December 27, 2012

जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहां से दूर

मैंने फेसबुक पर अपनी प्रोफ़ाइल पिक्चर बदल ली है मगर ये शोक और विरोध का प्रतीक काला डॉट नहीं है। इस शर्मसार कर देने वाले अमानुषिक कार्य की भर्त्सना करता हूँ लेकिन मैं काला डॉट नहीं लगाना चाहता हूँ। ऐसा न करने के पीछे कुछ कारण हैं। सबसे पहला कारण है कि मैं बाहरी लक्षणों की जगह मूल व्याधि के उपचार का पक्षधर हूँ। मैं चाहता हूँ कि ज्वर पीड़ित समाज के तापमान को कम किया जाना चाहिए लेकिन उससे भी आवश्यक कार्य है कि ज्वर के कारणों की पहचान कर उनका उचित उपचार किया जाए। समाज की संरचना और उसके चरित्र को बुनने वाले कारकों पर गहन दृष्टिपात किया जाए। चिंताजनक स्थिति में ठहरा हुआ हमारा ये समाज शारीरिक और मानसिक रूप से रुग्ण हो चुका है। इस स्थिति से घबराकर, भयभीत होकर और अनिष्ट की आशंकों से घिर कर हम चिल्ला रहे हैं। इस सामाजिक स्थिति के जो कारण हम गिना रहे हैं, वे इसके वास्तविक कारण नहीं है। इस स्थिति के संभावित उपचार भी वे नहीं है जिनकी हम मांग कर रहे हैं। 

आपकी स्मृति में अब तक यह ठीक से होगा कि जब तक सरकारी विध्यालय नहीं थे, हम पोशालों में पढ़ा करते थे। ये पोशालें क़स्बों, गांवों और गलियों में किसी एक अध्यापक द्वारा संचालित हुआ करती थी, संस्कार,चरित्र और विध्या के सम्मान से भरी हुई। उन दिनों ये भी कहा जाता था कि किस पोशाल का पढ़ा हुआ है यानी इसकी शिक्षा और चरित्र का स्तर क्या है। शिक्षा एक कारगर उपस्करण है। ऐसा माना जाता है कि शिक्षा के अभाव में मनुष्य निरा पशु समान है। वह अज्ञानी, समाज के लिए केवल अनुपयोगी ही नहीं वरन एक खतरा भी है। इसका एक अभिप्राय यह भी है कि शिक्षित करके मनुष्य को संवारा जा सकता है। उसका अपने लिए उपयोग भी किया जा सकता है। जैसे किसी पाने से गाड़ी का पहिया कस कर यात्रा को सरल किया जा सकता है वैसे ही उसी पाने से खोल कर पहिया चुराया भी जा सकता है। अर्थात उपस्करणों का उपयोग दिशा बदल सकता है। संभव है कि इसीलिए अंग्रेजों में भारत में मिशनरीज़ स्कूलों की स्थापना करके उनका एक तंत्र विकसित किया। इस बात को हम सरलता से समझ सकते हैं कि ऐसा करने के पीछे कोई उद्धेश्य अवश्य रहा होगा। अकारण तो हम कोई काज नहीं करते हैं। हिन्दू, मुस्लिम और बौद्ध विश्वविध्यालयों की अवधारणा के पीछे अगर कोई पवित्र दृष्टिकोण रहा भी हो तो भी यह एक धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक समरसता वाले राष्ट्र की नीव में सीलन ही है। मैं अपनी बात को इस मार्ग पर नहीं ले जाना चाहता हूँ। मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि आखिर आज क्यों गली गली में निजी शिक्षण संस्थानों का बोल बाला है। अंग्रेज़, मिशनरिज के माध्यम से अपने लिए कुछ चाहते थे तो आज के दौर में हम इन संस्थानों से क्या चाहते हैं? इस तथ्य को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। 

सरकारी शिक्षण संस्थाओं को बलहीन करने का काम अस्सी के दशक से शुरू हुआ। नब्बे के दशक में यह अपने चरम पर पहुँच गया। उच्च शिक्षा के लिए विध्यालय में की गई पढ़ाई और उससे प्राप्त अंकों को कचरा पात्र में डाल दिया गया। जिस शिक्षक को वर्षपर्यंत किसी बालक बालिका को संवारते जाना और इसके पश्चात अपने परिणाम को देखना, एक सुखद और आत्मा को प्रसन्न कर देने वाला कार्य हुआ करता था। हमने किसी षड्यंत्र के तहत उस शिक्षक से ये सुख छीन लिया है। उसके हाथ में एक क्ंठित बलहीन चाक थमा दी। हमने शिक्षक के पढ़ाये हुये को किसी भी रूप में उच्च शिक्षा अथवा रोज़गार के अवसर प्रदान करने वाला मानने से मनाही कर दी। हमने एक नई प्रतियोगिता का आविष्कार किया है, जिसने हमें बताया कि स्कूल में प्राप्त अंकों का आपके भविष्य के किसी आयाम से कोई संबंध नहीं है। अर्थात स्कूल में पढ़ना समय और धन का अपव्यय है। एक अच्छा इंजीनियर और चिकित्सक बनने के लिए या किसी भी सामाजिक विधा में कुशल होने की डिग्री लेने के लिए विध्यालयों की कोई भूमिका नहीं है। शिक्षा के इन संस्थानों को भेड़चाल सीखने की पोशालें बना दिया गया है। इसके बाद शिक्षकों से इतनी ही आशा रखी जाने लगी है कि ये प्रतियोगिता में बैठ पाने का प्रमाणपत्र जारी कर सकें। जिससे आत्म गौरव छीन लिया गया हो, आप उस शिक्षक की मनोदशा को समझ सकते हैं? क्या आपको अनुमान है कि उस शिक्षक-शिक्षिका का क्या हाल होगा जिसे परिणामहीन शिक्षा देने का दायित्व देकर आशा की जाती है कि वह अपना श्रेष्ठ आपके द्वारा संचालित इस समाज को सौपता जाए।

राज्य अपने दायित्व से मुक्त होने के लिए निजीकरण का सहारा लेता है। क्या शिक्षा इतना बड़ा बोझ है कि राज्य इस दायित्व को वहन करने में असमर्थ है। सुदूर गांवों से लेकर शहरों के विध्यालयों में कार्यरत  प्रशिक्षित, कुशल और श्रेष्ठ शिक्षकों से विध्यार्थी छीन लिए गए हैं। गेहूं को निजी संस्थानों में जाने को प्रेरित कर दिया गया और घुन को सरकारी विध्यालयों के हवाले। अच्छे प्रतिभावन बालक बालिकाओं के सामने एक डर रख दिया गया कि जो सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ेगा वही सबसे अच्छा पद पाएगा। इसके लिए विध्यालयों में वर्गभेद का आधार तैयार कर लिया गया है। माता पिताओं ने भी इसी डर को स्वीकार कर लिया और अपने सामर्थ्य से आगे बढ़ कर इसी दौड़ का हिस्सा होना अच्छा जाना। अब शिक्षा इस तरह दो फाड़ हो गयी कि एक तरफ लूट और माल बनाने का व्यवसाय करने वाली दुनिया के लिए आवश्यक प्रतिभाएं गढ़ी जाने लगी हैं और दूसरी तरफ भुखमरी और रोज़गार से वंचित निम्न स्तर का मजदूर वर्ग। यह अनायास नहीं हुआ है। सत्ता में बैठे हुये लोग अदूरदर्शी और विवेकहीन नहीं हो सकते हैं फिर क्या बात है? क्या ऐसे कारण है कि ज्ञान और चरित्र देने वाली संस्थाओं को निजी हाथों में सौप दिया गया है। क्या कारण है कि पढे लिखे और श्रेष्ठता से आधार पर विध्यालयों में चयनित शिक्षकों को खाली कमरे और सूने खेल मैदान दिये गए हैं। आखिर ये कैसी बिसात है? 

