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Showing posts from 2012

जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहां से दूर

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मैंने फेसबुक पर अपनी प्रोफ़ाइल पिक्चर बदल ली है मगर ये शोक और विरोध का प्रतीक काला डॉट नहीं है। इस शर्मसार कर देने वाले अमानुषिक कार्य की भर्त्सना करता हूँ लेकिन मैं काला डॉट नहीं लगाना चाहता हूँ। ऐसा न करने के पीछे कुछ कारण हैं। सबसे पहला कारण है कि मैं बाहरी लक्षणों की जगह मूल व्याधि के उपचार का पक्षधर हूँ। मैं चाहता हूँ कि ज्वर पीड़ित समाज के तापमान को कम किया जाना चाहिए लेकिन उससे भी आवश्यक कार्य है कि ज्वर के कारणों की पहचान कर उनका उचित उपचार किया जाए। समाज की संरचना और उसके चरित्र को बुनने वाले कारकों पर गहन दृष्टिपात किया जाए। चिंताजनक स्थिति में ठहरा हुआ हमारा ये समाज शारीरिक और मानसिक रूप से रुग्ण हो चुका है। इस स्थिति से घबराकर, भयभीत होकर और अनिष्ट की आशंकों से घिर कर हम चिल्ला रहे हैं। इस सामाजिक स्थिति के जो कारण हम गिना रहे हैं, वे इसके वास्तविक कारण नहीं है। इस स्थिति के संभावित उपचार भी वे नहीं है जिनकी हम मांग कर रहे हैं।  आपकी स्मृति में अब तक यह ठीक से होगा कि जब तक सरकारी विध्यालय नहीं थे, हम पोशालों में पढ़ा करते थे। ये पोशालें क़स्बों, गांवों और गलियों मे

क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना

हाय !! ये क्या हाल हुआ? मैं फिर से उसकी सूरत के सम्मोहन में खो गया। इसी साल मार्च में उस पर पहली बार ध्यान गया था। उसके गले में एक चोकोर ताबीज़ बंधा था। चाँदी का चमकता हुआ वह ताबीज़ हल्के सलेटी कुर्ते के रंग को बेहतरीन कंट्रास दे रहा था। उसकी भोंहें धनुष जैसी, दाँत सफ़ेद और रंग गोरा। उसे देखते हुये कल अचानक से याद आया कि हाँ ये वही है। साल भर पहले भी मैं इसी सूरत में खोया हुआ था कि वही लंबा, दुबला और आकर्षक बदन। मैंने कई कहानियाँ सोची कि कच्छ के पास पसरी हुई नमक से भरी चमकीली धरती पर इसका साया कैसा दिखाई देता होगा। इसके कंधे पर रखा हुआ लाल और काले चेक का बड़ा सा स्कार्फ अगर किसी के गालों को छू जाए तो कैसा लगेगा। काश कि मैं इसके पास बैठूँ और कहूँ कि तुम सबसे सुंदर हो। मुझे प्रिय हो और वह डर कर भाग जाए और मैं प्रणय निवेदन गाते हुये पीछा कर सकूँ। मैं खो ही जाऊँ इसे खोजते हुये। पिछले साल के इस क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना सच एक बड़ा सितम ही है। मैंने रिकॉर्ड करते समय सोचा कि मैं इसका नाम न पूछूंगा कि मेरा क्रश जाता रहेगा। इस तरह जान पहचान बढ्ने से आकर्षण की मृत्यु हो जाएगी।

साहेब, इंडिया ले चलो

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"जब आप मीरपुर खास के भिटाई कस्बे में पहुंचेंगे तो चौराहे के ठीक बीच में एक तम्बूरा आपका स्वागत करेगा। तंबूरे की विशाल प्रतिमा वाली इस जगह का नाम भी तम्बूरा चौराहा है।" मुझसे ऐसा कहते हुये संगीत के साधक नरसिंह बाकोलिया के चेहरे पर तंबूरे की विशाल प्रतिमा से भी बड़ा सुख उतर आया।  "मैं मई में पाकिस्तान गया था। शंभू नाथ जी के साथ पंद्रह दिन मीरपुर खास के क़स्बों में उनके शिष्यों की आवभगत में रहने के बाद एक शाम संगीत की बात चल पड़ी। ठीक उसी शाम से उन महफिलों का दौर शुरू हुआ जिनमें भाषा और सियासत की सरहदों के निशान भूल गए। अगले पंद्रह दिन मेरा मिलना ऐसे लाजवाब संगीतकारों और रसिकों से हुआ कि मुझे दिन और रात छोटे जान पड़ने लगे। वे गरीब लोग हैं। मगर बहुत सम्मान देते हैं। इतना सम्मान मैंने कभी अपने घर आए प्रिय से प्रिय को न दिया होगा। उनका जीवन बहुत कठिन है। वहाँ अब भी बरसों पुराने घरों जैसे घर हैं। वैसी ही रेत उड़ती है। वैसे ही घरों में साग छोंके जाने की खुशबू आती है। उनका पहनावा मगर अलग है कि वे सलवार कुर्ता और सर पर टोपी पहनते हैं। किसी काम में डूबे हुये आदमी

वाह वाह गुज़रा फ़कीरां दा...

