा उगने लगती है। उस पल कभी सोचा है कि आज का हो गया। सो सके तो कल जागेंगे तब देखेंगे। इतना भर सोचते ही सब मुश्किलें यथावत होते हुए भी एक कदम पीछे छूट जाती है। कि क्या सचमुच कई बरसों में कुछ बनाने का लक्ष्य पक्का साधा जा सकेगा? नहीं, नहीं कभी नहीं। फिर क्या है? किस बात की चिंता। वह जो पार्टनर है, वे जो बच्चे हैं, वह जो काम है। इतना मत सोचो, ये सब अलग हैं। सब का अपना रास्ता है। सब रंगीन पैबल्स अपने ढब से आगे बढ़ेंगे। कौन कब कहाँ होगा कोई नहीं जानता। फिलहाल एक बार आराम से बैठ जाइए। आप ज़िंदा हैं, मशीन नही

खुद के पास लौटते ही

छाँव के टुकड़े तले बैठ जाना सुख नहीं था। वह आराम था। काम से विराम। इसी बैठ जाने में जब तुमने देखा कि तुम बैठे हुए हो। तुम पर छाँव है। धूप पास खड़ी तुमको देख रही है। तुमने एक गहरी सांस ली। ये सब महसूस करते और देखते ही आराम सुख में बदल जाता है। चिंता बड़ी होती है। उसका लम्बा होना अधिक भारी होता है। अक्सर पांच, दस, पन्द्रह बरस तक आगे की लंबी चिंता। इसका क्या लाभ है। हम अगले क्षण कहाँ होंगे। सब कुछ अनिश्चित लेकिन चिंता स्थायी। चिंता के लंबे बरसों को पार करते ही चिंता किसी जादुई चीज़ की तरह रूप बदल कर कुछ और साल आगे कूद जाती है। उसे मिटाने के लिये फिर से पीछा शुरू हो जाता है। दिन भर तगारी उठाते। ठेला दौड़ाते। रिक्शा खींचते। बच्चों को पढ़ाते। वर्दी पहने धूप में खड़े हुए। दफ़्तर में फ़ाइलें दुरुस्त करते। आदेश देते हुए। आराम किया होगा मगर सुख को पाया। शायद नहीं। सुख तब होता जब काम के आराम में अपने आपको देखा जाता। अपने हाल पर एक नज़र डाली जाती। जैसे एक धावक अपने पसीने को देखता है। जैसे एक चिड़िया अपनी चोंच साफ करती है। धावक दौड़ लिया। अब वह दौड़ से बाहर खुद के पास है। चिड़िया ने भ

माँ है

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गिलहरी के दो छोटे बच्चे एक साथ दिखे। अचानक तीसरा दिखाई दिया। मैं उसे देखने लगा। मैंने अब तक तीन बच्चे एक साथ न देखे थे। मैं मुस्कुराया। उनके खाने लिए दालें, गेंहूँ और बीज रखे रहते हैं। ये गेहूँ और दाल बीनने के बीच बचे हुए या बचाये हुए होते हैं।फलों को खाने पर गुठलियां और बीज ऐसे रख दिये जाते हैं कि गिलहरियां इनको कुतर सके। गिलहरियां और चिड़ियाँ एक उदास चलचित्र में सजीवता भरती है। उनके उछलने, कूदने, दौड़ने, कुतरने और कलरव से हम कहीं खोये होने से बाहर आते हैं। हम पाते हैं कि जीवन चल रहा। नन्हे बच्चे जिज्ञासु होते हैं। वे पास चले आते हैं। थोड़ा झिझकते हैं फिर भाग जाते हैं। आलू पपड़ी इनको बहुत प्रिय है। मेरे बच्चे मशीनों से पैक होकर आई हुई खाते हैं। वे गिलहरियों के लिए शायद उतनी मज़ेदार भी न हों। थोड़ी मोटी हाथ से बनी आलू पपड़ी को कुतरने का स्वाद उनकी तन्मयता में पढ़ा जा सकता है। तीन बच्चों को देखते हुए मैं अचानक चिंतित हुआ। उनकी माँ नहीं दिख रही थी। जबकि सबसे पहले वही दिखा करती थी। मुझे एक और चिंता हुई तो मैं बाहर दरवाज़े की ओर देखने लगा। दरवाज़ा खोलकर माँ खड़ी हु