मैं शोकाकुल हूँ और काला डॉट लगाना चाहता हूँ मगर मैं ऐसा शिक्षा के निजीकरण के विरोध में करना चाहता हूँ। जो हमारे समाज के भविष्य को एक गहरी खाई में धकेलता जा रहा है। मैं उस शिक्षा के अभाव के लिए लगाना चाहता हूँ जिसने ऐसे कुंठित, बलात्कारी और हत्यारे मस्तिष्क तैयार किये हैं। जब तक आर्थिक और सामाजिक असमानता की पोषक इस शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाकर समरूपता को नहीं बुना जाएगा तब तक चरित्र निर्माण, कानून का सम्मान और राष्ट्रीयता की भावना के बीज अंकुरित नहीं होंगे। समाज के इस हाल और दुख व अफसोस से भरे हुये नौजवानों के प्रदर्शन को देखते सुनते हुये फ़ानी बदायुनी साहब का एक शेर ज़ुबान पर आकार ठहर गया है। "जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहां से दूर, इस आपकी ज़मीं से अलग, आसमां से दूर" 
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[Image courtesy : Thehindu]

December 17, 2012

क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना

हाय !! ये क्या हाल हुआ? मैं फिर से उसकी सूरत के सम्मोहन में खो गया। इसी साल मार्च में उस पर पहली बार ध्यान गया था। उसके गले में एक चोकोर ताबीज़ बंधा था। चाँदी का चमकता हुआ वह ताबीज़ हल्के सलेटी कुर्ते के रंग को बेहतरीन कंट्रास दे रहा था। उसकी भोंहें धनुष जैसी, दाँत सफ़ेद और रंग गोरा। उसे देखते हुये कल अचानक से याद आया कि हाँ ये वही है। साल भर पहले भी मैं इसी सूरत में खोया हुआ था कि वही लंबा, दुबला और आकर्षक बदन।

मैंने कई कहानियाँ सोची कि कच्छ के पास पसरी हुई नमक से भरी चमकीली धरती पर इसका साया कैसा दिखाई देता होगा। इसके कंधे पर रखा हुआ लाल और काले चेक का बड़ा सा स्कार्फ अगर किसी के गालों को छू जाए तो कैसा लगेगा। काश कि मैं इसके पास बैठूँ और कहूँ कि तुम सबसे सुंदर हो। मुझे प्रिय हो और वह डर कर भाग जाए और मैं प्रणय निवेदन गाते हुये पीछा कर सकूँ। मैं खो ही जाऊँ इसे खोजते हुये।

पिछले साल के इस क्रश का फिर से मुझ पर टूट पड़ना सच एक बड़ा सितम ही है। मैंने रिकॉर्ड करते समय सोचा कि मैं इसका नाम न पूछूंगा कि मेरा क्रश जाता रहेगा। इस तरह जान पहचान बढ्ने से आकर्षण की मृत्यु हो जाएगी। नजदीकी से चाहना का सुख चला जाएगा। लेकिन आखिर उन सबको शीशे के पार इस तरफ मेरे पास आना ही था। मैंने अगले कुछ और महीने तक खुद को इसी हाल में फंसाए हुये नहीं रखना चाहा। पूछ लिया- "आपका नाम क्या है?" उसने कहा- "हबीब ख़ान..." आप बहुत सुंदर गाते हैं। मैं उसे देख रहा था। उसके सिर के बाल बीच से सँवारे हुये थे और वे किसी सुंदर काले पक्षी के पंखों की तरह पीछे जा रहे थे।

उसकी आवाज़ सुनोगे? पहली आवाज़ असकर ख़ान साहब की है ऊंची आवाज़ उनकी पार्टी के दूसरे मेम्बर की है जबकि बीच वाली मीठी आवाज़ हबीब की है।
पागड़ियों रा पेच रे भंवर म्हाने ढीला ढीला लागे रे
किण जी रे आगे शीशड़लो निवायो, ओ हठीला रैण कठे गुमाई रे

आंखड़ियों रो सुरमों भंवर सा फीको फीको लागे रे
किण जी रे आगल नैनड़ला झुकाया रे, ओ हठीला रैण कठे गुमाई रे

मैं तो म्हारी गोरा दे रे, सासु रा जंवाई रे
सासू आगल नैनड़ला झुकाया रे बादीला रैण कठे गंवाई रे

दांतों री बतरिसी भंवर सा फीकी फीकी लागे रे
किण जी रे आगल, हंसने बतायो रे, बादीला रैण कठे गंवाई रे

आपकी पगड़ी के पेच ढीले लग रहे हैं, ओ प्रिय किसके आगे सिर नवा कर आए हो, रात कहाँ खोकर आए हो। आँखों का सुरमा भी फीका फीका लग रहा है, ये आँखें किस के आगे झुका कर आए हो। मैं तो मेरी गोरी का और मेरी सासू का जंवाई हूँ, सासू के आगे ही शीश नवाया है फिर ये आपके दांतों की बत्तीसी का भी रंग फीका फीका क्यों है कह दो किस को अपनी हंसी दिखा कर आए हो ये रात कहाँ बिता कर आए हो।


December 16, 2012

साहेब, इंडिया ले चलो


"जब आप मीरपुर खास के भिटाई कस्बे में पहुंचेंगे तो चौराहे के ठीक बीच में एक तम्बूरा आपका स्वागत करेगा। तंबूरे की विशाल प्रतिमा वाली इस जगह का नाम भी तम्बूरा चौराहा है।" मुझसे ऐसा कहते हुये संगीत के साधक नरसिंह बाकोलिया के चेहरे पर तंबूरे की विशाल प्रतिमा से भी बड़ा सुख उतर आया। 