तुम ठीक हो, मैं खराब हूँ। मगर गफूर ख़ान मांगणियार और जमील ख़ान की आवाज़ में कुछ सुनोगे? कुछ सूफ़ी.... जैसा मुझ कमअक्ल को समझ आता है, वैसा अर्थ कर दिया है। इस दुनिया ने दिखावे में दाढ़ी को सफ़ेद कर लिया है और पराया माल खाने वालों को सब्जी भी मीठी लगती है। न कभी मंदिर मस्जिद गया, न ही कभी कब्र का अंधेरा देखा, बुल्ले शाह कहता है तुझे उस दिन मालूम होगा जब मुंह पर (कब्र की) मिट्टी गिरेगी। ज्ञान की हजारों किताबें खूब पढ़ी, अपने आपको कभी पढ़ा ही नहीं। दौड़ दौड़ के मंदिर और मस्जिद गया मगर ख़ुद के मन में घुस कर कभी देखा ही नहीं। इस तरह लड़ता है शैतान से आदमी, यूं कभी खुद से तो लड़ा ही नहीं। बुल्लेशाह कहता है आसमान कब पकड़ में आया है कि मन में बसे हुये को छूकर देखा ही नहीं किया। प्रिय हो प्रिय का सम्मान भी हो, वहीं मित्रता निभाने का सुख भी हो मित्रता निभाने वाली ऐसी जगहों पर ही पीर और फरीद बसते हैं। वाह वाह हम फ़कीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना वाह वाह हम अमीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना कि हम कभी मांग मांग कर रोटियों के टुकड़े खाते हैं, कभी हम अमीरों का भोज करते हैं कभ

के वतन बदर हों हम तुम

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मनुष्य की बुद्धि में एक दौड़ बैठी हुई है। वह हरदम इसी में बना रहता है। दौड़ने का विषय और लोभ कुछ भी हो सकता है। इस दुनिया की श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करने की इस दौड़ में दौड़ते हुये को देख कर हर कोई मुसकुराता है। उसकी मुस्कुराहट इसलिए है कि वह दौड़ रहे आदमी के अज्ञान पर एक अफसोस भरी निगाह डाल लेता है। अगर कोई धन के लिए दौड़ रहा है तो दूसरा आदमी सोचता है कि इसके साथ धन कहाँ तक चलेगा। अगर कोई यश की कामना लिए दौड़ रहा है तो विद्वान आदमी सोचता है कि यश एक अस्थायी चीज़ है। एक दिन इसका साथ छोड़ जाएगी। जो आदमी ज्ञान के लिए लगा है उसे देखते हुये कोई आलसी सोचता है कि इसने आराम तो किया ही नहीं ऐसे ही पढ़ते हुये खप जाएगा। इस तरह के अनिश्चित परिणाम वाली एक दौड़ हम सबके भीतर जारी रहती है। हम सब उसके सही या गलत होने के बारे में कोई खास यकीन नहीं ला सकते है। मगर मुझे जब कोई इस तरह दौड़ते हुये रोक लेता है तब थोड़ी झल्लाहट के बाद मैं सुकून पाने लगता हूँ। परसों रेलवे क्रॉसिंग के पास रोक लिया गया। मुझसे पहले भी बहुत सारे लोग खड़े थे। मैं पुराने शहरों की संकरी गलियों में रास्ता खोजते जाने के अ

आबूझ राजा राज करे...

ख़ुशगवार मौसम। धूप ज़रा सख्त लेकिन छांव सर्द अहसास लिए हुये। भुट्टा खाँ के कानों में सोने के गोखरू चमकते हैं। मुझे देख कर मुसकुराते हुये अपने कानों को छूते हैं फिर अपने गले पर ऐसे हाथ फेरते हैं जैसे ख़ुद के गले को प्यार कर रहे हों। इशारा ये था कि आज आवाज़ ने धोखा दे रखा है। मैं इशारे से कहता हूँ कि आप फ़नकार हैं आवाज़ को पकड़ लाएँगे, जहां भी होगी। वे फिर मुसकुराते हैं। कल सुबह मैं एक अनचाहा ख्वाब देख कर जागा था। आज के इस वक़्त भी मैं कुछ भूल जाने जैसी कोशिश में था। लेकिन जो अनिश्चय था वह मुझे बरगला रहा था। मुझे नहीं मालूम कि मैं क्या चाहता था और क्या नहीं? दोपहर के तीन बजे थे। दफ़्तर का काम अपनी लय में डूबा था और मैं अपने ख़यालों की दुनिया में खोया हुआ था। एक डे-ड्रीमर के पास दो दुनिया होती है। उसका निष्क्रमण जारी रहता है। मुझे कुछ चाहिए था। एक सर्द से स्टूडियो में शीशे के उस पार से कोई गरम गुनगुना स्वर आया। मुझे पहला अंतरा सुनते ही लगा कि दवा मिल गयी है। ये इस बेवजह की उदासी को छांट देगी। रेकॉर्ड होते ही मैंने टॉक बैक पर अपनी तर्जनी अंगुली रखी- "आप बहुत खूब गाते हैं। आपने म

दफ़अतन शैतान की प्रेमिका का आना

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शैतान ने कई दिनों तक चाहा कि एक तमीजदार आदमी होने की जगह वह सब कुछ भूल जाए। वे सारे शुबहा जो उसे अक्सर रोकते थे मगर वह एक शैतान होने कि ज़िद में उन सब को किनारे करता हुआ रात की बाहों में सर्द अंगारे रख कर सो जाया करता था। उन सब बेतरतीब मगर ख़ूबसूरत रातों में एक हसीन दोशीजा के होने का अहसास साथ बना रहता था। हालांकि उसने कई बार इस बात पर शक़ जाहिर किया था कि तुम नहीं हो मगर उधर से आवाज़ आती कि मैं हूँ।  आज सुबह होने से पहले के पहर में एक ख्वाब देखा। ख्वाब क्या कहिए कि वह पहली नज़र में किसी हसरत की छाया सा कुछ था। याद के पहले हिस्से में जो बचा हुआ है उसमें लंबे पलंग पर शैतान की प्रेमिका अधलेटी थी। पेंट करने के लिए दो प्याले रखे थे। शैतान उन दो प्यालों में भरे हुये एक ही रंग को देख कर हैरान हो गया। उसने चाहा कि इस बात का खुलासा हो सके इसलिए शैतान की प्रेमिका को अपने हाथ में पकड़ी हुई कूची से कुछ रंग केनवास पर उतारने चाहिए। लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उसके चहरे पर एक अजब उदासी का रंग था। यह कोई सलेटी जैसा रंग था। शैतान को याद आया कि क्या उसका प्रिय रंग सलेटी है?  शैतान की प्रेमिका

गोली मार दो, क्या रखा है?

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दोपहर होने तक फरेब से भरे इश्क़ की दास्तां के पहले तीस पन्ने पढे थे। एक गहरी टिंग की आवाज़ आई। फोन की रिंग ऐसे ही बजती है। किसी निर्विकार, निर्लिप्त और संवेदनहीन हरकारे की आवाज़ की तरह। रिंग दोबारा बजने के बीच भी एक लंबा अंतराल लेती है। मैंने रज़ाई से दाहिना हाथ ज़रा सा बाहर निकाल कर बिस्तर को टटोला कि फोन कहाँ रखा है। दोस्त का फोन था। फोन पर हुई लंबी बातचीत में भरपूर गोता लगा आने के बावजूद कहानी जहां छूट गयी थी मैं वहीं पर अटका हुआ था।  चार बजे एक अखबार के दफ्तर में बैठा था।  अखबार वाले मुझे एक हज़ार शब्द लिखने के एवज़ में ढाई सौ रुपये देते हैं। मुझे ये न्यूनतम मजदूरी से भी कई गुना नीचे का मामला लगता है। लेकिन इस अखबार के लिए मैं इन चंद रुपयों के लिए नहीं लिखता हूँ। ये दिनेश जोशी का कहा हुआ है, इसलिए लिखता हूँ। "अहा ज़िंदगी" वालों ने एक कवर स्टोरी लिखने के दो हज़ार रुपये दिये थे। मैंने उस चेक को केश करा लिया मगर उस मित्र को खूब सुनाया, जिसने ये स्टोरी मेरी रज़ा के खिलाफ़ मुझसे ही सिर्फ दो दिन में लिखवाई थी। इतनी बड़ी पत्रिका को चार हज़ार शब्दों का मोल आठ आने प्रत

वो एक तस्वीर थी

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एक श्वेत श्याम स्थिर छवि।  वह गायक इसी लम्हे को जीने के लिए क़ैद कर लिया गया था। मगर वह जा चुका था। उसकी आवाज़ का कौमार्य शेष रह गया था। बार बार आलिंगन में बांध लेने और आवाज़ के होठों पर बोसे दिये जाने के लिए। आवाज़ की खनक से उदासी बुनने के हुनर के कारण कई लोगों ने खिड़की के बाहर देखते कितनी ही शामें बुझा दी होंगी। मुझे आवाज़ की भाषा की रेशमी तारबंदी के पार जाने का मन हुआ। ज़रूरी नहीं था कि पश्चिम के संगीत से ही बड़े खाली कमरों वाले घर की रात को भरा जा सकता हो, उदासी से। मैंने एक कमायचा के उस्ताद की छवि को उसी जगह रखा दिया। आवाज़ फिर भी वैसी ही थी। मन के गहरे से आती कोई पुकार। प्रेम करने का अनुरोध। कोई बिना ज़ुबान के बोलता हुआ कि आओ मेरे बदन को अपनी बाहों में भर लो। मुझे भिगो डालो। अजगर की तरह कस लो उस लम्हे तक के लिए जब तक कि भीतर की सारी हसरतों और दुखो का चूरा न हो जाए।  वो श्वेत श्याम छवि एक मरे हुये आदमी की थी। वो आवाज़ नहीं थी, संगीत का एक टुकड़ा था, वह एक खूबसूरत दुख था, सफ़ेद काला रंग था।  वो आवाज़ कुछ नहीं थी। एक नन्ही लड़की को चूम लेने या फिर उसे ऐसे ही जाने द

न आओगे मगर सुना है

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जिनके हिस्से में ज़िंदगी बची रहती है, उनके हिस्से में रात भी आ जाया करती है। और रात के ग्यारह भी बजा करते होंगे अगर वे गुज़र न रहे हों किसी के ख़याल से। मैंने कल की रात सर्द रातों की आमद की खुशी में ओढ़ ली थी एक नए गिलाफ़ वाली रज़ाई जैसे किसी त्योहार पर घर में आते हैं नए कपड़े और दर्जियों की अंगुलियों की खुशबू के साथ चली आती है, खोये हुये घरवालों की भीनी याद। कल की रात दायें पाँव के नीचे दबा हुआ रज़ाई का एक सिरा चुभता रहा कुछ देर ऐसे जैसे कि शाम हुये घर आया हूँ और कोई याद का टुकड़ा आ बैठा है किसी असमतल भूगोल की तरह। सिर्फ दुखों की काली परछाई से नहीं बनी होती कोई रात  और हर सुबह नहीं खिलती किसी अविश्वसनीय उम्मीद की तरह  फिर भी हर तरह की शिकायतों और बेसलीका उदासियों के बीच  मैंने किसी मौसमी चिड़िया की तरह पाया है, तेरी याद को।    जिस तरह कई साल बीत गए हैं यूं ही उसी तरह मैंने कर दिया एकतरफ रज़ाई का किनारा, मगर सो न सका कि दीवार पर हथेलियाँ रखता हुआ कोई आता रहा करीब अंधेरे में और मैं बेढब रास्ते में चलते हुये हर बार गिरता रहा, चौंक कर खुलती रही नींद। 

निर्मल रेत की चादर पर

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किताबें बड़ी दिल फरेब चीज़ होती हैं। मैं जब भी किसी किताब को अपने घर ले आता हूँ तब लगता है कि लेखक की आत्मा का कोई टुकड़ा उठा लाया हूँ। परसों राजस्थान शिक्षक संघ शेखावत के प्रांतीय अधिवेशन के पहले दिन चौधरी हरलाल शोध संस्थान के प्रांगण में तने हुये एक बड़े शामियाने में जलसे का आगाज़ था। मुझे इसे सम्मेलन में एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था मगर मैं अपनी खुशी से वहाँ था कि मेरे पापा ने सदैव शिक्षकों के हितों के लिए लड़ाई लड़ी है। इस आयोजन स्थल पर बोधि प्रकाशन की ओर से पुस्तक प्रदर्शनी भी लगी थी। मुझे दूर से ही किताबें दिख गयी। जिन्होंने कभी किताब को हथेली में थामा होगा वे जानते हैं कि इनकी खशबू क्या होती है। आज कल मेरे कंधे पर एक भूरे रंग का स्कूल थैला लटका रहता है। इस थैले को मानू या दुशु में से किसी ने रिटायर किया हुआ है। मेरे पापा भी ऐसा ही करते थे। वे हम भाईयों की रिटायर की हुई चीजों को खूब काम मे लेते हुये दिख जाते थे। मैं सोचता था कि पापा कितने कंजूस है। अपने लिए एक नयी चीज़ नहीं खरीद सकते। लेकिन अब समझ आता है कि ऐसी चीजों में अपने बच्चों की खुशबू साथ चलती रहती

तुम्हारा नाम, किसी तितली की तरह

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उस वक़्त कायदे से सुबह जा चुकी थी मगर रात भर न सो पाने की खुमारी में कोई उम्मीद कह रही थी कि वह इसी गली से गुज़रेगा। आपको रुलाने के बाद जाने कौन कितनी दूर से चल कर आता है। कितने ही वायदे और उम्मीदें खत्म कर के... मगर नहीं आता कुछ भी सब्र की तरह सब कुछ आता है ख़लिश की तरह मैंने हवा में बनाया एक सुंदर किला उसमें बनाया एक जालीदार झरोखा तुम्हारे नाम का उसी तरफ छोड़ दिया तीर, एक गुलाबी पन्ने के साथ। इस मुश्किल जिंदगी में आसान हैं सिर्फ रूमानी ख़याल। * * * मैं रोता रहा चार दिन और तीन रात तक हालात के सिपहसालार बने रहे पत्थर की मूरतें अदने से कारिंदे भी भीग न सके, आंसुओं की गीली आवाज़ से इससे ज्यादा उदास करने वाली कोई बात नहीं बीती, मेरे साथ। * * * मेरी जान, तुम्हें हर हाल में सोचना चाहिए उन दिनों के बारे में, जो रोज़ खो जाते हैं, पश्चिम में कि अभी तक मेरी मुट्ठी में बचा हुआ है, तुम्हारा नाम, किसी तितली की तरह मगर मैं रहूँगा कब तक। * * *

रात का एक बजा है

भविष्यवाणी के अनुसार रुक गए बाज़ीगर के हाथ गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ़ हवा में स्थिर हो गयी काले और सफ़ेद रंग की गेंदे। समय की परिधि के किसी कोने पर वक़्त के हिसाब से रात का एक बजा था। इस ठहरे हुये ऐंद्रजाल में पाँवों ने पहनी पुरानी चप्पल अंगुलियों ने अंधेरे में अलमारी से हटाये जाले। आँखों ने शब्दकोश से झाड़ी धूल दिमाग ने पढे प्रेम, चुंबन, आलिंगन के अर्थ। दिल धड़कता रहा कि विस्मृति की धूल में ढक जाने तक के लिए उसके नाम का पहला अक्षर परिधि के पास से गुज़र रहा है, बार बार। रात का एक बजा है, जाने कब तक के लिए। * * *

किसी हादसे की तरह

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सड़क से ज़रा दूर ढलान में पड़ी हुई एक बरबाद गाड़ी के ठीक बीच में उग आए कंटीले झाड़ बख्तरबंद लोहा हो गया जंगल का हिस्सा। कोई चला गया किसी हादसे की तरह उगते रहे सन्नाटे के बूटे, याद के कोमल कांटे उदासी के आलम ने रंग लिया, अपने रंग में। * * * वक़्त का लम्हा भूल गया उस रिश्ते की मरम्मत करना। एक ने मुड़ कर नहीं देखा, दूसरे ने आवाज़ नहीं दी। इसलिए सफ़र के अनगिनत रास्ते हैं कि कोई भी जा सकता है किधर भी, वादा सिर्फ दिल के टूटने तक का है। रिश्तों की रफ़ूगरी भी कोई अच्छा काम है क्या? 

जीने के लिए

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वे दोनों भाग सकते हैं उन दीवारों से दूर, जिन पर उन्होने कभी खुशी खुशी लिखा था कि रात के ग्यारह बजे हैं और ये दीवार एक "टाइट हग" की गवाह है। मगर लिखा हुआ हमेशा उनका पीछा करता रहता है। वे दोनों पर्याप्त नहीं थे एक दूसरे के लिए कि वे अक्सर ख़ुद के लिए भी कम पड़ जाते थे। जैसे चाहते थे कि प्यार कर सकें बहुत देर तक मगर कोई और आ जाता था दोनों के बीच पारदर्शी दीवार की तरह। वे दोनों हो सकते थे ख़ुद से नाराज़ मगर पर्याप्त वजहें नहीं थीं। उन्होने कई बार अलग अलग अपने प्रेमियों से कहा और सुना था कि तनहाई बहुत है और काश तुम हो सकते यहाँ, मुझे समेट लेते अपनी बाहों में।  वे दोनों सप्ताहांत की रातें अपने दोस्तों के साथ बिताने के बाद अपने ओरबिट में लौट आते और उनकी भाषा बदल जाती थी। जिस शिद्दत से वे सप्ताहांत का इंतज़ार किया करते थे उसी शिद्दत से कहते थे, आह आपसे बात न हो सकी दो दिन।  वे दोनों डरते थे इस बात से कि अलग होने का कहते ही दूसरा कहेगा कि आह मैंने सोचा तुम मुझसे ज्यादा प्यार करते थे। हालांकि वे दोनों जा सकते थे एक दूसरे से दूर बाखुशी...  वे दोनों एक बुरी स्मृति की तरह ज

कहाँ है वो माफ़ीनामा

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एक कपूर की गोली थी। पिछली सर्दियों की किसी शाम अचानक उसकी खुशबू आई। किसी पैरहन से छिटकी होगी या किसी सन्दूक के नीचे से लुढ़क कर मेरे पास आ गयी हो। उसका रंग सफ़ेद था। इतना सफ़ेद कि उसे ज़माना सदियों से कपूरी सफ़ेद कहता था। उसका चेहरा चाँद जैसा गोल था, ठीक चाँद जैसा। मैं कई बार खो जाता था कि उसकी आँखें कहाँ और सफ़ेद होठ कहाँ पर हैं। उसके गोल चहरे पर कुछ लटें कभी आ ठहरती होगी बेसबब, ऐसा मैं सोचा करता था। उसकी हंसी में घुल जाती होंगी बंद कमरे की उदासियाँ ये खयाल भी कभी कभी आ जाता था। एक शाम ऐसे ही छत पर बैठा शराब पी रहा था कि अचानक से कोई तीखा अहसास जीभ के एक किनारे पर ज़रा देर ठहर कर चला गया। मुझे लगा कि उसके मुंह में कोई चोर दांत है, जिसने काट लिया है प्यार से। ये मगर एक बेहद कोरा चिट्टा खयाल था जैसा कि उसका रंग था। वो जो एक कपूर की गोली थी। ऐसे ही एक बार मैंने किसी चीज़ को अलमारी से उतारने के लिए हाथ ऊपर किए तो वही खुशबू चारों और बिखर गयी। कपूर की खुशबू। दिल्ली गया था। शहर के बीच एक खूबसूरत जगह पर साफ सुथरे कमरे में शाम होने को थी कि मैंने अपना स्वेटर बाहर निकाला। इसलिए नहीं

एक लंबी और बेवजह की बात : हमारी दिल्ली

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मैंने यूं ही कहानियाँ लिखनी शुरू की थी। जैसे बच्चे मिट्टी के घर बनाया करते हैं। ये बहुत पुरानी बात नहीं है। साल दो हज़ार आठ बीतने को था कि ब्लॉग के बारे में मालूम हुआ। पहली ही नज़र में लगा कि ये एक बेहतर डायरी है जिसे नेट के उपभोक्ताओं के साथ साझा किया जा सकता है। मुझे इसी माध्यम में संजय व्यास मिल गए। बचपन के मित्र हैं। घूम फिर कर हम दोनों आकाशवाणी में ही पिछले पंद्रह सालों से एक साथ थे। बस उसी दिन तय कर लिया कि इस माध्यम का उपयोग करके देखते हैं। हर महीने कहानी लिखी। कहानियाँ पढ़ कर नए दोस्त बनते गए। उन्होने पसंद किया और कहा कि लिखते जाओ, इंतज़ार है। कहानियों पर बहुत सारी रेखांकित पंक्तियाँ भी लौट कर आई। कुछ कच्ची चीज़ें थी, कुछ गेप्स थे, कुछ का कथ्य ही गायब था। मैंने मित्रों की रोशनी में कहानियों को फिर से देखा। मैंने चार साल तक इंतज़ार किया। इंतज़ार करने की वजह थी कि मैं समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं से प्रेम न कर सका हूँ। इसलिए कि मैं लेखक नहीं हूँ। मुझे पढ़ने में कभी रुचि नहीं रही कि मैं आरामपसंद हूँ। मैं एक डे-ड्रीमर हूँ। जिसने काम नहीं किया बस ख्वाब देखे। खुली आँखों के ख्वाब

सब अँधेरों के एकांत से परे

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अचानक से हवा का एक ठंडा झौंका आया है। खिड़कियाँ जाने कितने ही दिनों से खुली हुई थीं। एक दोस्त ने कहा था कि तुम जानते नहीं तक़दीर के बारे में कुछ। वह अपनी सहूलियत और सीढ़ियाँ खुद चुनती है, मगर तक़दीर है बहुत अच्छी... उसने रचा यकीन का स्वयंवर और बुलाये कई योग्य प्रतिभागी कोई हार गया ये सब देख कर। *** खरगोश ने किया था उसे प्यार सब रोशनियों के बीच सब अँधेरों के एकांत से परे बतख ने कहा, तुम गुनहगार हो, नेक्स्ट... *** इसके बाद नहीं सोचा उसने कुछ भी कि डार्टबोर्ड के ठीक बीच वाले घेरे में लगा सकेगा कोई निशाना उसने हाथ छोड़ कर कहा, अब लगाओ निशाना। *** मगर फिर भी जादूगर लड़की मुस्कुराती है खता खरगोश की है, कि उसी ने चाहा है। ***

पत्थर के दरीचों से

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काले बुर्के वाली ख़वातीन ने पीछे से आवाज़ दी – “एक मिनट” उनको मेरा एक मिनट नहीं चाहिए था। वे हम दो भाइयों के बीच जगह बनाना चाहती थी। मैंने सोचा कि वे ऐसा भी कहा सकती थी कि थोड़ी सी जगह दीजिये। भाषा का ये कैसा सुंदर उपयोग है कि हम समय की इकाई का उपयोग नाप की इकाई की जगह बखूबी कर लेते हैं। विधान सभा भवन के ठीक सामने सौ मीटर के फासले पर मेला लगा हुआ है। यह मेला मध्यम वर्ग की कम कीमत में अधिक चीज़ें पा लेने की लालसा का बेजोड़ प्रतीक है। मेले में प्रदर्शित चीजों की नुमाईश के लिए टिकट है। हर कोई बड़ी शालीनता से पूरे दाम चुका कर मेले में सलीके से प्रवेश कर रहा था। ये वही लोग थे, जो अक्सर नियम कायदों में चलाने जीने पर नाक भौं सिकोड़ते रहते होंगे।  मेले में हर स्टाल पर सेल्स गर्ल थीं। उनके चेहरे खास तरह के पाउडर से पुते हुये थे। उनके होठों पर एक समान लाल रंग की गहरी लिपस्टिक थी। पलकों पर गहरे सलेटी रंग का मसकारा था। उनके दांत साफ थे और होठों की लंबाई कई किलोमीटर के दायरे में फैली हुई थी, जिनको वे सप्रयत्न इकट्ठा करने के काम में लगी हुई थीं। वे शक्ल, रंग रूप और पहनावे से एक खास तरह का स

बेख़बरी है कि मेरी रुसवाई

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शाम फैली हुई है। गहरी, इतनी गहरी की रात का धोखा होता है। कोई सागर था सूख गया। कुछ चट्टानें और रेत बची रह गयी। जैसे किसी के जाने के बाद बची रह जाती है स्मृतियाँ। ऐसे ही बचे हुये एक पहाड़ पर रोशनी है। एक हरे रंग की झाईं उतरती हुई इस छत तक दिखाई देती है। मुझे ख़याल आता है कि उस चोटी पर बने मंदिर में माँ जोगमाया... बाढ़ाणे शहर को अपनी गोद में बसाये हुये मुस्कुरा रही होगी।  रेगिस्तान में सदियों से आंधियों का सामना करते हुये और पानी की दुआ मांगते हुये इन्सानों ने एक औरत से ही पाया होगा जीवन जीने का हौसला। जब भी आदमी की नज़र थक कर बिछ गयी होगी धरती की देह पर, उस औरत ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर फिर से खड़ा कर दिया होगा। तुम आदमी हो, जाओ लड़ो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।  अहसान फ़रामोश आदमी ने इतनी बेटियाँ मारी कि पचास सालों तक गाँव में कोई बारात न आई।  ***  एक लड़के ने कहा कि देखो मैं तुम्हारे सफ़ेद फूलों के बीच एक लाल गुलाब खिलाना चाहता हूँ। इसलिए कि तुम्हारे सब फूलों का रंग वक़्त के साथ सफ़ेद हो गया है। उसने कहा। हाँ खिलाओ, लाल गुलाब। लड़के ने एक कांटे से उसकी पीठ पर बनाना शुरू

तुम भी कब तक

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रात के ग्यारह बजे हैं और आखिर उसने छोड़ दिया है इरादा एक और करवट लेने का। एक टुक देखे जाती है छत के पार आसमान के सितारों को उसके पहलू में सोया है बेटा हरे बिस्तर पर खिले, रुई के कच्चे फूल की तरह। मैंने अभी अभी, कुर्सी पर बैठे बैठे फैला ली है अपनी टाँगे कुछ इस तरह जैसे फैली हो किसी याद की परछाई। आखिर जाम में घोल लेना चाहता हूँ रात की नमी में भीगे किसी पेड़ की ताज़ा खुशबू मगर कुछ दिहाड़ी के मजदूरों ने बुझा दी है, सोने से पहले की आखिरी बीड़ी। तुम भी कब तक लेटी रहोगी, बिना करवट लिए हुए मैं भी कब तक फैलाये रख सकूँगा याद की परछाई। * * * [Image courtesy : Manvika]

उम्र भर यूं ही...

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नीम के दो पेड़ों के आगे की दीवार पर फैली हुई बोगेनवेलिया की टहनियों पर खिल रहे, रानी और गुलाबी रंग के फूलों पर शाम आहिस्ता से उतर रही होगी. मैंने स्टूडियो के भीतर टेप लाईब्रेरी में बैठे हुए सोचा. कोने वाली खिड़की से रौशनी की एक लकीर मेग्नेटिक टेप्स की कतार को छू रही थी. वहीं कुछ ततैये ऐसी की ठंडक के कारण आराम कर रहे थे. आहिस्ता से रौशनी की लकीर गायब हो गयी. ततैयों ने अपना पीला रंग कृष्ण को समर्पित कर दिया. मैं मगर एक घूम सकने वाली कुर्सी पर बैठा हुआ सोचता रहा कि जो शाम आई थी, वह चली गयी है.  आपको वक़्त नहीं है मुझसे बात करने का... सेल फोन पर दर्ज़ इस शिकायत को पढ़ कर आँखें बंद कर ली. अट्ठारह साल तक अलग अलग शहरों में रेडियो के एक जैसे दफ्तरों में ज़िन्दगी के टुकड़े टूट कर गिरते गए हैं.   मैंने अपनी जेब में एक हाथ रखे हुए कुर्सी को ज़रा और झुका कर सामने रखे ग्रामोफोन रिकोर्ड्स की तरफ देखते हुए चाहा कि काश कोई आये और नीचे से तीसरे कॉलम का पहला रिकार्ड प्ले कर दे. कोई आया नहीं बस एक साया सा लाईब्रेरी के दरवाज़े में लगे कांच के छोटे से टुकड़े के भीतर झांक कर आगे बढ़ गया.  * * *

यही रोज़गार बचा है मेरे पास

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मेरे कंधे पर शाम की छतरी से टूट कर दफ़अतन गिरा एक लम्हा था। एक चादर थी, चाँद के नूर की और उसकी याद का एक टुकड़ा था। मैं उलटता रहा इंतज़ार की रेतघड़ी। रात के बारह बजे उसने कहा ये मुहब्बत एक जंगल है और तुम एक भी पत्ती नहीं तोड़ सकते। नहीं ले जा सकते अपने साथ कुछ भी... याद ने खाली नहीं किया बेकिराया घर मैं उम्मीद की छत पर टहलता ही रहा। पड़ोस की छतों पर बच्चे सो गए केले के छिलकों की तरह रात का कोई पंछी उड़ रहा था तनहा।   मेरे सेलफोन के स्क्रीन पर चमकते रहे थे चार मुकम्मल टावर जैसे किसी कॉफिन के किनारे लगे हुए पीतल के टुकड़े। और एक वहम था आस पास कि किसी को आना है। *** पाप की इस दुनिया में दुखों की छड़ी से हांकते हुए ईश्वर ने लोगों से चाहा कि सब मिल कर गायें उसके लिए। शैतान ने अपना अगला जाम भरते हुए देखा कि ईश्वर की आँखें, उससे मिलती जुलती हैं *** तुम ख़ुशी से भरे थे कोई धड़कता हुआ सा था तुम दुःख से भरे थे कोई था बैठा हुआ चुप सा. *** सब कुछ उसी के बारे में है चाय के पतीले में उठती हुई भाप बच्चों के कपड़ों पर लगी मिट्टी अँगुलियों में उलझा हुआ धागा खिड़क

आभा का घर

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मुझे बहुत सारे बच्चे याद आते हैं। अपनी मम्मा की साड़ी, ओढ़ना, चुन्नी और बेड कवर जैसी चीजों से घर बनाने का हुनर रखने वाले बच्चे। वे सब अपने घर के भीतर किसी कोने में, सोफे के पास, छत पर या जहाँ भी जगह मिलती, घर बनाने में जुट जाते। वे वहीं सुकून पाते। वे सब बच्चे एक बड़े से बिस्तर पर इस बात के लिए लड़ते कि देखो दीदी ने मेरे पैर को छू लिया। भैया से कहो अपना हाथ हटाये। दूर सरक कर सो ना, यहाँ जगह ही नहीं है। वे ही बच्चे अपने बनाये हुए घर में घुटनों को मोड़े हुए ख़ुशी से चिपके रहते हैं।  मैंने उन बच्चों को देखा लेकिन कभी सोचा नहीं कि एक घर बनाया जाना जरुरी है। पापा ने चार बेडरूम का दो मंजिला घर बना रखा है। यह एक पुराना घर है मगर इसमें कोई तकलीफ़ नहीं है। इसमें बीते सालों की बहुत सारी खुशबू है, बहुत सारी स्मृतियाँ हैं खट्टे मीठे दिनों की, इसमें हमारे गुम हुए बचपन की परछाई है. हम सब इस घर में सुकून पाते हैं।  आभा मुझसे बेहतर है, वह हर हाल में खुश और सलीके से रहने का तरीका जानती है। उसने कभी कहा ही नहीं और मैंने कभी सोचा ही नहीं कि घर बनाना चाहिए। ज़िंदगी का अप्रत्याशित होना कितना अच

तुम्हारे लिए

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तुम्हारे लिए  एक खुशी है  फिर एक अफसोस भी है  कि कोई लगता है गले और  एक पल में बिछड़ जाता है।  खिड़की में रखे  सलेटी रंग के गुलदानों में  आने वाले मौसम के पहले फूलों सी  इक शक्ल बनती है, मिट जाती है।  ना उसके आने का ठिकाना  ना उसके जाने की आहट  एक सपना खिलने से पहले  मेरी आँखें छूकर सिमट जाता है।  कल रात से  मन मचल मचल उठता है,  ज़रा उदास, ज़रा बेक़रार सा कि ये कौन है  जो लगता है गले और बिछड़ जाता है।  एक ख़ुशी है, फिर एक अफ़सोस भी है। * * * मैंने इंतज़ार की फसलों के कई मौसम गुज़रते हुये देखे हैं। उदासी के सिट्टों पर उड़ती आवाज़ की नन्ही चिड़ियाओं से कहा। यहीं रख जाओ सारा इंतज़ार, सब तरफ बिखरी हुई चीज़ें अच्छी नहीं दिखती।  उसी इंतज़ार की ढ़ेरी पर बैठे हुये लिखी अनेक चिट्ठियाँ। उसने चिट्ठियों पर बैठे शब्दों को झाड़ा और उड़ा दिया खिड़की से बाहर। मैंने दुआ की उसके लिए कि कभी न हो ऐसा कि वह ढूँढता फिरे उन्हीं शब्दों की पनाह।  

फिर से आना जरुरी है

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एक छोटे से जीवन में कितने तो लोग आते हैं और जाने कितना कुछ टूटता बिखरता जाता है। किसी भी नुकसान की भरपाई कभी नहीं होती। कुछ नुकसान तस्वीरों की शक्ल में पड़े रहते हैं किताबों के बीच या बंद दराज़ों में, बाकी सब दिल की टूटी फूटी दीवारों पर, गीली भीगी आँखों में। कुछ लोग किसी दुआ की तरह आते हैं और फिर हवा के झौंके की तरह चले जाते हैं। हमारे साथ फिर भी सारी दुआएं चलती ही रहती हैं, बरगद की छाँव जैसे शामियाने की तरह। दुःख बनाये रहते हैं दुआओं के बरगद की जड़ों में अपनी बाम्बी कि ज़िंदगी कभी भी दोनों तरफ़ से एक जैसी नहीं हुआ करती है। कुछ जो जीवन में आते हैं अचरज और हैरत की तरह, वे ज़िंदगी के मर्तबान से चुरा ले जाते हैं सारे अहसास, बचा रहता है उदासी से भरा हुआ तलछट, सूना और बेरंग। बस ऐसे ही हो जाते हैं सब दिन रात। कोई करता रहता है इंतज़ार कि उन गए हुये लोगों के लिए एक दावत कर सके। मगर ये ख़्वाहिश कभी नहीं होती पूरी कि उसके लिए उनका फिर से आना ज़रूरी है। हैरत और अचरज की तरह। 

शगुफ्ता शगुफ्ता बहाने तेरे

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मु झे लंबी छुट्टी चाहिए कि मैं बहुत सारा प्रेम करना चाहता हूँ। मैंने सुकून के दिन खो दिये हैं। मैंने शायद लिखने के आनंद को लिखने के बोझ में तब्दील कर लिया है। मैं किसी शांत जगह जाना चाहता हूँ। ऐसी जगह जहां कोई काम न हो। जहां पड़ा रहूँ बेसबब। शाम हो तो कभी किसी खुली बार में बीयर के केन्स खाली करता जाऊँ या फिर कभी नीम अंधेरी जगह पर विस्की के अच्छे कॉकटेल मेरे सामने रखे हों। कभी न खत्म होने वाली विस्की... सपने में आई उस सुंदर स्त्री के केश खुले हुए थे और वे दोनों कंधों के आगे पीछे बिखरे हुए थे. ऐसा लगता था कि उन केशों को इसी तरह रहने के लिए बनाया हुआ था. सपने में उस स्त्री का कोई नाम नहीं था. उसके बारे में बात करने के लिए मान लेते हैं कि उसका नाम गुलजान था.    जब उसकी चीखने जैसी आवाज़ सुनी तब मैं स्नानघर में नहा चुका था या शायद नहाने की तैयारी में था. वह आवाज़ हमारे सोने वाले कमरे से आई थी. मैंने तुरंत स्नानघर का दरवाज़ा खोला और एक तोलिया लपेटे हुए कमरे की तरफ आया. जिस जगह पर खड़ी होकर आभा साड़ी बांधती हैं. उसी जगह, उसी अलमारी की तरफ मुंह किये हुए गुलजान खड़ी थी. उसके पास ही