चाहना

चाहना कोई काम थोड़े ही था कि किया या छोड़ दिया जाता। ये तो वनफूल की तरह खिली कोई बात थी। उसे देखा और देखते रह गए। वह दिखना बंद हुआ तो उसकी याद आने लगी। उस तक लौटने लगे तो खुश हुये। उससे मिल लिए तो सुकून आया। तुम वनफूल से थे, वो किसी खरगोश की तरह तुम्हारे रास्ते से गुज़रा होगा। इस में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है। सबकुछ एक रोज़, एक लम्हे के लिए होता है। ज़रा ठहर कर सोचोगे तो पाओगे कि उस लम्हे का होना, होने से पहले था और होने के बाद भी वह है। मगर तुम केवल वही होना चाहते हो जिसमें पहली बार में बिंध गए थे। चाहना का भूत और भविष्य कुछ नहीं होता। इसे को न चाह कर बनाया जा सकता है न मिटाया। जाने दो। * * *

अवसाद एक अजगर है

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मैं एक बार गिर गया था। ऐसे गिरा होता कि लोग देख पाते तो शायद वे मुझे उठाने दौड़ पड़ते। मैं सीधा खड़ा हुआ था। मेरी चोट नुमाया न थी। ये गिर पड़ना कुछ ऐसा था कि रेत की मूरत झरकर ज़मीन पर पसर गयी है। एक अक्स लोगों की निगाह में बचा रह गया था। जिसे वे देख रहे थे लेकिन वे जान नहीं रहे थे कि अक्स मिट चुका है। मैंने हेमन्त से कहा- "क्या करूँ?" बाड़मेर के ताज़ा उजड़े बस स्टैंड की खाली पड़ी शेड के नीचे बनी बैठक पर हम दोनों बैठे हुए थे। वो उम्र में मुझसे काफी छोटा है, अनुभवों और दुनियादारी की समझ में बहुत बड़ा है। उसने कहा- "आपको लगता है कि ख़त्म हो गया है।" मैंने कहा- "हाँ" उसने अगला सवाल पूछा- "ज़िन्दगी में कितने दुःख उठाना चाहते हैं?" मैंने कहा- "कितने भी मगर ये नहीं" "अब मुड़कर न देखना। इस ख़त्म को आख़िरी खत्म रखना। एक बार के गिरने का बार-बार गिरना हताश करता है। इसे छोड़ दीजिए" मैं रेत की तरह ख़ुद के पैरों में पड़ा था। मैं अपना नाम, काम, पहचान और जीवन एक किनारे करके खड़ा हुआ था। जहां मैंने चाहा था कि इसके बाद कुछ नहीं चाहिए। वहीं प

बातों के ठिकाने

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जो साथ नहीं हो पाए, उनके पास बचाकर रखी चिट्ठियां थी, रिकॉर्डेड कॉल्स थे। जो साथ हुए उनके पास अधनंगी तस्वीरें थी, चूमने के स्मृति थी, बदन पर उतरे निशानों के पते थे, आधी नींद में सटे पड़े रहने की याद थी। जो कुछ भी जिस किसी ने बचा रखा था, वह केवल सुख या दुख न था। वह लालच और प्रतिशोध भी था। इस दौर के आदमी के पास बस यही बचा है। इसे वह मिटाना नहीं चाहता। इसे वह बार-बार टटोलता है। जिस तरह बिल्ली अपने बच्चों की जगह बदलती है वैसे ही ऐसी यादों और बातों के ठिकाने बदलता रहा है। * * * मैं चलता था। चलते हुए एक इच्छा करता था। मैं जिधर से गुज़र रहा होऊँ, उधर से मेरा गुज़रना मिटता जाए। मैं लिखूं और मेरा लिखा मेरी याद से मिटता जाए। मैं चूम रहा होऊं और चूमने के निशान किसी आत्मा पर न पड़ें। खिड़की से पर्दे हटाये। रजाई से बाहर निकला उसका आधा मुंह देखा। उसकी बन्द आंखें देखी। खिड़की के पास खड़े हुए सोचा कि रात और दिन हम क्या चाहते हैं? क्यों हम चाहना की राख से भरे हुए मंद दहकते रहते हैं। क्या दिमाग में हवस ही भरी है। क्या हम कभी इससे बाहर आ सकते हैं। क्या हम बाहर आना चाहते हैं? अंगुलियां तपिश महसूस क