"मैं मई में पाकिस्तान गया था। शंभू नाथ जी के साथ पंद्रह दिन मीरपुर खास के क़स्बों में उनके शिष्यों की आवभगत में रहने के बाद एक शाम संगीत की बात चल पड़ी। ठीक उसी शाम से उन महफिलों का दौर शुरू हुआ जिनमें भाषा और सियासत की सरहदों के निशान भूल गए। अगले पंद्रह दिन मेरा मिलना ऐसे लाजवाब संगीतकारों और रसिकों से हुआ कि मुझे दिन और रात छोटे जान पड़ने लगे। वे गरीब लोग हैं। मगर बहुत सम्मान देते हैं। इतना सम्मान मैंने कभी अपने घर आए प्रिय से प्रिय को न दिया होगा। उनका जीवन बहुत कठिन है। वहाँ अब भी बरसों पुराने घरों जैसे घर हैं। वैसी ही रेत उड़ती है। वैसे ही घरों में साग छोंके जाने की खुशबू आती है। उनका पहनावा मगर अलग है कि वे सलवार कुर्ता और सर पर टोपी पहनते हैं।

किसी काम में डूबे हुये आदमी या औरत को इंडिया नाम किसी ज़ुबान से सुनाई दे जाए तो सब कुछ भूल कर उसी तरफ चल पड़ते हैं जहां से इंडिया नाम की आवाज़ आई थी। मेरा कोई परिचय करवाता कि ये इंडिया से आए हैं तो सब मुझे आँखों में भर लेने और जिस मुनासिब तरीके से प्यार का इजहार किया जा सके उसी में लग जाते। मेरी आँखें भर आती। मैं सोचने लगता कि आदमी के दुख और उसकी उम्मीदें किस तरह हिलोरें मारती रहती है। मैं हर दोपहर और रात को किसी के घर संगीत महफिल में होता। गरीबों की लंबी कतारों में कुछ एक रईस लोगों के इक्के दुक्के घर भी हैं मगर जो प्यार मिलता है उसमें रत्ती राई का भी अंतर नहीं आता।

पंडित तारचंद, भिटाई कस्बे में रहते हैं। सत्तर साल की उम्र के ये शख्स उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ साहब के शिष्य हैं। संगीत में ही उम्र गुज़ार दी है। आपने शास्त्रीय संगीत की गायिकी के उन पहलुओं और सलीकों को ज़िंदा रखे हुये हैं जिनके बारे में हम कभी ख़याल भी नहीं कर सकते हैं। तारचंद जी ने मेरे साथ मिल कर अपनी गायिकी से रातों को सुबहों में बदल दिया। उनको लोग पंडित तारचंद कहते हैं लेकिन पंडित जी ज़रा सा वक़्त मिलते ही बड़ी नाउम्मीदी से कहते हैं "नरसिंह, मुझे अपने साथ इंडिया ले चलो" उनकी आँखों में कोई खोयी हुई तस्वीर उतर आती है।

नब्बे साल की उम्र के गायक सोम जी भाटिया से भी मैं मिल सका। वे इस उम्र में भी पांचवे सुर पर गा लेते हैं। ऐसा गाना कि जैसे कोई तड़पती हुई आत्मा की पुकार हो। उनकी आवाज़ दबे कुचले गरीब हिंदुओं और मुसलमानों के घरों में उजाला और उम्मीद भरती हुई सब दिशाओं में कूच कर जाती है। वे बेइंतिहा खुश होते हैं इंडिया का नाम सुन कर। कहते हैं ज़िंदगी एक ही लिखी थी और उसके भी नब्बे साल ऐसी जगह चले गए हैं... फिर ज़रा रुक कर अपने बच्चों की ओर आँखें रखते हुये मुझसे कहते हैं। इंडिया ले चलो साहिब, जान वहीं छूटे तो सुकून हो। कच्चे पक्के घरों में ज़िंदगी अपने निचले पायदान पर मगर किसी उम्मीद का दामन थामे हुये चलती रहती है।
अमरकोट में साठ फीसद हिन्दू हैं। बड़ा जिला है। एक तरफ आमों के बाग हैं एक तरफ रेत के टीले। बाज़ार ऐसे जैसे किसी गाँव की हाट में आ गए हों। सड़कें, रास्ते और गलियाँ अब भी किसी पुराने जमाने की धूल को फाँकती हुई। मगर मैंने देखा कि कबीर के भजन हर घर में बजते हैं। कबीर को सुनना पाकिस्तान में भी सुकून की बात है। इतना ही नहीं वहाँ एक शफ़ी फ़कीर नाम के ख्यात गायक हैं, वे कबीर को गाते हैं और वह भी प्रहलाद सिंह टिप्पणिया और साथियों की कॉपी करते हुये, ठीक उसी अंदाज़ में।"

मैंने पूछा- कैसा है उन लोगों का जीवन? 
नरसिंह बाकोलिया के चहरे पर कोई खुशी न आई। उनका चेहरा अचानक से सघन उदासी से भर आया। जैसे कहना चाहते हों कि हम बड़े भाग्य वाले हैं जो इंडिया में पैदा हुये। हमने आज़ादी की साँसे ली। हमने जिंदगी को सुख से जीते हुये कबीर को याद किया। जबकि वे कबीर को गा रहे हैं किसी उम्मीद और किसी संतोष के लिए। मैंने कहा नरसिंह आप मेरे प्रिय गायक हैं। आज लोक संगीत की हमारी राजस्थानी भाषा को ज़रा भूल कर मेरे कुछ दोस्तों के लिए कबीर को गा दीजिये। 


December 14, 2012

वाह वाह गुज़रा फ़कीरां दा...

तुम ठीक हो, मैं खराब हूँ।
मगर गफूर ख़ान मांगणियार और जमील ख़ान की आवाज़ में कुछ सुनोगे?
कुछ सूफ़ी.... जैसा मुझ कमअक्ल को समझ आता है, वैसा अर्थ कर दिया है।

इस दुनिया ने दिखावे में दाढ़ी को सफ़ेद कर लिया है
और पराया माल खाने वालों को सब्जी भी मीठी लगती है।

न कभी मंदिर मस्जिद गया, न ही कभी कब्र का अंधेरा देखा,
बुल्ले शाह कहता है तुझे उस दिन मालूम होगा जब मुंह पर (कब्र की) मिट्टी गिरेगी।

ज्ञान की हजारों किताबें खूब पढ़ी, अपने आपको कभी पढ़ा ही नहीं।
दौड़ दौड़ के मंदिर और मस्जिद गया मगर ख़ुद के मन में घुस कर कभी देखा ही नहीं।

इस तरह लड़ता है शैतान से आदमी, यूं कभी खुद से तो लड़ा ही नहीं।
बुल्लेशाह कहता है आसमान कब पकड़ में आया है कि मन में बसे हुये को छूकर देखा ही नहीं किया।

प्रिय हो प्रिय का सम्मान भी हो, वहीं मित्रता निभाने का सुख भी हो
मित्रता निभाने वाली ऐसी जगहों पर ही पीर और फरीद बसते हैं।

वाह वाह हम फ़कीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना
वाह वाह हम अमीरों का ज़िंदगी को इस तरह बिताना
कि हम कभी मांग मांग कर रोटियों के टुकड़े खाते हैं, कभी हम अमीरों का भोज करते हैं
कभी हम सर पर छोटी पगड़ी बांधते हैं, कंधे पर दुशाला ओढ़ कर निकलते हैं, कभी हम लीर लीर कपड़ों में भी रह लेते हैं

वाह वाह गुज़रा फ़कीरां दा...

