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Showing posts from February, 2019

सामूहिक उद्विग्नता - मास हिस्टीरिया

उद्विग्नता माने इज़्तराब माने एंजायटी अनेक कारणों से बचपन से ही हमारे भीतर घर कर लेती है। ये उद्विग्नता जब अनेक लोगों को चपेट में लेती है तो इसे सामूहिक उद्विग्नता अर्थात मास हिस्टीरिया कहा जाता है। सामूहिक उद्विग्नता अक्सर संक्रामक व्याधि की तरह समाज के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लेती है। समाज का अधिसंख्य हिस्सा अपनी कल्पना शक्ति से भयावह स्थितियों के दृश्य बुनने लगता है। ईश्वर के रूठने, प्रकृति के कुपित होने, महामारी फैलने या राज्य के नष्ट होने जैसे किसी भी विषय के सामूहिक पागलपन में शामिल हो जाता है। समाज का ये अस्वस्थ भाग ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पशु-पक्षियों की बलि यहाँ तक कि नरबलि देने को एकमत हो जाता है। पहाड़ों, नदियों और अलंघ्य विशालकाय मैदानों में अनेक शापों के होने का प्रचार-प्रसार करता है। अनेक आशंकाओं में बाहरी सम्पर्क को समाप्त करता है और भेड़ों के झुंड की तरह मुंह में मुंह डालकर बैठ जाता है। अपने राज्य को नष्ट होने से बचाने के लिए प्रशिक्षित और बुद्धिमान योद्धा बनकर राज्य का स्वयंसेवक होने के स्थान पर विक्षिप्त होकर चिल्लाने लगता है। अपनी क्षति पर रोता है और द

प्रेम दिवस पर एक दुआ

वो टाई बांधती है और खींच लेती है  ये कैसे वक़्त उसे प्यार की पड़ी हुई है। ~आमिर अमीर यूँ कब तक बेरोज़गार फिरोगे। दुआ कि तुम प्यार में पड़ जाओ। हर घड़ी कोई काम तो रहे कि सन्देशा आएगा, कॉल आएगा। मन घबराया रहे कि कोई मैसेज देख न ले, किसका कॉल है कोई पूछ न ले। घर के ओनेकोने में, दफ्तर के सूने गलियारों में कभी बाज़ार के बहाने किसी खाली जगह पर जाकर जल्दबाज़ी के कॉल करेंगे। बातों-बातों में तय कर लेंगे कि कभी मिलेंगे, चूम लेंगे, कहीं बहुत दूर तक घूमने जाएंगे। और फिर ख़ुश होंगे, इंतज़ार करेंगे, उदास रहेंगे, आंसू बहाएंगे, कोसने भेजेंगे। इस तरह कुछ बरस तेज़ी से कबाड़ किए जा सकेंगे। लेकिन ये सब बेकार न जाएगा। कभी दारू पी लेने पर कह उठेंगे "यार थी तो बड़ी बरबादी मगर अच्छी थी।" आमीन। 😍😘

सूचना सम्पन्न रेगिस्तान

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जैसलमेर में फतेहगढ़ में कोडा गांव से लौटते हुए झीझनियाली में ये वैन दिखी। इसमें एक बड़ा स्क्रीन लगा था। जब हमारी कार वैन के पास पहुंची तब स्क्रीन पर राजस्थानी वेशभूषा में कुछ लोग और खलिहान दिखाई दिए। वैन के आगे भारत के मन की बात लिखा था। इसे देखते ही मुझे फ़िल्म प्रभाग और दृश्य एवं श्रव्य प्रचार विभाग की ओर से अस्सी के दशक में दिखाई जाने वाली फ़िल्म याद आने लगी। एक जीप में कुछ लोग आते। प्रोजेक्टर लगता। सफेद पर्दा लगाया जाता। उस पर कोई देशभक्ति या विकास पर बनी फ़िल्म दिखाई जाती। हम बच्चे कौतूहल से उस दिन का इंतज़ार करते। लेकिन वह दिन बरसों में कभी आता। मैंने केवल दो फ़िल्म देखी थी। एक थी देव आनंद साहब की हम दोनों दूजी के बारे में ठीक से याद न रहा कि वह किस बारे में थी। अब हर हाथ में मोबाइल है। सस्ता साहित्य, द्विअर्थी गीत, मार-काट और प्राकृतिक आपदाओं के दृश्य सबकुछ यूट्यूब पर उपलब्ध है। फ़िल्म और टीवी सीरियल का तो कहना ही क्या? वे यूट्यूब पर नहीं तो किसी टोरेंट के मार्फ़त डाउनलोड होकर एक मोबाइल से दूजे मोबाइल में आगे बढ़ते रहते हैं। ऐसे में इस वैन को देखकर मेरे मन में प्रश्न ज

वेणासर की पाल - भंगभपंग

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विज्ञान की कक्षा में पदार्थ के रूप पढ़ाये जा रहे थे। रसायन विज्ञान के माड़सा खूबजी ने बच्चों को सरल भाषा में बताया। "अवीं हंगाता हिय ठोस, अवीं मूत्राता हिय द्रव हिन अवीं टिट हणाता हिय गैस।" #भंगभपंग - 7 कक्षा नौवीं की आख़िरी से पहली बैंच पर बैठा एक लड़का हंसा। उसकी हंसी के पीछे हंसी की एक लहर आई। लहर के साथ आगे की सब बैंचों के बच्चे बह गए। खूबजी ने कहा- "तुम्हारे लक्षण दिख रहे हैं। इस सेक्शन का एक भी बच्चा डॉक्टर नहीं बन पाएगा।" कक्षा के पास से जा रहे हनु भा ने इस हंसी पर उपेक्षा भरी दृष्टि डाली। उनको इस बात की चिंता न हुई कि कोई बच्चा डॉक्टर नहीं बन पाएगा और विद्यालय का नाम रोशन न हो सकेगा लेकिन उनको मानव शरीर के अपशिष्टों के प्रति विद्यार्थियों की अरुचि से दुख हुआ। टिट हणना एक अद्भुत सुखकारी कर्म है। पाद के प्रति अमानवीय सोच रखने वाले गांवों का ज़िक्र विश्व इतिहास में है। लेकिन बाड़मेर के बुजुर्ग पदेलों के लंबे पाद पर कोई नौजवान हंस दे तो पादक उसे उपहास भरी निगाह से देखता। साथ ही आस-पास के लोग भी बच्चों को इस तरह देखते कि बच्चे कई दिनों तक

जीवन जैसा मिला

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कभी महंगे काउच में धंसे रहे, कभी प्लेटफॉर्म पर पड़े रहे। न भला लगा न बुरा लगा। कभी सोए अजनबी बिस्तरों में, कभी घर के लिहाफ़ में दुबके रहे। न अफ़सोस रहा न ख़ुशी रही। कभी बैठे रहे मुंडेर पर, कभी गलियों की खाक पर चलते रहे। न कमतर लगा न बेहतर लगा। कभी मिले तो खो गए रूमान में, कभी बिछड़ गए तो तन्हा बैठे पीते रहे।  जीवन जैसा मिला उसे जी लिया।

व्हाट टू डू दादी

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मैंने दादी से कहा -"राउंड नेक टी और जीन्स में बहुत कम्फर्टेबल रहता हूँ पर दादी जब फॉर्मल कपड़े पहन लेता हूँ तब लगता है दिस इज अ पनिशमेंट। फिर मैं कोट कमीज़ को अलमीरा में टांग देता हूँ। ऐंड दादी व्हाट्स एप पर फोरवर्डेड मेटेरियल और जवाब न देने के बाद भी कमेंट्री की तरह आते मैसेज मुझे बहुत अनकम्फर्टेबल करते हैं। ये सब देखकर झुंझलाहट होने लगती है।" और फिर एक लंबी सांस लेकर कहा- "व्हाट टू डू दादी"  दादी ने कहा- "टेक इट ईजी। एक्सपेक्ट ट्रबल एज एन इनऐविटेबल पार्ट ऑफ लाइफ एंड पीसफुली इग्नोर देम।"  "मुझे अच्छा नहीं लगता दादी। प्लीज़ समझो।" मैंने उदास लहज़े और डूबी आवाज़ में कहा।  दादी ने गाल पर हाथ फेरा और कहा- "इंयों मोलो के पड़े है। ऐड़ो ने मूंडे ई मति लगा। आगा बळण दे।" "ऐंड दादी यू नो? फेसबुक में कमेंट पर थ्रेड चलाने वाले भी झाऊ चूहे हैं।"  "मीन्स हेज हॉग?" मैंने कहा- "हाँ दादी कांटों वाले चूहे" * * *

कभी लगता है

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सोचता हूँ कि इस समय गहरी नदी के बीच हिचकोले खाती नाव होता। डूबने और पार उतरने की आशंका और आशा में खोया रहता। जीने की इच्छा के सिवा बाकी यादें कहीं पीछे छूट जाती। मैं मगर सूखी नदी के तट पर पड़ी एक जर्जर नाव हूँ। कभी लगता है बड़ी उदास बात है और कभी-कभी लगता है इससे अधिक सुंदर बात क्या हो सकती है?