किसी लालच में

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इस तरह ठहर कर किसी तस्वीर को न देखा था। अचानक वही तस्वीर फिर सामने थी। उसे फिर देखा। इस तरह दोबारा देखते हुए चौंक आई कि इसे क्यों देखा जा रहा है। यूँ उस तस्वीर को देखने की हज़ार वजहें हो सकती हैं। उन हज़ारों वजहों से आप बच निकल सकते हैं। अपने आप से कैसे बचें, ये जुगत कठिन हो जाती है। उस में क्या है। तुम क्या देखना चाहते हो। देखकर क्या पाओगे। बेहद होने के मुकाम तक पहुंच कर किस ओर मुड़ोगे। ऐसे सवाल बुलबुलों की तरह उठते हैं मगर वेगवती लहरें उनको बुझाती जाती हैं। तस्वीर वहीं है। आंखों के सामने। उसके चेहरे पर एक शांति है मगर लगता है कि अफ़सोस है। इस बात का अफ़सोस कि उसने किसी लालच में कोई बात कही थी। उसके मुड़े हुए घुटने पर एक विनम्र स्वीकारोक्ति रखी है कि तुम्हारा होना एक चाहना था। उसके कंधों पर उकेरे फूलों में शालीनता है कि वे एक दूजे पर गिर नहीं रहे। उसकी आंखें, इस बारे में कुछ नहीं कहना कि उन आंखों के बारे में कभी कुछ मत सोचो, जिनमें झूठ बोलते वक़्त भी कनमुनि तरलता थी। हालांकि तब उन आंखों में एक स्याह उदासी थी, जब उसके होठ मुस्कुरा रहे थे। असल में ये सब एकतरफा सोचना है

हमें बिछड़ना चाहिए

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जब उदास बात आई। उस क्षण अचानक बेचैनी न आई थी। केवल इतना महसूस हुआ कि समय की चाल थोड़ी धीमे हो गयी है। जीवन के प्रवाह में बहे जा रहे थे मगर नदी के रास्ते की किसी किनार पर पत्ते की तरह अटक गए। जब कभी इस तरह अचानक ठहर आती है। हम अपने क़रीब आ जाते हैं। हम उस चेहरे को पढ़ने लगते हैं। बरसों साथ रहने के बाद भी ठीक से पहली बार देखते हैं। इस देखने में याद आता है कि जब उसे पहली बार देखा और चाहना जगी थी, तब भी उसे इतना गौर से न देखा था। उसके साथ रहे। चेहरे से चेहरा सटा रहा। घंटों बतियाते रहे। बाहों में खोये रहे तब भी इस तरह उसे न देख पाए थे। एक उदास बात हमें ख़ुद के कितना क़रीब कर देती है। जब हम साथ होने जैसे न बचे तब मिले। वह मुलाक़ात आख़िरी मुलाक़ात होगी ये दोनों को मालूम न था। केवल मैं जानता था। इसलिए कि प्रेम में असीम हो जाने के साथ-साथ अक्सर बेहद लघु हो जाना पड़ता है। असीमता के भावावेश में अक्सर नाव उलट जाती है। हम उससे प्रेम करते हैं मगर जीना चाहते हैं। उस समय हम उसके बारे में बेहद बुरा सोच रहे होते हैं। उन कारणों को कभी भुलाना और मिटाना नहीं चाहते, जिनके कारण हमारे पास दुःख

नुई बात नव दिन

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ऊंट बस का नाम सुना है। कभी देखा है। कभी व्हाट्स एप फॉरवर्ड, जाति के प्रदर्शन, धर्म की अंधभक्ति से बाहर झांका है? भारत में नया मोटर व्हीकल एक्ट लागू हो गया है। जिस चालान की ख़बर ने इंटरनेट को हथिया लिया है, वह कोई मसखरी सी लगती है। हम इस एक्ट को कोस रहे हैं। हमको यही आता है, कोसो और भूल जाओ। हम कुछ दिन बाद इसके अभ्यस्त हो जाएंगे। जिसके पास कार है। जो अस्सी रुपये के आस पास कीमत वाला पेट्रोल भरवाता है। वह दो चार हज़ार में जुर्माने का सौदा पटा भी सकता है। कोई बहुत महंगी बात नहीं है। कुछ बरस पहले ट्रैफिक में कोड चला करते थे। अपनों के लिये और अघोषित जुर्माना भर चुके लोगों के लिए। जैसे आपके पास हैलमेट नहीं था। आपको ट्रैफिक अनुशासन की पालना करवाने वालों ने रोक लिया। आपने अपने भारतीय कॉपीराइट वाले हुनर से जुर्माना भर दिया। अब आपकी यात्रा तो समाप्त न हुई। अगले चौराहे पर रोके जाओगे। तब दोबारा जुर्माना न भरना पड़ेगा। आप पहले जुर्माने के साथ एक कोड पाएंगे। कोकाकोला, फेंटा, पारले जी, ओके, टाटा या बाय बाय। ये कोड अगले सर्कल पर बताते ही आप के जुर्माना भरे जाने की पुष्टि हो जाएगी। आप द्रुत

तुमने मेरे लिए कुछ किया था

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ये लोहे का जाल लगाया तब इसके साथ मालती, जूही, अमृता, रातरानी और अपराजिता की लताएं भी लगाई थी। अपनी गति से लताएं बढ़ती गई हैं। अमृता ने बेहद तेज़ गति से पूरे जाल को हथिया लिया है। इसलिए जाल का एक कोना खाली करना पड़ा। अमृता को हटाया ताकि मालती चढ़ सके। उसे धूप मिले। जीवन में कभी कोई सम्मोहन, लालच, चाहना हमको इस तरह ढक लेती है कि बाकी सब बातें मिटने लगती हैं। हम उसी के अधीन हो जाते हैं। जीवन एकरस हो जाता है। एकरसता से ऊब होती है। ऊब से उदासी आती है। उदासी कभी हमको हताश भी कर देती है। कभी किसी को अपने जीवन पर इस तरह न पसरने देना कि केवल वही रह जाए। वह मन पर एक अंधेरा कर दे। नए लोगों से मिलना, कलाओं के संसार से संवाद करना, अकेले बैठना, सिनेमा जाना, किताबें पढ़ना, गलतियां करके न पछताना जैसे अनेक काम करते रहने की जगह जीवन में बची रहनी चाहिए। जिस काम में आंखें मूंद कर डूबे हो, एक रोज़ वह काम ये मानने से इनकार कर देगा कि तुमने मेरे लिए कुछ किया था। शुक्रिया। ❤️

कोई खोया हुआ शख्स

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बढ़ई का रणदा था. जब भी दिल पर कोई दाग़ लगा, दिल को छील कर नया कर लिया. एक मोची वाली सुई थी, दिल में छेद करके, दिल को सी लिया. मोहोब्बत के सितम की कड़ी धूप में दिल सूखने लगा तो कच्ची शराब थी, उसमें भिगो कर रख दिया. दिल बरबाद तो हर तरह से हुआ मगर किसी न किसी तरकीब से उसे मरने नहीं दिया. एक दोस्त ने कहा- "केसी दिल की बातें अक्सर जुबां तक आते-आते टूट जाती हैं. कुछ पोशीदा बातें कहने का जरिया होना ही चाहिए." मैंने कहा- "बातें दिल में पड़ी रहे तभी तक अच्छा. ग़ालिब के सलीके में ये बात कुछ ऐसी है कि मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में." दरअस्ल मैं क्या हूँ? ये मैं ख़ुद नहीं जानता हूँ. मेरी प्रोफाइल में छांटकर लगाई चंद तस्वीरें देखकर. मेरी कही कुछ कहानियां पढ़कर. मेरी डायरी में लिखे ज़िन्दगी के कड़वे, खट्टे और नंगे शब्दों से दो-चार होकर किसी ने अपने आप को कहीं खोज लिया होगा. कोई खोया हुआ शख्स याद आया होगा. कच्चे दिनों में लिए बोसे का निशाँ फिर से उभर आया होगा. कोई एक टीस उठी होगी. कभी बदन ने थककर ख़ुद को बिस्तर पर इस तरह पटक दिया होगा कि ऐ ज़िन्दगी अब तुम्हारा बोझ बढ़ गया है. दोस्तों

हमारे पास क्या कुछ है?

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हमारे पास क्या न था। प्रतीक्षा, एकान्त, उदासी और कभी-कभी हताशा भी। लेकिन हमने इतनी सरल अनुभूतियों को देखा ही नहीं। उन क्षणों में स्वयं से बात ही नहीं की। प्रतीक्षा में थे तो कितना सुंदर था कि किसी के आने के ख़याल में सबकुछ भूल गए है। एकान्त था तो कितना अच्छा था कि हम बहुत बरस पीछे लौटकर अपनी याद से गुम हुए लम्हों की तलाश कर सकते थे। उदास थे तो ख़ुद से बतियाते। क्या चाहिए प्यारे। जब तुम किसी की कामना करते हो तो ये तुम्हारा गुण है, उसका कुछ नहीं है। कितने ही हीरे जब हमारी कामना में नहीं होते तो उनका क्या मोल होता है। हताशा इसलिए थी कि हम एक नई शुरुआत कर सकें। सब कुछ नया। लेकिन हम कब उन चीज़ों, सम्बन्धों और साथ की कद्र करते हैं, जो हमारे पास होता है। सोचना, हमारे पास क्या कुछ है? जो भी है, उसे समझोगे तो बहुत उपयोगी पाओगे।

परमिंदर

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ये हादसा भी होना था। एक लड़की थी। उसके नाम को बदले बिना स्कूल के दिनों के कहानी लिख दी थी। कहानी पैंतीस साल पहले घटी। उसको लिखा घटना के चौदह साल बाद। किताब छप गयी। पैंतीस साल बाद अचानक वह फेसबुक पर दिखी। मैं कहानी कहने की ख़ुशी भूल गया। सोचने लगा कि वह कहानी पढ़ेगी तो उसे कैसा लगेगा? मैंने आभा को कहा- "देखो परमिंदर" आभा ने विस्मय भरी आंखों से उसे देखा। मुझे कहानी याद है लेकिन बेचैन होने लगा। इसलिए कि वह कहानी मैंने जिस तरह समझी और लिखी, उसे परमिंदर कैसे पढ़ेगी? उसे कैसा लगेगा। रात का पहला पहर जा चुका था फिर भी मेरी पेशानी की सलवटें मानु ने पढ़ ली। वह गयी और कहानी संग्रह ले आई। उसने कहानी पढ़नी शुरू की। मैं भी चाहता था कि कहानी पढ़ी ही जाए। मेरा अपना डर था कि कोई प्रिय हो या अपरिचित हो, उसके बारे में कुछ भी कहना हो, ज़िम्मेदारी बड़ी होती है। कहानी पढ़ने के बाद आभा और मानु ने कहा। आपने इसमें परमिंदर के लिए तो अच्छा ही लिखा है। आपने कहानी लिखी ही इसलिए है कि कभी परमिंदर मिल जाए तो उसे कहानी के रास्ते बचपन का क्रश याद दिलाया जा सके। परमिंदर अपने परिवार के साथ खड़

नदियों का हत्यारा

दो दिन पहले मुम्बई प्यासी मरने वाली थी। दो दिन बाद पानी से भर गयी है। ये चमत्कारों का देश है। पहला चमत्कार था कि देश में अचानक सूखा पड़ गया था। इस सूखे से होने वाले विनाश के आंकड़े निकाल कर प्रस्तुत कर दिए गए थे। अगले बीस साल में चार फीसद आबादी पानी के अभाव में मरने वाली थी। मेरा भी गला सूखने लगा। मैंने पाया कि बूढा जर्जर केसी सूख कर निढाल होकर पड़ गया है। उसके शरीर से पानी की आख़िरी बून्द उड़ रही है। फटी आंखें अनंत विस्तार को देखती रह गयी है। मैंने तुरन्त तय किया कि पानी बचाने निकल पड़ो बाबू। बुढापे में इस तरह प्यास से मरना अच्छा न होगा। जाओ अपने टांके में झांको। अपनी बिसरा दी गई बावड़ियों, तालाबों और पोखरों का फेरा देकर आओ। मैं निकलता तब तक मुम्बई में बारिश आ गिरी। मुम्बई वाले बारिश पर लतीफे बनाने लगे। ये सब सुनकर मन प्रसन्न हो गया और मैंने बाहर निकलना स्थगित कर दिया। एक दिन पहले सूखे से भरे न्यूज़ चैनल्स के स्टूडियो पानी से भर गए। कल पानी के लिए युद्ध था, आज पानी से तौबा है। ऐसा कैसे हो सकता है? ये ख़बर संसार है या सिनेमाघर है। सूखा फ़िल्म उतरी और गीला फ़िल्म लग गयी।

ठहरे उदास चितराम

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आकाश में कुछ बादल आ गये थे। बरसात की आस न हुई। गर्म दिनों का लंबा सफ़र अभी और चलना था। बादलों के आने से उमस और बढ़ गई थी। अच्छा फिर भी लग रहा था। गर्मी में उमस के बढ़ जाने से तकलीफ़ बढ़ती ही है मगर जाने क्यों सब अच्छा लगने लगा। कि बादल आ गए थे। अचानक किसी ऐसे व्यक्ति की याद, जो आप तक कभी आएगा नहीं। जो आपके लिए कुछ न करेगा। लेकिन मन के ठहरे उदास चितराम में कोई हलचल होने लगती है। वह जो नहीं है, उसका न होना तय होने पर भी कुछ बदलने लगता है। कुछ लोग जो जीवन से ही नहीं वरन दुनिया से भी जा चुके होते हैं, उनका अचानक ख़याल आता है। मन बदलने लगता। हमारी परिस्थिति में क्षणभर में कोई बदलाव नहीं आता लेकिन हम महसूस करते हैं कि अब कुछ अलग लग रहा है। वे जिनके होते हुए कुछ होने की आस नहीं है, वे जो नहीं है या वे जो कभी न होंगे। वे कैसे हमारा मन बदल देते हैं। क्या ये बादल बरसेंगे? शायद नहीं, शायद कल या शायद अगले कुछ दिन बाद। फिर मन तो बदल गया। क्या हुआ? हमारे भीतर कुछ ऐसा है। जिसके अनगिनत खिड़कियां हैं। वे खिड़कियां बन्द रहती हैं। लेकिन कभी खुल जाती है। उनके खुलते ही जीवन, शरीर में बहने ल

मैसेंजर बैग

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छोटा भाई पुलिस में एडीसीपी है। जयपुर पुलिस हैडक्वाटर में उसे जो कक्ष आवंटित है, उसके बाहर उसने नेम प्लेट नहीं लगवा रखी। भाई के पास एक मैसेंजर बैग है। लेदर का है। कीमती ही होगा। उस बैग को कई बार परिचितों ने लेडीज़ बैग बता दिया है। एक बार कुछ परिचित मिलने कक्ष में पहुंचे। उन्होंने देखा कि रूम में टेबल पर लेडीज़ बैग रखा है। वे दरवाज़े से झांक कर ही चले गए। उन्होंने फ़ोन किया साहब कहाँ हो? मनोज ने जवाब दिया। "अपने कक्ष में हूँ। पधारो।" उन्होंने कहा- "साब नेमप्लेट तो आपकी लगी नहीं और जो कमरा नम्बर बताया उसमें तो टेबल पर किसी महिला अधिकारी का पर्स रखा है।" भाई के उस मैसेंजर बैग में एक आईपैड, एक फ़ोन, कुछ दवाएं, कुछ सुगंधित द्रव की शीशियां और शायद ओबामा की तरह एक हनुमान जी की मूर्ति भी रखी रहती है। इसके अलावा कुछ और भी चीजें होंगी। भाई ने मेरा बैग देखकर पूछा- "आपको मेरे वाला बैग लेडीज़ बैग दिखता है?" मैंने कहा- "दिखता तो मैसेंजर बैग ही है लेकिन इतना सारा सामान और सामान की प्रकृति के हिसाब से लेडीज़ होने की वाइब्रेशन दे सकता है।" मनोज ने पूछा- &q

किसी बात का तो है

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जब गर्मी बढ़ती है तो हवा गर्म होकर ऊपर उठ जाती है। हवा के ऊपर उठने से खाली हुई जगह को भरने के लिए हवा आने लगती है। जितनी तेज़ गर्मी उतनी ही तेज़ हवा। फिर आंधी आने लगती है। गर्मी तब भी नहीं रुकती तो रेगिस्तान की बारीक धूल आसमान पर छा जाती है। सूरज के ताप और धरती के बीच धूल की चादर तन जाती है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत के तेज़ को पैरों तले की धूल भी बेअसर कर देती है। धूल सांस में घुलने लगती हैं। आंखों में भरने लगती है। दिखाई नहीं देता, सांस नहीं आती। हर शै पर गुबार धूल की चादर तान देता है। लगता है धूल का साम्राज्य स्थापित हो गया है। फिर पानी की चंद बूंदें धूल को बहाकर वापस धरती पर पैरों तले डाल देती है। पैरों की धूल हवा पर सवार होकर ख़ुद को आकाशवासी समझने लगती है लेकिन ये पल भर का तमाशा ठहरता है। पानी के बरसते ही दबी कुचली घास हर जगह से सर उठाने लगती है। वनलताएँ सारी दुनिया को ढक लेना चाहती हैं। रास्ते मिट जाते हैं। जंगल पसर जाता है। कांटे ख़ुद को जंगल का पहरेदार समझ हर एक से उलझते और चुभते हैं। सहसा हवा की दो एक झांय से कोई चिंगारी निकलती है और जंगल अपने पसार के गर्व को धू धू कर जलता

सोशल साइट्स एक फन्दा है

कुछ मित्र कहते हैं वे अनुशासित तरीके से इनका उपयोग करते हैं। मैं अक्सर पाता हूँ कि कहीं भी कितना भी अनुशासित रह लें कुछ अलग नहीं होता। सोशल साइट्स पैरासाइट है। वे हमारे दिल और दिमाग को खोजती रहती है। एक बार हमारे दिल-दिमाग में घुस जाए तो ज़हर फैलाने लगती है। इसके दुष्परिणाम हमको कम ही समझ आते हैं। अनिद्रा, थकान, बदनदर्द, चिड़चिड़ापन, अकेलापन जैसी समस्याएं हमको घेर लेती है। मित्रों से मिल नहीं पाना। उनसे फ़ोन पर बात नहीं कर पाना। अपने कार्यस्थल पर सहकर्मियों के सुख-दुःख सुनने कहने का समय नहीं मिलना। देर से सोना और नींद पूरी होने से पहले जाग जाना। बिस्तर में पड़े रहना कि अभी तो सुबह भी न हुई मगर ध्यान सोशल साइट्स पर ही होना। आख़िर किसी बहाने से फ़ोन उठा लेना। सोशल साइट्स को देखना और अल सुबह हताश हो जाना कि वहां कोई ख़ुशी की ख़बर नहीं है। ये भयानक है। लेकिन इसे लगातार बरदाश्त किया जा रहा है। सोचिये हमारे पास कितना ज्ञान है। कुछ साथ नहीं चलता  तो सोशल साइट्स पर क्या इकट्ठा कर रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए दूसरे पर निर्भर न रहो  तो सोशल साइट्स में क्या खोज रहे हो।

प्यार में कभी-कभी

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ये डव है। वही चिड़िया जो बर्फीले देशों में सफ़ेद रंग की होती है। पहाड़ी और जंगल वाले इलाकों में हरे नीले रंग की होती है। मैदानी भागों में धूसर और लाल मिट्टी के रंग की मिलती है। ये वैश्विक शांति का प्रतीक है। ईसाई लोग इसे आत्मा और परमात्मा के मिलन की शांति का प्रतीक भी मानते हैं। मुंह में जैतून की टहनी लिए उड़ती हुई डव को विश्व भर में शांति कपोत के रूप में स्वीकारा गया है। रेगिस्तान में इसे कमेड़ी कहा जाता है। उर्दू फारसी वाले इसे फ़ाख्ता कहते हैं। इसके बोलने से रेगिस्तान के लोग चिढ़ रखते हैं। असल में इसके बोलने से ऐसा लगता है कि जैसे कह रही हो। "हूँ कूं कूं" हिन्दी में इसे आप समझिए कि ये कह रही होती हैं "मैं कहूँ क्या?" जैसे कोई राज़ फ़ाश करने वाली है। जैसे कोई कड़वी बात कहने वाली है। लोग इसे घर की मुंडेर से उड़ा देते हैं। इसके बोलने को अपशकुन माना जाता है। रेगिस्तान की स्थानीय बोली में इसे होली या होलकी कहते हैं। यहाँ दो तरह की कमेड़ी दिखती है। एक भूरे-लाल रंग की दूजी धूसर-बालुई रंग की। मैंने यहाँ कभी सफ़ेद कमेड़ी नहीं देखी। कल दोपहर लंच के लिए घर ज

इसके आगे क्या कह सकता था

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हरियल तोते लौट आये। उनकी टीव टीव की पुकार हर वृक्ष पर थी। जाळ पर लगे कच्चे पीलू तोड़ती उनकी लाल चोंच दिखाई दी। वे टीव टीव की पुकार लगाकर जाळ की शाखाओं से लटके हुए कुछ कुतरने लगे। मैं हरी पत्तियों से लदे वृक्ष में कभी-कभी दिखती लाल चोंच में खो गया। सुघड़ चोंच तीखी थी। किसी कटर के लॉक जैसी। मेरे निचले होंठ को अपने चोंच में दबाये हुए सहन हो सकने जितना ज़ोर लगाया। चोंच खुल गयी वह मेरे गाल को छू रही थी। मैं किसी रूमानी तड़प में उसे बाहों में भींच लेता मगर मैंने अपनी जीभ होंठ के भीतर घुमाई। क्या कोई यहां था? कोई न था। तोते पेड़ पर फुदक रहे थे। शाम हो चुकी थी। दफ़्तर से दिन की पाली वाले लोग जा चुके थे। मैंने लोहे की बैंच पर बैठे हुए चारों ओर देखा। तन्हाई थी। उस तन्हाई को देखकर यकीन आया कि जब मुझे काट लेने का ख़याल था। उस समय मेरे चेहरे पर अगर कोई चौंक आई तो उसे किसी ने नहीं देखा। शायद मैं चौंका भी नहीं था। एक समय बाद रूमान पर वे बातें हावी हो जाती हैं, जिनसे सम्बन्ध खत्म हुए थे। वनलता जिस तरह पेड़ों को ढ़ककर उनसे रोशनी छीन लेती है। उसी तरह कुछ उदास बातें स्याह चादर बनकर रूमान

बाखळ

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ढाणी की बाड़ के अंदर का कुदरती अनिर्मित खुला भाग बाखळ कहा जाता है। गांव से उठकर छोटे क़स्बों में आकर रहने पर अक्सर बाखळ पीछे छूट जाती है। एक बन्द घर जीवन हो जाता है। ये हमारे घर की बाखळ है। इसमें जो आपको दिख रहा है, वह सब हमको रिफिल करता है। जीवन से जोड़ता है। इसके लिए हमें बहुत नहीं करना पड़ता। बहुत थोड़ा करने पर बहुत सारा मिल जाता है। हमारे घर मे घटी है। जिसे दो पाट वाली चाकी कहा जाता है। माँ उस पर कभी मूँग, मोठ जैसी दालें, कभी अजवायन जैसे मसाले पीसती हैं। लेकिन अब एक बिजली से चलने वाली छोटी चक्की भी घर में आ गयी है। उस पर गेंहूँ और बाजरा पीसा जाता है। जब घर पर ही पिसाई होती तो साबुत धान घर पर आता है। गेंहूँ और बाजरा से बहुत थोड़ा सा हिस्सा इन मिट्टी के कटोरों में डाल देते हैं। पक्षी इनको चुगते हैं। अपना गाना सुनाते हैं। हवाई उड़ान के करतब दिखाते हैं और आराम करने लगते हैं। तस्वीर में एक कटोरे में आपको गिलहरी दिख रही होगी। इस कटोरे में इन दिनों पार्टी होने जैसा माल मिलता है। आभा अक्सर तरबूज, खरबूज, देशी ककड़ी और बीजों वाले फल जब भी लाती है। बीजों को सहेजती हुए कहती है- &