December 13, 2012

के वतन बदर हों हम तुम


मनुष्य की बुद्धि में एक दौड़ बैठी हुई है। वह हरदम इसी में बना रहता है। दौड़ने का विषय और लोभ कुछ भी हो सकता है। इस दुनिया की श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करने की इस दौड़ में दौड़ते हुये को देख कर हर कोई मुसकुराता है। उसकी मुस्कुराहट इसलिए है कि वह दौड़ रहे आदमी के अज्ञान पर एक अफसोस भरी निगाह डाल लेता है। अगर कोई धन के लिए दौड़ रहा है तो दूसरा आदमी सोचता है कि इसके साथ धन कहाँ तक चलेगा। अगर कोई यश की कामना लिए दौड़ रहा है तो विद्वान आदमी सोचता है कि यश एक अस्थायी चीज़ है। एक दिन इसका साथ छोड़ जाएगी। जो आदमी ज्ञान के लिए लगा है उसे देखते हुये कोई आलसी सोचता है कि इसने आराम तो किया ही नहीं ऐसे ही पढ़ते हुये खप जाएगा। इस तरह के अनिश्चित परिणाम वाली एक दौड़ हम सबके भीतर जारी रहती है। हम सब उसके सही या गलत होने के बारे में कोई खास यकीन नहीं ला सकते है। मगर मुझे जब कोई इस तरह दौड़ते हुये रोक लेता है तब थोड़ी झल्लाहट के बाद मैं सुकून पाने लगता हूँ।

परसों रेलवे क्रॉसिंग के पास रोक लिया गया। मुझसे पहले भी बहुत सारे लोग खड़े थे। मैं पुराने शहरों की संकरी गलियों में रास्ता खोजते जाने के अभ्यस्त जीव की तरह लंबी कतार के बीच से रास्ता बनाता हुआ रेलवे क्रॉसिंग के पास तक पहुँच गया। आगे आने में भी एक सुख होता है, आगे आने की ही दौड़ होती है। जहां मैं पहुंचा वहाँ सिर्फ इंतज़ार ही हाथ लगा। मैंने अपने आस पास खड़े लोगों को देखना शुरू किया। सोचा कि अगर कोई दूसरी दुनिया होती है और वहाँ जाने पर कोई हिसाब पूछा जाता है तो कह दूंगा साहब रेलवे क्रॉसिंग पर खड़ा हुआ लोगों को देख कर आया हूँ। मेरे आगे दो सायकिल सवार खड़े थे। एक सायकिल के कॅरियर के साथ सायकिल की नंबर प्लेट लगी थी। उस पर नंबर ऐसे लिखे हुये थे जैसे मशीन से चलने वाले वाहनों पर होते हैं। इसे देख आर चौंकना इसलिए हुआ कि जिन वाहनों पर सही नंबर प्लेट लिखी होनी चाहिए वहाँ लिखा होता है “मुझसे दोस्ती करोगी” जैसा कोई दिल फरेब इन्विटेशन या अपनी जाति, धर्म, पहचान या फिर उस महकमे का नाम जिसके मुलाज़िम हैं। नंबर प्लेट्स अपराध रोकने में कारगर भूमिका निभाती है लेकिन हम इसकी कद्र नहीं करते हैं। हम इसे प्रदर्शन की चीज़ बना देते हैं।

मेरे बचपन से ही रेल की पटरी साथ चल रही है। घर के पास से गुजरती है। रेल की आवाज़ ऐसे आती है जैसे कि पास वाले कमरे से होकर गयी है। स्कूल भी रेलवे का ही था। वहाँ तक जाने के लिए रेल की पटरी पर इंजन बन कर चलते हुये कई साल बिता दिये। रेल की पटरियों में फिशप्लेट या ऐसा ही कुछ कहा जाने वाला एक लोहे का टुकड़ा लगा होता है। यह रेल की पटरी को उसके आधार से कस कर रखने में काम आता है। मेरे मुहल्ले के कुछ बच्चे इस तरह के लोहे के टुकड़ों को निकाल कर कबाड़ी को बेच दिया करते थे। मैं उनकी इस हरकत का गवाह होने से भी डर जाता था कि अगर पापा ने देख लिया तो वे क्या हाल बना देंगे। वे इतिहास के शिक्षक थे और कठोर अनुशासन में यकीन रखते थे। मैं रेलवे क्रॉसिंग के पास खड़ा हुआ सोचने लगा कि उस दौर के माता पिताओं जितना सख्त कानून होना चाहिए ताकि हमारा भय राष्ट्र की उन्नति का कारक बन सके। तुलसी ने किस बात से प्रेरित होकर कहा होगा कि “भय बिनु प्रीत न होत गुसाईं” नहीं मालूम लेकिन अक्सर मुझे ये सच जान पड़ता है कि स्वछंद व्यक्ति अधिक कलाधर्मी तो हो सकता है मगर जिस तरह की समाज व्यवस्था में हम जी रहे हैं उसके लिए हानिकारक होगा।

देश और मिट्टी से प्रेम करने के लिए ऐसे छोटे छोटे कानून कायदों का सम्मान करना ही सबसे ज़रूरी बात है। लेकिन हम देश प्रेम को कोई बड़ी चीज़ समझ कर उस काम के आ पड़ने का इंतज़ार करते हैं। हम रेल की पटरी में लगी फिशप्लेट और गाड़ी के पीछे लिखे नंबर को मामूली जानते हैं और इसका संबंध राष्ट्र प्रेम से नहीं जोड़ पाते हैं। एक प्राचीन यूनानी कथा के अनुसार एंटीयस नामक एक महान योद्धा था। कहा जाता है कि वह समुद्र के देवता पोसेईडन और धरती की देवी गीया का पुत्र था। एंटीयस अपनी माँ से बहुत प्रेम करता था। उसने उसे जन्म दिया था, दूध पिलाया था और पाला पोसा था। दुनिया में ऐसा कोई वीर न था जो एंटियस को परास्त कर सके। उसकी शक्ति इस बात में थी कि जब भी वह मुसीबत में होता अपनी मिट्टी को छू लेता और इससे उसे नयी शक्ति मिल जाती। इस अजेय योद्धा के इस राज़ को हरक्युलिस ने जान लिया था। उसने एंटियस को ज़मीन से अलग कर हवा में उठाए रखा और हवा में ही गला दबा कर मार दिया। इस दंतकथा का अर्थ बहुत गंभीर है कि जिस वक़्त तक हम अपनी मिट्टी की क़द्र करते हैं वह हमें जीवन जीने की नयी ऊर्जा देती रहती है। इसी मिट्टी से प्रेम करना ही सच्चा देश प्रेम है। रेल की पटरी पर लगी फिशप्लेट्स और वाहनों की नंबर प्लेट तो मिट्टी से कहीं ज्यादा कीमती चीज़ें हैं। इन चीजों को हम भारतवासियों ने अपने श्रम से बनाया है। हमें इनकी क़द्र करनी चाहिए।

मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों है कि ये सायकिल वाला नंबर प्लेट लगाने से प्रेम करता है। यानि इसके पास मशीन से चलने वाला वाहन नहीं है तो भी इसने सायकिल के पीछे एक नंबर प्लेट टांग रखी है जबकि जहां ज़रूरी हैं वहाँ जो लिखा होना चाहिए उसके सिवा सब कुछ लिखा होता है। मुझे वे अध्यापक भी याद आए जिनके नाम लेने से भी सब बच्चे डर जाते रहे हैं। आज वैसा कानून क्यों नहीं है। इस नस्ल को जो तहज़ीब दी है वह किसने दी है? क्या ये हम ही लोग नहीं हैं जो अपनी आने वाली पीढ़ी को मौज का पाठ पढ़ा कर जा रहे हैं जबकि हम सब को सलीके और क़द्र से जीने का पाठ पढ़ाया गया था। हम किस दौड़ के चक्कर में लगे हैं और क्या भूलते जा रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन पड़ोसी हम पर हँसे कि देखो भारत देश के नागरिक किस रास्ते पर दौड़ते हुये कहाँ पहुँच गए हैं। हम अगर इसी हाल में जीते रहे तो हमें इस मुल्क में रहने का कभी हक़ नहीं होना चाहिए। फ़ैज़ ठीक कहते हैं कि “मेरे दिल मेरे मुसाफिर हुआ फिर से हुक्म सादिर, के वतन बदर हों हम तुम दें गली गली सदाएं”
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राजस्थान खोजख़बर : 13 दिसंबर 2012 

December 12, 2012

आबूझ राजा राज करे...

ख़ुशगवार मौसम। धूप ज़रा सख्त लेकिन छांव सर्द अहसास लिए हुये।

भुट्टा खाँ के कानों में सोने के गोखरू चमकते हैं। मुझे देख कर मुसकुराते हुये अपने कानों को छूते हैं फिर अपने गले पर ऐसे हाथ फेरते हैं जैसे ख़ुद के गले को प्यार कर रहे हों। इशारा ये था कि आज आवाज़ ने धोखा दे रखा है। मैं इशारे से कहता हूँ कि आप फ़नकार हैं आवाज़ को पकड़ लाएँगे, जहां भी होगी। वे फिर मुसकुराते हैं। कल सुबह मैं एक अनचाहा ख्वाब देख कर जागा था। आज के इस वक़्त भी मैं कुछ भूल जाने जैसी कोशिश में था। लेकिन जो अनिश्चय था वह मुझे बरगला रहा था। मुझे नहीं मालूम कि मैं क्या चाहता था और क्या नहीं?

दोपहर के तीन बजे थे। दफ़्तर का काम अपनी लय में डूबा था और मैं अपने ख़यालों की दुनिया में खोया हुआ था। एक डे-ड्रीमर के पास दो दुनिया होती है। उसका निष्क्रमण जारी रहता है। मुझे कुछ चाहिए था। एक सर्द से स्टूडियो में शीशे के उस पार से कोई गरम गुनगुना स्वर आया। मुझे पहला अंतरा सुनते ही लगा कि दवा मिल गयी है। ये इस बेवजह की उदासी को छांट देगी। रेकॉर्ड होते ही मैंने टॉक बैक पर अपनी तर्जनी अंगुली रखी- "आप बहुत खूब गाते हैं। आपने मुझमें गहन सुख भर दिया है" इतना ही कह सका और एक दूसरे को देखते हुये हम देर तक मुसकुराते रहे। लोक गायिकी में शुद्धता के लिए जगह नहीं है, यहाँ सिर्फ आनंद प्रिय है। निर्मल आनंद।

ये निर्गुण भजन का निकटतम सुख है। इसे इसलिए पोस्ट कर रहा हूँ कि शैतान को मालूम है कि इस दुनिया में हर कोई मिस फिट है। जिसे जहां होना चाहिए वह वहाँ नहीं होता है।

बंसी बजावत धेन चरावत रास रचावत न्यारों
राधा जी रो सांवरों सब सखियन रो प्यारो॥

आछी रे पांख बुगले ने दीनी, कोयल कर दीनी काली
करमन की गत न्यारी ऊदा भाई, करमन की गत न्यारी॥

छोटा रे नैण गजअस्ति ने दीना, ओ भूप करे असवारी
मोटा रे नैण मृग नो रे दीना भटकत फिरे दुखियारी॥

नागर बेल निर्फल भई, ओ तुम्बा पसारे पोह भारी
चुतुर नार पुतुर ने झुरके, ओ फूहड़ चिण चिण हारी॥

आबूझ राजा ओ राज करे, रैय्यत फिरे दुखियारी
के आशा भारती सुण रे वशिन्धर दूर कर ए गिरधारी॥

बंशी बजाता है, गायें चराता है और सबसे न्यारा रास रचाता है, ये राधा जी का सांवरा सब सखियों का प्यारा है। सफ़ेद पंख बगुले को दिये और कोयल कर दिया काला, ओ ऊधो करम का हिसाब बहुत अलग है। जिस गजराज की सवारी बड़े महाराज करते हैं उसे छोटी आँखें दी है जबकि बड़ी आँखों वाला हिरण दुखी होकर भटकता फिरता है। सुंदर शोभन बेल पर कोई फल ही नहीं लगता और कड़वे फल तूम्बे वाली बेल फैलती पसरती ही जाती है। बुद्धिमान स्त्री पुत्र की हसरत में जीती रहती है जबकि फूहड़ स्त्री जनम दे दे कर थक जाती है। अयोग्य राजा राज करते हैं और रियाया माने जनता दुखी होकर घूमती रहती है। आशा भारती कहते हैं सुन ओ बंसीवाले ये सब दूर कर दो गिरधारी।

मैं इसे कल से सुन रहा हूँ और आराम है। मेरे बारे में ज्यादा सोचना मत कि मैं ऐसा ही हूँ।

December 11, 2012

दफ़अतन शैतान की प्रेमिका का आना

शैतान ने कई दिनों तक चाहा कि एक तमीजदार आदमी होने की जगह वह सब कुछ भूल जाए। वे सारे शुबहा जो उसे अक्सर रोकते थे मगर वह एक शैतान होने कि ज़िद में उन सब को किनारे करता हुआ रात की बाहों में सर्द अंगारे रख कर सो जाया करता था। उन सब बेतरतीब मगर ख़ूबसूरत रातों में एक हसीन दोशीजा के होने का अहसास साथ बना रहता था। हालांकि उसने कई बार इस बात पर शक़ जाहिर किया था कि तुम नहीं हो मगर उधर से आवाज़ आती कि मैं हूँ। 

आज सुबह होने से पहले के पहर में एक ख्वाब देखा। ख्वाब क्या कहिए कि वह पहली नज़र में किसी हसरत की छाया सा कुछ था। याद के पहले हिस्से में जो बचा हुआ है उसमें लंबे पलंग पर शैतान की प्रेमिका अधलेटी थी। पेंट करने के लिए दो प्याले रखे थे। शैतान उन दो प्यालों में भरे हुये एक ही रंग को देख कर हैरान हो गया। उसने चाहा कि इस बात का खुलासा हो सके इसलिए शैतान की प्रेमिका को अपने हाथ में पकड़ी हुई कूची से कुछ रंग केनवास पर उतारने चाहिए। लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उसके चहरे पर एक अजब उदासी का रंग था। यह कोई सलेटी जैसा रंग था। शैतान को याद आया कि क्या उसका प्रिय रंग सलेटी है? 

शैतान की प्रेमिका ने एक निगाह डाल कर देखा कि वह यहाँ किस तरह पहुँच गयी है। उसकी अनमनी उदास आंखो को देख कर शैतान को ख़ुद पर गुस्सा आया कि उसने अपने मन की आवाज़ों को सुना क्यों नहीं? शैतान ने उससे कहा कि प्रेम कोई वस्तु नहीं है। इस बात पर शैतान की प्रेमिका शायद किसी और के बारे में सोचने लगी। शैतान ने उसे अपने ज़रा अधिक पास करते हुये उसके गाल चूम लिए मगर वे गाल भी उदास थे। ऐसे उदास जैसे किसी खोये हुये बच्चे के होते हैं। शैतान ने दोनों प्यालों को अपने हाथों में लिया और कहा- इनमें भरा हुआ रंग हम दोनों के बीच का है। शैतान की प्रेमिका ने कहा- मैंने तुमसे कभी प्यार नहीं किया। शैतान प्रेम करने के लिए नहीं होते हैं। 

ख्वाब में करवट बदलते हुये शैतान ने पाया कि सुबह होने को है और मेरी प्रेमिका को जाना ही होगा। सर्द दिनों की इस सुबह में पसीने से भरा हुआ शैतान बिस्तर पर बैठा हुआ था। उसकी स्मृति के ख्वाब में प्रेमिका के वक्ष खुले थे मगर वह ख़ुद आत्मा तक नंगा हो चुका था। उसने घुटनों के बल बैठते हुये कहा- मैं कोई नहीं बस एक हसरत हूँ या तो बुझा दो या फिर जला दो मुझको.... शैतान की प्रेमिका किसी के खयाल में खोयी थी। उसके पास कुछ देने के लिए नहीं था। 

उसने एक बार के लिए उदास खाली पड़े केनवास, कूची और रंग के प्यालों की तरफ देखा। शैतान ने उसे ऐसा देखते हुये देखने के बाद ख़ुद को हज़ार लानतें भेजी कि वह आदम होने की चाह में अपनी शैतानियत भी भूल जाता है। अगले पल सोचने को कुछ न था जिसे टूट कर चाहा था वह ख्वाब में भी अजनबी और भटके हुये मुसाफ़िर की तरह मिला। 

शैतान ने ख़ुद से आखिरी सवाल पूछा कि वह मरता क्यों नहीं है। इसलिए कि शैतान मरने के लिए नहीं आया है भले ही वह अपने काम भूल कर करने लगा हो प्रेम। 
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ये तस्वीर बाड़मेर के रेलवे क्रॉसिंग के पास ली गयी है। इसमें एक साइकिल पर नंबर प्लेट लगी है। इसे देखते हुये बार बार कोई कह रहा था कि जहां जो चीज़ें होनी चाहिए वे अक्सर वहाँ होती नहीं है। वहाँ होती है जहां ज़रूरत नहीं होती, 

December 7, 2012

गोली मार दो, क्या रखा है?


दोपहर होने तक फरेब से भरे इश्क़ की दास्तां के पहले तीस पन्ने पढे थे। एक गहरी टिंग की आवाज़ आई। फोन की रिंग ऐसे ही बजती है। किसी निर्विकार, निर्लिप्त और संवेदनहीन हरकारे की आवाज़ की तरह। रिंग दोबारा बजने के बीच भी एक लंबा अंतराल लेती है। मैंने रज़ाई से दाहिना हाथ ज़रा सा बाहर निकाल कर बिस्तर को टटोला कि फोन कहाँ रखा है। दोस्त का फोन था। फोन पर हुई लंबी बातचीत में भरपूर गोता लगा आने के बावजूद कहानी जहां छूट गयी थी मैं वहीं पर अटका हुआ था। 

चार बजे एक अखबार के दफ्तर में बैठा था। 
अखबार वाले मुझे एक हज़ार शब्द लिखने के एवज़ में ढाई सौ रुपये देते हैं। मुझे ये न्यूनतम मजदूरी से भी कई गुना नीचे का मामला लगता है। लेकिन इस अखबार के लिए मैं इन चंद रुपयों के लिए नहीं लिखता हूँ। ये दिनेश जोशी का कहा हुआ है, इसलिए लिखता हूँ। "अहा ज़िंदगी" वालों ने एक कवर स्टोरी लिखने के दो हज़ार रुपये दिये थे। मैंने उस चेक को केश करा लिया मगर उस मित्र को खूब सुनाया, जिसने ये स्टोरी मेरी रज़ा के खिलाफ़ मुझसे ही सिर्फ दो दिन में लिखवाई थी। इतनी बड़ी पत्रिका को चार हज़ार शब्दों का मोल आठ आने प्रति शब्द तय करते समय डूब मरना चाहिए था। संभव है कि कुछ बड़े लोग और कुछ बड़े संस्थान कोई मौका दिये जाने जैसे भ्रम में जीते रहते हैं। 

मैं दफ्तर में कहानी नहीं पढ़ सकता था। हमें लोक संगीत की रिकॉर्डिंग का शेड्यूल बनाना था। एक पूरे पखवाड़े तक सुबह दस से शाम छह बजे तक स्टूडिओ में बीजी हो जाने के दिन दस्तक दे रहे थे। कुछ काम किया कुछ प्लान किया। सूरज बुझने को ही था कि घर चला आया। पेज तीस से आगे की कहानी शुरू होने को ही थी कि आभा ने आवाज़ दी। रमेश का एक्सीडेंट हो गया है। भाई साहब उसे लेकर आ रहे हैं। जल्दी अस्पताल पहुँचो। मेरा फोन काम नहीं कर रहा था, अब अचानक से दिमाग ने भी धोखा दिया। मैं हड़बड़ी में अस्पताल की ओर चल रहा था या शायद दौड़ रहा था। सीटी स्केन हो रहा था। किसी भाई ने कहा कि उसको होश है। मैंने सांस ली। 

रमेश सर्जिकल वार्ड भर्ती था। रात के दस बजे मैं भाई को लेकर घर आया। उनको अपने बेटे की चिंता थी। वे खाना नहीं खा सकते थे लेकिन तब तक डॉ सिंघल कह चुके थे कि मेरी आशा से ये ठीक है मगर फिर भी अगले चार घंटे तक पूरा ध्यान रखिए। उन्होने पूछा- आप किशोर हैं न? मैंने कहा- हाँ। वे कुछ और पूछते उससे पहले मैंने बताया कि मेरा भतीजा है। घर आकर हम दोनों भाइयों ने दो दो चपाती खाई। अस्पताल घर से तीन सौ मीटर दूर है। सोचा कि रात भर के लिए क्या चाहिए होगा? कुछ खास नहीं चन्दन पांडे का कहानी संग्रह इश्क़फ़रेब। 

मौसम जितना सुंदर था, रमेश उतनी ही करवटें बदल रहा था। उसको लगी ड्रिप में कई सारी दवाइयाँ थी। रात के दो बजे रमेश ने सही जवाब देने शुरू किए। उसने अपनी पुख्ता पहचान बताई। मुझे अब बहुत आराम हुआ। मैंने पास के पलंग पर बैठे हुये किताब खोल ली। 

प्रेम का विघटन या क्षरण नहीं हो सकता है। इसलिए उसे उसके हाल में ही स्वीकार करना पड़ता है। चन्दन की कहानी रिवाल्वर का मुख्य पात्र गौतम है। वह अपनी कहानी कह रहा है। उसकी बातों में निर्धारित आवृति वाला फ्लेश बैक है। यह क़िस्सागो का बूमरेंग है। जो लौट लौट कर आता है और फिर आगे की बात पीछे की ताकीद करती हुई बढ़ जाती है। नीलू एक वृहद बिम्ब की तरह खुलती है। किसी असीमित आकाश की तरह। धूसर रंग की नीली। प्रथम पुरुष कथा का कोरा पात्र नहीं है वरन इससे बढ़कर वह एक ज़िंदा आदमी का वुजूद है। इतना ज़िंदा कि मैं उस आदमी के सच से बड़े सच को याद नहीं रख पाता हूँ। इस कीमियागीरी में दो ही गहरे रंग हैं। एक है नीला और दूसरा नीले हो जाने की चाह का रंग। 

किताब देखते ही मैं सचमुच डर गया था कि सौ पन्नों की कहानी के लिए मेरे अब्बू मदद करें तो भी मैं पढ़ न सकूँगा। इससे पहले ऐसा गीत चतुर्वेदी कर चुके थे। उन्हीं यादों के साथ बैठे हुये पाया कि अस्पताल के दूसरे माले पर बने सर्जिकल वार्ड में भर्ती कुछ लोगों के पास नोकिया कंपनी के मोबाइल फोन थे। उनमें एक खास तरह का ऐप्प था। वे टूटे फूटे लोग शायद कई दिनों से इस वार्ड में थे और किसी खेल की तरह खेल रहे थे। उस ऐप्प से रह रह कर कोई छेड़खानी करता और आवाज़ आती- समय हुआ है तीन बज कर नौ मिनट... समय हुआ है तीन बज कर सोलह मिनट। सबके फोन में समय भी अलग अलग थे। एक ही टाइम ज़ोन में टाइम के बहाने किसी ने मुझे इतना कभी नहीं पकाया था। 

रमेश करवट बदलता रहा। उसके सर में हल्की सूजन थी। बदन-दर्द, दवाओं के असर से दबा हुआ था। एक बूढ़े मियांजी अपने बेटे के पलंग पर बैठे हुये बूंद बूंद सिंचाई जैसे उपक्रम को देख रहे थे। एक लुहारिन की सोने की नथ चमक रही थी। इसी लुहारिन को सबसे ज्यादा समय सुनने का शौक भी था। इसकी बगल वाले से एक आगे वाले बिस्तर वाला भी इसका ही सिरी (पार्टनर) था। वह ज़रूरी अंतराल देकर इसकी नक़ल उतार रहा था। रात मुसलसल बीतती जा रही थी। मैं अपने चश्मे को उतार कर आँखें पोंछता हुआ एक नज़र भाई पर डाल लेता। भाई गणेश छाप ज़र्दे के साथ चूना मसलते हुये सियासत, एजुकेशन, इंसानी स्वार्थ जैसे रेंडम विषयों पर अपनी कोई बात कह कर चुप हो जाते। मैं फिर इश्क़फ़रेब के चक्कर में पड़ जाता। 

रात का आँचल घना फैला हुआ था। किसी वजह से जगह बदल रहा कबूतर खिड़की के पास देर तक ऊट पटांग फड़फड़ाहट बिखेर कर चुप हुआ ही था कि अचानक से एक कुतिया के पंजों के नाखूनों के बजने की आवाज़ थी। वह कॉरीडोर से होती हुई आई। उसने लोहे की सभी चारपाइयों के नीचे सघन तलाशी ली। इसी वक़्त कहानी का गौतम प्रेम जैसी किसी शे के चोट खाये बदन पर उम्मीदों का मरहम रखते हुये प्रेम किए जा रहा था। तीन और प्रेमी थे। नहीं, वे प्रेमी नहीं थे। उन सभी के व्यक्तित्व बौने थे। वे गौतम जैसे बरगद की छाया में उगे हुये थे। उनसे नफरत ही नहीं हुई। वे कोई कोढ़ न थे, वे ऐपेंडिक्स थे। जिनको रिमूव करने की कोशिशें नाकाम हुई जाती थी। इसी अप्रत्याशा में गौतम उनको बार बार रक़ीब कह कर बुलाता था। 

सुबह चार बजे 
अस्पताल के बाहर हल्की ठंडी हवा थी। मुख्य दरवाज़े के पास चाय वाला था। वह रात की पाली में चाय बेचता होगा इसलिए आधी नींद के अभ्यास से भरा हुआ था। मैंने कहा दो चाय बना दो। आवाज़ सुन कर उसने मुझे पहचान लिया। बोला- कौन भर्ती है? भतीजा। क्या हुआ? एक्सीडेंट। कैसे? कार वाले टक्कर मारी। ज्यादा खराबी हुई? मैंने कहा नहीं सब कुछ बच गया है। वह चाय में डालने के लिए अदरक को किसने लगा। मैं मुस्कुराने लगा कि इसी जगह इसके पापा चाय और आमलेट सर्व करते थे। इसी जगह कितने ही दोस्तों ने हर रात नियम से पव्वे खाली किए थे। इसी जगह शराब से भरने के बाद दोस्त लोगों के दिल अस्पताल आते हुये मरीजों के दुख से भी भर जाया करते थे। शराबियों का खून डॉक्टर लोग लेते नहीं थे। शराबी कहते थे, एक बार लेकर देखो, मरीज का हुलिया बदल जाएगा। लेकिन दुख कायम रहते और आदमी को इन्हें बरदाश्त करने के सिवा कोई रास्ता न था। 

मैं रात भर से जाग रहा हूँ। कल सुबह के बाद से बहुत बीजी हूँ। अब सो जाना चाहता हूँ। मेरी स्मृति में गौतम के पास बहुत सारी पर्याप्त वजहें हैं। जिसकी ज़िंदगी की टहनी से प्रेम का एक परिंदा उड़ता है और चार वापस आ बैठते हैं। ज़िंदगी सदा हरे रहने वाले दुख के बूटे के पास खिले हुये परजीवी नीले प्रेम की परछाई है। 
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Image - A model participates in a 2012 International Bodypainting Festival Asia at Duryu park on September 1, 2012 in Daegu, South Korea. The festival is the largest event in the field of body painting and spreads the art form to thousands of interested visitors each year. 
Photograph by: Chung Sung-Jun Courtsey theprovince.com

December 6, 2012

वो एक तस्वीर थी

एक श्वेत श्याम स्थिर छवि। 

वह गायक इसी लम्हे को जीने के लिए क़ैद कर लिया गया था। मगर वह जा चुका था। उसकी आवाज़ का कौमार्य शेष रह गया था। बार बार आलिंगन में बांध लेने और आवाज़ के होठों पर बोसे दिये जाने के लिए। आवाज़ की खनक से उदासी बुनने के हुनर के कारण कई लोगों ने खिड़की के बाहर देखते कितनी ही शामें बुझा दी होंगी। मुझे आवाज़ की भाषा की रेशमी तारबंदी के पार जाने का मन हुआ। ज़रूरी नहीं था कि पश्चिम के संगीत से ही बड़े खाली कमरों वाले घर की रात को भरा जा सकता हो, उदासी से। मैंने एक कमायचा के उस्ताद की छवि को उसी जगह रखा दिया। आवाज़ फिर भी वैसी ही थी। मन के गहरे से आती कोई पुकार। प्रेम करने का अनुरोध। कोई बिना ज़ुबान के बोलता हुआ कि आओ मेरे बदन को अपनी बाहों में भर लो। मुझे भिगो डालो। अजगर की तरह कस लो उस लम्हे तक के लिए जब तक कि भीतर की सारी हसरतों और दुखो का चूरा न हो जाए। 

वो श्वेत श्याम छवि एक मरे हुये आदमी की थी। वो आवाज़ नहीं थी, संगीत का एक टुकड़ा था, वह एक खूबसूरत दुख था, सफ़ेद काला रंग था। 

वो आवाज़ कुछ नहीं थी। एक नन्ही लड़की को चूम लेने या फिर उसे ऐसे ही जाने देने का प्रयोजन मात्र नहीं। यह उस लड़की के आने से पहले और जाने के बाद के रंग का चित्र भी नहीं। अपनी याद के रोज़नामचे के भीतर अटकी कोई तारीख भी नहीं। स्टुडियो के बाहर पेड़ों के साये बुन रहे लेंपपोस्ट की रोशनी के आस पास चक्कर काटते हुये सुने गए संगीत के दर्ज़ ब्योरों को फिर से मुड़ कर देख लेने की चाह भी नहीं। इसलिए कि मैं मर गया हूँ। जैसे आवाज़ की भाषा को न समझ कर कोई पतंगा रात की कुंडली की गंध के लोभ में मारा जाता हो। मैंने अपने परों को झाड़ लिया इसलिए नहीं कि एक बार और उड़ कर देखूँ, लेंपपोस्ट की रोशनी के आखिरी सिरे तक। यूं ही कि क्या करूँ? 

कमायचा गहरा था। उसकी ज़ुबान चुप हो गयी थी और अन्तर्मन से कोई हूक उठ रही थी। हॉस्टल के सीले कमरे में पड़े हुये ऐसे युद्धबंदी की आवाज़ थी जिसके पास वापसी का रास्ता खो गया हो। जिसने बदन की हरारत को तोड़ देने की अनेक कोशिशों के बाद कहा हो। आओ मुझे बाहों में भर लो। मुझे प्रेम करो। मुझे चूम लो। यह उसकी मुक्ति है। वस्तुतः यह शीशे के इस और उस पार वाला रंग है। पहली मंज़िल के किसी सस्ते बार में नाच रही नवयौवना या आधे भरे और खाली पड़े हुये पैमानों का प्रतिबिंब है। फुटपाथ पर पुरानी जींस और जोगर्स पहने बैठे हुये आधे बूढ़े आदमी के लिए प्रलोभन है। यह अंधेरे की मरीचिका है। यह गला रेतते हुये कसाई की ठंडी अंगुलियों को छूकर जाता हुआ गरम खून है। 

वो एक तस्वीर थी। जिससे एक ही आवाज़ आ रही थी, एक दिन तुम भी तस्वीर बन जाओगे। विस्मृति की बारिश में धुल जाने तक के लिए। 

मैंने अपनी कविताओं और कहानियों पर एक उदास नज़र डाली और उन लोगों को फिर से बहुत सारा प्यार किया जिनके लिए मैंने ये शब्द इकट्ठा किए थे। मैंने खाली पड़ी हुई बोतलों को देखा। करवट लिए पड़े हुये एक बाउल को देखा। मैंने पी जा चुकी शराब के बारे में सोचा। मैंने मटर के उन दानों को याद किया जो काले नमक से भरे हुये थे। मैंने बीते हुये लम्हों के लिए फिर से कोई धुन प्ले कर दी। रेगिस्तान की सर्द रात में बबूल के सफ़ेद लंबे कांटे जैसी धुन। 

श्वेत श्याम तस्वीर अब भी वैसी ही थी। मेरा इंतज़ार कर रही थी कि मैं कब मर कर ऐसा दिखने लगूँगा। मैं सोच रहा था कि ज़रूरी काम क्या है, जो इन जीने के दिनों में कर लिए जाएँ।



December 2, 2012

न आओगे मगर सुना है



जिनके हिस्से में ज़िंदगी बची रहती है, उनके हिस्से में रात भी आ जाया करती है। और रात के ग्यारह भी बजा करते होंगे अगर वे गुज़र न रहे हों किसी के ख़याल से।

मैंने कल की रात
सर्द रातों की आमद की खुशी में ओढ़ ली थी
एक नए गिलाफ़ वाली रज़ाई
जैसे किसी त्योहार पर घर में आते हैं नए कपड़े
और दर्जियों की अंगुलियों की खुशबू के साथ चली आती है, खोये हुये घरवालों की भीनी याद।

कल की रात दायें पाँव के नीचे दबा हुआ
रज़ाई का एक सिरा चुभता रहा कुछ देर ऐसे
जैसे कि शाम हुये घर आया हूँ
और कोई याद का टुकड़ा आ बैठा है किसी असमतल भूगोल की तरह।

सिर्फ दुखों की काली परछाई से नहीं बनी होती कोई रात 
और हर सुबह नहीं खिलती किसी अविश्वसनीय उम्मीद की तरह 
फिर भी हर तरह की शिकायतों और बेसलीका उदासियों के बीच 
मैंने किसी मौसमी चिड़िया की तरह पाया है, तेरी याद को।   

जिस तरह कई साल बीत गए हैं यूं ही
उसी तरह मैंने कर दिया एकतरफ रज़ाई का किनारा, मगर सो न सका
कि दीवार पर हथेलियाँ रखता हुआ कोई आता रहा करीब अंधेरे में
और मैं बेढब रास्ते में चलते हुये हर बार गिरता रहा, चौंक कर खुलती रही नींद। 

और तुम न आओगे मगर सुना है सर्दियाँ आएंगी हर साल गर हम न भी बचे रहे। 
* * *

[Image courtsey : Ary Snyder]

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर ...