September 30, 2012

यही रोज़गार बचा है मेरे पास

मेरे कंधे पर शाम की छतरी से टूट कर दफ़अतन गिरा एक लम्हा था। एक चादर थी, चाँद के नूर की और उसकी याद का एक टुकड़ा था। मैं उलटता रहा इंतज़ार की रेतघड़ी। रात के बारह बजे उसने कहा ये मुहब्बत एक जंगल है और तुम एक भी पत्ती नहीं तोड़ सकते। नहीं ले जा सकते अपने साथ कुछ भी...

याद ने खाली नहीं किया बेकिराया घर
मैं उम्मीद की छत पर टहलता ही रहा।

पड़ोस की छतों पर
बच्चे सो गए केले के छिलकों की तरह
रात का कोई पंछी उड़ रहा था तनहा।  
मेरे सेलफोन के स्क्रीन पर
चमकते रहे थे चार मुकम्मल टावर
जैसे किसी कॉफिन के किनारे लगे हुए पीतल के टुकड़े।

और एक वहम था आस पास कि किसी को आना है।
***

पाप की इस दुनिया में
दुखों की छड़ी से हांकते हुए
ईश्वर ने लोगों से चाहा
कि सब मिल कर गायें उसके लिए।

शैतान ने अपना अगला जाम भरते हुए देखा
कि ईश्वर की आँखें, उससे मिलती जुलती हैं
***

तुम ख़ुशी से भरे थे
कोई धड़कता हुआ सा था
तुम दुःख से भरे थे
कोई था बैठा हुआ चुप सा.
***

सब कुछ उसी के बारे में है
चाय के पतीले में उठती हुई भाप
बच्चों के कपड़ों पर लगी मिट्टी
अँगुलियों में उलझा हुआ धागा
खिड़की के पास बोलती हुई चिड़िया।

सब उसी के बारे में है, जो है ही नहीं।
***

वह जो उगता है मेरे सिरहाने
और मेरे ही पैताने डूब जाता है

किसी टूटे हुये ख़याल का नुकीला टुकड़ा है।
***

मुझे प्यार है आती हुई सर्दियों से
कि कुछ फूल इसी रुत में खिला करते हैं
खास कर वह फूल, जो होता है
बैगनी और आसमानी के बीच के रंग वाला।

इसी रंग की एक सायकिल थी उसके पास।
***

उदास शाम को
ज़रा स्पाईसी करने के लिए
खीरे के टुकड़ों के बीच रख लेता हूँ
एक साबुत हरी मिर्च
जैसे शादी शुदा लोग प्रेम जैसी आफत रख लेते हैं दिल में।

फिर मैं नए नए अफ़सोसों को रखता जाता हूँ
बालकनी के कोने में रखी टेबल पर करीने से
और वहीं पर हर शाम लड़ी जाती है एक आखिरी लड़ाई।

और तुम तो वहाँ आना ही मत.. कि यही रोज़गार बचा है मेरे पास।
***

उसने कहा कि तुम्हारे पास
एक सुंदर बीवी, दो बच्चे और अब एक उधार का घर भी है।

शैतान ने इस माया के महल से लगा दी छलांग

इन्द्र के मदिरा भरे प्याले में, पाप और पुण्य एक हो गया।
***



September 28, 2012

आभा का घर


मुझे बहुत सारे बच्चे याद आते हैं। अपनी मम्मा की साड़ी, ओढ़ना, चुन्नी और बेड कवर जैसी चीजों से घर बनाने का हुनर रखने वाले बच्चे। वे सब अपने घर के भीतर किसी कोने में, सोफे के पास, छत पर या जहाँ भी जगह मिलती, घर बनाने में जुट जाते। वे वहीं सुकून पाते। वे सब बच्चे एक बड़े से बिस्तर पर इस बात के लिए लड़ते कि देखो दीदी ने मेरे पैर को छू लिया। भैया से कहो अपना हाथ हटाये। दूर सरक कर सो ना, यहाँ जगह ही नहीं है। वे ही बच्चे अपने बनाये हुए घर में घुटनों को मोड़े हुए ख़ुशी से चिपके रहते हैं। 

मैंने उन बच्चों को देखा लेकिन कभी सोचा नहीं कि एक घर बनाया जाना जरुरी है। पापा ने चार बेडरूम का दो मंजिला घर बना रखा है। यह एक पुराना घर है मगर इसमें कोई तकलीफ़ नहीं है। इसमें बीते सालों की बहुत सारी खुशबू है, बहुत सारी स्मृतियाँ हैं खट्टे मीठे दिनों की, इसमें हमारे गुम हुए बचपन की परछाई है. हम सब इस घर में सुकून पाते हैं। 

आभा मुझसे बेहतर है, वह हर हाल में खुश और सलीके से रहने का तरीका जानती है। उसने कभी कहा ही नहीं और मैंने कभी सोचा ही नहीं कि घर बनाना चाहिए। ज़िंदगी का अप्रत्याशित होना कितना अच्छा है कि एक दिन अचानक से हम दोनों छोटे भाई के साथ बिल्डरों के चक्कर काटने लगे और फिर एक दिन अचानक घर मुस्कुराने लगा। उन बच्चों के लिए जो सिर्फ एक बेड कवर से घर बनाने का हुनर जानते हैं। 

ये सब उन्हीं की नवाज़िशें हैं। लव यू डैड। शुक्रिया मनोज, विजया, महेंद्र, प्रियंका और माँ।
* * * 

एक साल यूं ही दूसरे कामों में गुज़रता गया फिर एक दिन सिद्धार्थ जोशी साहब को संदेश भेजा कि इन दिनों नए घर में प्रवेश करने का कोई मुहूर्त है। उन्होने कहा सितंबर महीने की पच्चीस तारीख मुबारक है। आभा ने मेरी तरफ देखते हुये मुस्कुरा कर कहा। हॅप्पी बर्थडे...

September 20, 2012

तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए 

एक खुशी है 
फिर एक अफसोस भी है 
कि कोई लगता है गले और 
एक पल में बिछड़ जाता है। 

खिड़की में रखे 
सलेटी रंग के गुलदानों में 
आने वाले मौसम के पहले फूलों सी 
इक शक्ल बनती है, मिट जाती है। 

ना उसके आने का ठिकाना 
ना उसके जाने की आहट 
एक सपना खिलने से पहले 
मेरी आँखें छूकर सिमट जाता है। 

कल रात से 
मन मचल मचल उठता है, 
ज़रा उदास, ज़रा बेक़रार सा कि ये कौन है 
जो लगता है गले और बिछड़ जाता है। 

एक ख़ुशी है, फिर एक अफ़सोस भी है।
* * *

मैंने इंतज़ार की फसलों के कई मौसम गुज़रते हुये देखे हैं। उदासी के सिट्टों पर उड़ती आवाज़ की नन्ही चिड़ियाओं से कहा। यहीं रख जाओ सारा इंतज़ार, सब तरफ बिखरी हुई चीज़ें अच्छी नहीं दिखती। 

उसी इंतज़ार की ढ़ेरी पर बैठे हुये लिखी अनेक चिट्ठियाँ। उसने चिट्ठियों पर बैठे शब्दों को झाड़ा और उड़ा दिया खिड़की से बाहर। मैंने दुआ की उसके लिए कि कभी न हो ऐसा कि वह ढूँढता फिरे उन्हीं शब्दों की पनाह।  

September 19, 2012

फिर से आना जरुरी है



एक छोटे से जीवन में कितने तो लोग आते हैं और जाने कितना कुछ टूटता बिखरता जाता है। किसी भी नुकसान की भरपाई कभी नहीं होती। कुछ नुकसान तस्वीरों की शक्ल में पड़े रहते हैं किताबों के बीच या बंद दराज़ों में, बाकी सब दिल की टूटी फूटी दीवारों पर, गीली भीगी आँखों में।

कुछ लोग किसी दुआ की तरह आते हैं और फिर हवा के झौंके की तरह चले जाते हैं। हमारे साथ फिर भी सारी दुआएं चलती ही रहती हैं, बरगद की छाँव जैसे शामियाने की तरह। दुःख बनाये रहते हैं दुआओं के बरगद की जड़ों में अपनी बाम्बी कि ज़िंदगी कभी भी दोनों तरफ़ से एक जैसी नहीं हुआ करती है।

कुछ जो जीवन में आते हैं अचरज और हैरत की तरह, वे ज़िंदगी के मर्तबान से चुरा ले जाते हैं सारे अहसास, बचा रहता है उदासी से भरा हुआ तलछट, सूना और बेरंग। बस ऐसे ही हो जाते हैं सब दिन रात। कोई करता रहता है इंतज़ार कि उन गए हुये लोगों के लिए एक दावत कर सके। मगर ये ख़्वाहिश कभी नहीं होती पूरी कि उसके लिए उनका फिर से आना ज़रूरी है। हैरत और अचरज की तरह। 

September 18, 2012

शगुफ्ता शगुफ्ता बहाने तेरे



मुझे लंबी छुट्टी चाहिए कि मैं बहुत सारा प्रेम करना चाहता हूँ। मैंने सुकून के दिन खो दिये हैं। मैंने शायद लिखने के आनंद को लिखने के बोझ में तब्दील कर लिया है। मैं किसी शांत जगह जाना चाहता हूँ। ऐसी जगह जहां कोई काम न हो। जहां पड़ा रहूँ बेसबब। शाम हो तो कभी किसी खुली बार में बीयर के केन्स खाली करता जाऊँ या फिर कभी नीम अंधेरी जगह पर विस्की के अच्छे कॉकटेल मेरे सामने रखे हों। कभी न खत्म होने वाली विस्की...

सपने में आई उस सुंदर स्त्री के केश खुले हुए थे और वे दोनों कंधों के आगे पीछे बिखरे हुए थे. ऐसा लगता था कि उन केशों को इसी तरह रहने के लिए बनाया हुआ था. सपने में उस स्त्री का कोई नाम नहीं था. उसके बारे में बात करने के लिए मान लेते हैं कि उसका नाम गुलजान था.  
जब उसकी चीखने जैसी आवाज़ सुनी तब मैं स्नानघर में नहा चुका था या शायद नहाने की तैयारी में था. वह आवाज़ हमारे सोने वाले कमरे से आई थी. मैंने तुरंत स्नानघर का दरवाज़ा खोला और एक तोलिया लपेटे हुए कमरे की तरफ आया. जिस जगह पर खड़ी होकर आभा साड़ी बांधती हैं. उसी जगह, उसी अलमारी की तरफ मुंह किये हुए गुलजान खड़ी थी. उसके पास ही एक बलिष्ठ गोरे रंग का आदमी खड़ा था.  
हष्ट-पुष्ट देह वाले उस आदमी ने गुलजान की साड़ी को खींच लिया था और वह शयन कक्ष के पीछे वाले दरवाज़े से भाग कर घर के पिछवाड़े में अपने शरीर को हाथों से ढांप कर खड़ी हुई थी. वह रो नहीं रही थी. उसने अपने हाथों की कोहनियों को पेट से चिपकाया हुआ था. उसके पास खाकी या ऐसे ही किसी रंग के कागज़ का बड़ा टुकड़ा था. जैसे वह अपने शरीर को छुपा रही हों.  
मैंने उस आदमी को गले से पकड़ कर लगभग उठा लिया. उसे किसी तरह घर के पिछवाड़े में उस तरफ ले गया जहाँ गुलाजान खड़ी थी. उसकी आँखें हैरत से भरी थी मगर जैसी मैंने चीख सुनी थी वैसा भय अथवा भय से उपजे बाकी सारे भाव उसके चहरे पर नहीं थे. मैंने उस आदमी को एक छोटी दीवार पर पटक दिया. उसका गला दबाते हुए मैंने एक बार गुलजान की तरफ देखा. वह वैसे ही खड़ी थी. 

मैं इन दिनों बड़े लम्बे समयांतराल के बाद फुरसत जैसे हाल में आया हूँ. मैंने इस साल जनवरी से लेकर सितम्बर के पहले सप्ताह तक बहुत सारे काम किये. बेसलीका जीवन जीया. खूब सारी शराब पी. खूब सारे शब्द लिखे. खूब सारा सोचा... ताज़ा मिली इस फुरसत को बढ़ाने के लिए कल सुबह कुछ दिनों के लिए एक सोशल खाते से अवकाश ले लिया. शाम बिना पावर सप्लाई के चल रहे स्टूडियो में बीती. बंद कमरे में जब वातानुकूलन यन्त्र न काम कर रहे हों तो बैठना मुश्किल हो जाता है. मैं बाहर चला आया. मैंने आती हुई रात के रंग को देखा. मैंने इंतज़ार किया और बहुत सारा सोचा. इसीलिए शायद रात को ऐसे सपने में खो गया था. 

इसके बाद मैं किसी मोर्चे के लिए जमा हुए लोगों के बीच था. वे किसी राजनैतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आंदोलनरत थे. उस भीड़ के बीच एक विद्यालय की बच्चों से भरी हुई बस बेतरतीब भागने लगी. मैंने देखा तो पाया कि वह बस एक फौजी टैंक जैसे आकार की है. उसमें बैठे हुये बच्चे अगुआ किए जा चुके हैं. उस पर कोई भी गोली असर न करेगी. मैं अपनी जेब पर हाथ रख कर देखता हूँ. वहाँ पर एक छोटा माउजर रखा है. मुझे नहीं मालूम कि उसमें कितनी गोलियां हैं.  
भीड़ के बीच बच्चों की वैन ठीक मेरे पास से गुजरी और मैंने ड्राईवर को गोली मार दी. इसके बाद खाली मैदान में कुछ लोगों की भगदड़ जैसे दृश्य के बीच मैं किसी ओट की तलाश में भागने लगा. एक छोटी चट्टान के पीछे कूद पाने से पहले कई बार गोली चलाई. कुछ गोलियां मेरा पीछा कर रही थी. मैं भयभीत न था. मैं एक जरुरी काम में लगा हुआ नौजवान था. 

अचानक से लगा कि मौसम बहुत सर्द हो चला है. हवा सख्त और बेहद ठंडी है. मैं घर के पहले माले में बने छोटे भाई के बेडरूम में एक लम्बे चौड़े डबल बैड पर सो रहा था. पंख तेज घूम रहा था. मैंने कुछ ओढ़ नहीं रखा था. मैंने देखा कि नीले रंग की जींस और एक बिना बांह वाली सफ़ेद बनियान पहने हुए सो रहा हूँ. मैंने कल शाम को जो जींस पहनी थी, वो ये नहीं थी. यानी मैंने घर आकर दूसरी जींस पहनी और सो गया था. मेरे हाथ की अँगुलियों में हेमंत के लगाये हुए पान की खुशबू थी. ये पान कल रात को एक सहकर्मी ने दिया था. 
* * *

मैं घर से भाग जाना चाहता हूँ। मुझे ये हाल ओ हालत रास नहीं आते। मैं तनहाई चाहता हूँ एक जानलेवा तनहाई। मुझे एक ख़ामोशी चाहिए। मैं इस तरह के सपने देखते हुये नहीं सोना चाहता हूँ। मुझे रास्तों की तलाश है। मुझे कोई पुकार रहा है।

मुझको यारों न करो रहनुमाओं के सुपुर्द
मुझको तुम रहगुज़ारों के हवाले कर दो। "अब्दुल हमीद अदम" 
[rahnumā - guide; supurd = in the care of; rahguzāron - road's, traveller]
***
[तस्वीर घर के बैकयार्ड में एक गमला और उसमें रखे लोहे के टुकड़े]

September 14, 2012

नहीं जो बादा-ओ-सागर


वह एक उच्च प्राथमिक विद्यालय था. चारों तरफ हल्की भीगी हुई रेत के बीच तीन कमरों के रूप में खड़ा हुआ. सुबह के दस बजने को थे. विद्यालय भवन की चारदीवारी के भीतर कई सारे नीम के पेड़ थे. कुछ एक जगह नए पौधे लगे हुए थे. उनकी सुरक्षा के लिए सूखे हुए काँटों से बाड़ की हुई थी. विद्यालय के मुख्य दरवाज़े के आगे बहुत सारे चार पहिया वाहन खड़े हुए थे. मैदान के ठीक बीच में बने हुए प्रार्थना मंच पर रंगीन शामियाना तना हुआ था. रेगिस्तान में दूर दूर बसी हुई ढाणियों के बीच के इस स्कूल में लगे हुए साउंड एम्प्लीफायर से कोई उद्घोषणा किये जाने का स्वर हवा में दूर तक फेरा लगा रहा था. गाँव भर के मौजीज लोग और आम आदमी सलीके से रखी हुई कुर्सियों पर बैठे हुए थे. कोई दो सौ लोगों की उपस्थिति का सबब था एक वृत्त स्तरीय विद्यालयी खेलकूद प्रतियोगिता का समापन समारोह. 

मैं सितम्बर महीने में हर शहर और कस्बे में देखा हूँ कि किशोरवय के लड़के लड़कियों के दल अपने विद्यालय का झंडा लिए हुए गंतव्य की ओर बढ़ते जाते हैं. वे अक्सर विद्यालय गणवेश में ही होते हैं. कुछ एक विद्यालय भामाशाहों से आर्थिक सहायता जुटा कर इन नन्हे बच्चों के लिए रंगीन बनियान उपलब्ध करवा पाते हैं. अभी परसों ही बादलों का फेरा था और हल्की फुहारें पड़ रही थी. गाँव के किसी विद्यालय का झंडा थामे हुए नन्हीं बालिकाएं हैरत भरी निगाहों से शहर की सड़कों पर चल रहे वाहनों को देखती हुई और पांवों में चिपकते जा रहे कीचड़ से बचती हुई चल रही थी. मैंने ज़रा रुक कर देखा कि इनमें से कोई लड़की मैरिकॉम जैसी दिख रही है या फिर कोई सायना नेहवाल. वे लड़कियां भले ही इन नामों से बेखबर न रही हों मगर उस वक़्त वे शहर की इस यात्रा के उल्लास से भरी हुई दिख रही थी. 

जिस विद्यालय में वृत्त स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिता का समापन था, वहां का वातावरण उत्साह से भरा हुआ था. विधायक महोदय मुख्य अतिथि थे. उनके आगमन के कारण ही कई प्रभावशाली और समृद्ध लोग भी उपस्थित थे. मंच पर पुरुस्कार वितरण समारोह होना था. पुरुस्कारों के रूप में किसी विशेष धातु के बने प्रतीक चिन्ह रखे हुए थे. एक जो सबसे बड़ा था वह ऊंट था. उसके चारों तरफ चमकती हुई झालर लटक रही थी. यह उस विद्यालय को दिया जाना था, जिसने सर्वाधिक प्रतियोगिताएं में विजय प्राप्त की थी. इसके बाद बहुत सारे बाज़ उड़ने के लिए पंख फैलाये हुए थे. कुछ छोटे आकार के बाज़ भी थे. इन सब पुरस्कारों के लिए धन उपलब्ध करवाने वाले सज्जन इस समारोह के अध्यक्ष थे.

मुझे वहां बैठे हुए महात्मा गाँधी की पुस्तक ग्राम स्वराज की खूब याद आई. गाँधी जी का दर्शन जो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था के उत्थान से राष्ट्र विकास का एक सच्चा और सार्थक रास्ता दिखाता है, वह यहाँ साकार था. यहाँ लोगों के चेहरों पर ख़ुशी और आत्मीयता थी. सबसे कम संसाधनों में सबसे अधिक प्यार था. खेल के मैदान में हार और जीत से इतर बच्चों के हौसले की बढ़ोतरी करती हुई आवाज़ें थी. ख़ुशी और उदासी के लिए कितनी छोटी - छोटी सी बातें पर्याप्त होती है. खुशी कबड्डी कबड्डी बोलने में भी है और खुशी ये लगा छक्का में भी है। ये दोनों खुशियाँ एक दूसरे से बहुत दूर हैं। आईपीएल यानि इंडियन प्रीमियम लीग जो फटाफट क्रिकेट का सबसे अधिक कमाई वाला आयोजन है। इसे देश और दुनिया का बहुत बड़ा दर्शक वर्ग प्राप्त है। इसे मनोरंजन कर में छूट हासिल है। इसके आयोजन में भद्र और श्रेष्ठी वर्ग की गहरी रुचि है। यह लोकप्रियता का शिखर है।

इधर गाँव में सादगी थी. बच्चों का कलरव था. गाँव के सीधे सादे लोगों का स्नेहिल सहयोग था। इसी देश के दूसरे भव्यतम आयोजनों को हम सब ने विशाल स्क्रीन पर खूब देखा है. एयरलाईन की हवाई सुंदरियाँ, फैशन शो में छाई रहने वाली, सूखी हुई काले पीले रंग की देह वाली केट्वाक गर्ल्स, अपने पांवों को विशेष ज्यामिति में सलीके से टेढ़े किये खड़ी रहती है. उनके बीच में सियासत के नामी लोग सफ़ेद लिबास में उपस्थित रहते हैं। सरकारी तंत्र का जम कर उपयोग होता है। यहाँ बच्चों के लिए पुरस्कार उपलब्ध करवाने वाले गाँव के उन भामाशाह को सरकार से कोई फायदे की उम्मीद नहीं है। किन्तु सरकार हमेशा खिलाड़ियों से उम्मीद करती आई। हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों को सुविधाओं के नाम पर रोना रोये जाने की एक तवील परंपरा है मगर करता कोई भी कुछ नहीं है.

दुनिया के अरबपतियों में शुमार भारतीय, खेल के लिए बहुत उदासीन है. वे सिर्फ सुविधा संपन्न खिलाड़ियों के ओलम्पिक में पदक जीतने पर ही अपने खेल प्रेम से कोंपलें फूटते हुए देख पाते हैं मगर सुविधा उपलब्ध करने के नाम पर शून्य ही हैं. ओलम्पिक में पदक जीतना दुनिया के सब खिलाड़ियों को पछाड़ देने वाला अतुलनीय खेल कौशल है लेकिन जीतने से पहले और जीतने के बाद का अंतर बहुत बड़ा है. इस अंतर को दूर किया जाना ही राष्ट्रीय स्वाभिमान की बात होगी. गाँव के मैदानों में बिना जूतों के खेलते हुए ध्यानचंद कभी टर्फ मैदानों तक नहीं पहुँच पाते हैं. गाँव के इन विध्यालयों में एक शटल कॉक को तब तक छोड़ा नहीं जाता है जब तक कि उसके पंख तो क्या उसका बेस तक न टूट जाए। ओलंपिक में जिन खेलों में पदक दांव पर लगे होते हैं, उन खेलों की आधारभूत सुविधाएं भारत के भारत के नब्बे फीसद खिलाड़ियों को कभी नहीं मिल पाती है।

राज्य सरकार ने शारीरिक शिक्षकों को कक्षा में जाकर पढ़ाने का आदेश दे रखा है. खेलकूद को एक तरह से फालतू का काम समझ लिया गया है। विद्यालयों के पास इतना धन उपलब्ध नहीं होता है कि वे राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं का खर्च खुद उठा सकें. सरकारी दौरे पर जाने वाले खेलकूद के अध्यापक अध्यापिकाओं को अपने यात्रा के किराये और भत्ते के लिए बरसों प्रतीक्षा करनी होती है. खेलकूद प्रतियोगिताओं में विजता रहे बालक बालिकाओं के लिए नौकरियों में कोई अवसर बचे ही नहीं हैं. खेलकूद में अव्वल विध्यार्थियों को मिलने वाली छात्रवृति फैशन के दौर में घटते हुये कपड़ों की तरह सिकुड़ गई है। ‘खेलोगे कूदोगे तो होवोगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ की पूंछ हर माँ बाप ने पकड़ रखी है। ये ही माँ बाप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को देख कर आहें भरते हैं कि काश उनके बच्चे भी ऐसा हो पाते, मगर खुद के बच्चों को खेलने नहीं देते।

गांवों और तहसील मुख्यालयों में होने वाली ये खेल प्रतियोगिताएं मुझे खूब आकर्षित करती है। मैं यहाँ भारत देश की नयी पीढ़ी को देखता हूँ। यूं ज्यादा उदास भी नहीं होता हूँ, नई दुनिया के सबसे अग्रणी खेल कौशल वाले देश का ख्वाब और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब का शेर अपने साथ रखता हूँ। “किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालों/ नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही”
***
[Image courtesy : panoramio]

September 13, 2012

इन्हीं दिनों


इन्हीं दिनों 
मैंने अपने क़बीले के सदर से कहा
कि एक टूटी हुई टांग वाला भेड़िया हो जाना
और फिर घिर जाना तूफ़ान में कैसा होता है?

इन्हीं दिनों
उस बूढ़े आदमी की तवील ख़ामोशी के बीच
दुनिया के किसी कोने में
एक लंबी दाढ़ी वाले आदमी की
खूनसनी वसीयत लिए
कोई हँसना चाहता था क़यामत जैसी हंसी
मगर वह किसी पहाड़ की गुफा से आती
अधमरे लकड़बग्घे की खिसियाई हुई आवाज़ थी।

इन्हीं दिनों
एक बड़े कबीले ने कहा
आओ हम दोनों मिलकर बनाए नए हथियार।
उसी पल सदर ने
ज़िंदगी भर के राज में पहली बार आँख मारी
और अपनी कामयाबी पर खींची एक छोटी मुस्कान की लकीर।

इन्हीं दिनों
कुछ लोग हाथों में लिए हुये त्रिशूल
मार डालना चाहते थे, उस लकड़बग्घे को
ताकि वे हंस सकें उसकी जगह क़यामत की हंसी।

इन्हीं दिनों
मैंने अपना सवाल ले लिया वापस
और कहा कि आपकी टांगों में कमजोरी है
मगर आपसे बेहतर कोई नहीं है।

कि जब मैंने चाहा था
चुरा लूँ हनुमान जी की लाल लंगोट
और उसे बना लूँ परचम
तब मेरे ही कबीले के लोग हो गए थे मेरे खिलाफ़
कि देवताओं के अपमान से
बेहतर है नरक जैसा जीवन जीते जाना।

इन्हीं दिनों
मेरे सदर, ये सच लगता है कि मुझको
कि सब अपनी तक़दीर लिखा कर लाते हैं।

इन्हीं दिनों, मैं शायद सबसे अधिक हताश हूँ।
***
[Image courtsey : indiamike.com]

September 7, 2012

वे फूल खिले नहीं, उस रुत


मैंने ऊंट से कहा कि रेगिस्तान की धूल का कोई ठिकाना तो होता नहीं फिर किसलिए हम दोनों यहीं पर बैठे हुए अच्छे दिनों का इंतज़ार करें. ऊंट ने कहा कि मैंने कई हज़ार साल जीकर देखा है कि कहीं जाने का फायदा नहीं है. इस बाहर फैले हुए रेगिस्तान से ज्यादा बियाबान हमारे भीतर पसरा हुआ है. देखो यहाँ से उफ़क़ कितना साफ दिखता है. रात में यहाँ से तारे भी कितने ख़ूबसूरत नज़र आते हैं. ऊंट की इन्हीं बातों को सुन कर इस सहरा में रहते हुए मुझे ख़ुशी थी कि सुकून के इस कारोबार पर शोर की कोई आफ़त नहीं गिरती. 

हम दोनों ने मिल कर एक पेड़ के उत्तर दिशा में घास फूस से छोटी झोंपड़ी बनाई.

ऊंट मुझे कोई छः महीने पहले एक कुंए के पास प्यासा बैठा मिला था. इससे पहले वह किसके साथ था? ये मुझे मालूम नहीं मगर ये उसी शाम की बात है. जिस सुबह दिन के उजाले में कौंध गई एक रौशनी से डर कर रेगिस्तान के इस कोने में छुप गया था. हम दोनों दिन में एक बार रोहिड़ा के पेड़ का चक्कर काट कर आते थे. मैंने ऊंट से कहा था कि जिस दिन इस पर गहरे लाल रंग के फूल खिल आयेंगे, हम दोनों पूरब की ओर चल देंगे.

फूल मगर इस रुत नहीं आये. 
ऊंट ने अपने गद्दीदार पैरों की तरफ देखा और कहा. मैं तुम्हारी तरह मोहब्बतों की गरज नहीं करता हूँ. रास्तों की मुझे परवाह नहीं है. मैं ऊँचे कांटेदार दरख्तों की पत्तियां चुनता हुआ अकेला फिर सकता हूँ. मैंने शर्म से अपना सर झुका लिया कि मेरे पास तुम्हारी याद में उदास रहने के सिवा कोई काम न था. मुझसे ऊंट अच्छा था इसलिए मैंने रेत पर लिखा कि काले रंग के घने बादलों में छुपी होती है श्वेत चमकीली कड़क से भरी रौशनी की तलवार, तुम्हारे पास एक धड़कता हुआ दिल है मगर तुमने ज़ुबां कहां छुपा रखी है. 

इसे पढ़ कर ऊंट ने अपनी गरदन झोंपड़ी से बाहर निकाल ली और देर तक रेत पर उल्टा पड़ा हुआ लोट पोट होता रहा. उसने मुझे अपने पीले गंदे और लम्बे दांत दिखाए. उस दिन मैंने ऊंट से कुट्टी कर ली. हम दोनों साथ साथ रहते थे मगर कभी बोलते न थे. एक धूसर रंग की पीली चोंच वाली चिड़िया, हम दोनों के हिस्से के गीत गाकर चली जाया करती थी. मेरी नक़ल करता हुआ, ऊंट साल भर चुप बैठा रहा. छोटे छोटे दिनों के आने तक भी रोहिड़े पर फूल नहीं आये. एक रात गहरी ठण्ड पड़ी. सुबह ऊंट अपने गलफड़ों से बिलबिलाने की आवाज़ निकालता हुआ देखता रहा इधर उधर... उसने मुझे देखा तो शर्म से आँखें फेर ली. मैंने मगर नहीं पुकारा तुम्हारा नाम. 

फूल भी कहां खिले थे इस साल.
***

[Painting Image Courtsey : Andrew Dean Hyder]

September 6, 2012

आदिम प्यास से बना रेगिस्तान


रेगिस्तान समंदरों के पड़ोसी है मगर पानी नहीं है इसलिए ये रेगिस्तान हैं। मैं रेगिस्तान में ही जन्मा और फिर इसी के इश्क़ में पड़ गया। मुझे अगर कोई रेगिस्तान के किसी दूर दराज़ के गाँव, ढ़ाणी से निमंत्रण मिले तो मैं वहाँ जाने के लिए व्याकुल होने लगता हूँ। लोग हरियाली और समंदरों को देखने जाते हैं। मैं अपनी इस जगह की मोहब्बत में गिरफ्तार रहता हूँ। शोर और खराबे से भरी दुनिया में सुकून की जगहें रेगिस्तान के कोनों में ही मिल सकती है।

साल उन्नीस सौ पिचानवें की गर्मियों के आने से पहले के दिन रहे होंगे कि राज्य सरकार की ओर से एक जल परियोजना का उदघाटन किया गया था। पानी का मोल रेगिस्तान समझता है। इसलिए इस आयोजन का भी बड़ा महत्व था। इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग के लिए जाते समय मैंने अद्भुत रेगिस्तान की खूबसूरती को चुराना शुरू कर लिया। रास्ते की हर एक चीज़ को देखा और उसे रंग रूप को दिल में बसा लिया। सड़क के दोनों तरफ बबूल की झाड़ियाँ थीं। जिप्सी के खुले हुए कांच से भीतर से आती हुई हवा बहुत तेज थी। गर्मी से पहले का मौसम था। सड़क निर्जन थी। कोलतार पर गिर कर परावर्तित होती हुई उगते सूरज की चमक रियर मिरर में चमक रही थी। हर एक दो किलोमीटर के फासले पर कोई एक दो वाहन नज़र आते और पल भर में हमसे दूर पीछे की दिशा में खो जाते। सड़क के पास उगी हुई बबूल की इन झाड़ियों के पार रेत के धोरे दिखते। रेगिस्तान में इस रास्ते पर या ऐसे ही किसी रास्ते पर चलते हुए कुछ दूरी पर घर भी दिखाई देते रहते हैं। 

जब हम शहर से बाहर आ चुके थे तभी ये अहसास भी अचानक साथ चला आया कि अब सुकून है। भीड़ का कोलाहल पीछे छूट गया है। असंख्य चेहरे, दुकानें, गाड़ियाँ, दफ़्तर जैसी चीज़ें जिस व्यस्तता को बुनती है, वे सब अब नहीं हैं। उनके न होने से आराम है। आंखे दूर दूर तक देखती हुई सोचने लगी कि कई बार खालीपन कितना भला हुआ करता है। त्वरित घटनाओं के कारण हमारी आंखे और मस्तिष्क निरंतर पहचान गढ़ने और क्रिया प्रतिक्रियाओं को समझने के काम में जुटे रहते हैं। यह अनवरत काम है। यही जागृत मस्तिष्क भीड़ से बाहर आते ही संभव है कि आराम मे आ जाता है। 

ये फसल का मौसम नहीं था इसलिए बालू रेत दूर तक पसरी हुई थी। उनका असमतल आकार किसी कुशल कारीगरी की बनाई हुई कला का बेजोड़ नमूना पेश कर रह था। खेजड़ी और कैर जैसे रेगिस्तानी पेड़ पौधे इस बियाबाँ को थोड़ा अलग रंग दे रहे थे। सड़क के किनारे कुछ दूर बसे हुये घरों के आस पास मवेशी दिख जाते और बड़ी दूरी बाद कोई सरकारी पानी की टंकी या फिर परंपरागत रूप से बनाए जा रहे पानी के टांके दिखाई देते रहते। इस मंज़र में कोई फेरबदल नहीं होता। बस ग्रामीणों की पोशाक में इतना भेद किया जा सकता है कि ये सिंधी से आए हुये लोग हैं या यहीं के बाशिंदे।

रेगिस्तान में और जहां कहीं मनुष्य की आबादी है। उन जगहों के नाम के साथ पानी के संकेत भी जुड़े होते हैं। गाँव और आबादी की पहचान में सबसे अधिक पानी, उसके बाद जानवर और फिर भूगोल का संकेत छुपा होता है। गाँव के नाम के आगे सर, पार और गफन का लगा होना इस बात का संकेत है कि वहाँ पर पानी की उपलब्धता है। जैसे रावतसर गाँव लगभग हर जिले में मिल जाता है। इसमें रावत के इतर सर का प्रयोग पानी की सूचना के तौर पर किया गया होता है। मैं जिस परियोजना के उदघाटन में जा रहा था, उसका नाम था, आरबी की गफन। यह भारत पाकिस्तान की सीमा पर दो लाख वर्ग किलोमीटर में फैले हुए थार मरुस्थल के बीच बसा हुआ गाँव. 

सिंधियों की आबादी वाला गाँव था और वे यहाँ बरसों से रह रहे थे। उनको सिंधी इसलिए भी कहा जाता है कि वे अपनी कला और संस्कृति के लिहाज से सिंध के नुमाईन्दे हैं। उनके अजरक वाले रंग, कोड़ियों वाली कला, रंगीन धागों के पेचवर्क के काम में सिंध मुसकुराता रहता है। वहाँ पर ऐसे ही परिधानों में सजे हुये गाँव के लोग थे। कुछ सरकारी मुलाज़िम थे। कुछ चुने हुये जनप्रतिनिधि थे। जलसा एक औपचारिक आयोजन था। एक बड़े रंगीन तम्बू के तले कुछ देर भाषण हुये और इसे एक उपलब्धि करार दिया गया। इसके बाद दिन का भोज भी था। इस दावत में हलवाई के हाथों की और दक्षिण के मसालों की तेज खुशबू बसी हुई थी।

मैं अपना रिकॉर्डर लेकर उस पंप हाउस तक पहुँच गया। एक बड़े हाल के भीतर बड़ी पानी फेंकने की मशीन लगी थी। यह मशीन बिजली से चलने वाली थी। वहाँ पानी की खोज नहीं की गई थी। पानी का पुराना कुआं था। कोई तीन सौ हाथ से से भी अधिक गहरा। इस पानी को आदम के वंशजों ने सदियों पहले खोज निकाला था। राज्य सरकार ने इस पर एक बिजली की मोटर रख दी है और एक पक्के कमरे का निर्माण कर दिया है। रेगिस्तान में एक गीली भीगी जगह पर अपना पहरा बैठा दिया है। ऐसा ही हाल हर जगह का किया जाता रहा है। मैंने गाँव वालों से पूछा कितना फायदा मिलेगा। वे कहने लगे कि अब पानी तेजी से खींचा जा सकेगा। मेहनत न करनी होगी।

मुझे गहरी उदासी हुई। जिन पुरखों ने पानी का मोल समझ कर एक एक बूंद बचाई थी। उसका मोल अब पानी को खींचने वाला कभी नहीं समझ पाएगा। यह कुदरत का सत्य है कि उसकी दी हुई संपदा का दोहन समझदारी से किया जाए तो ही वह सदा फलदायी हो सकती है। मैंने एक ग्रामीण से पूछा कि ज़मीन के अंदर क्या पानी की फेक्टरी लगी है? वह मेरे इस नासमझी भरे सवाल पर देर तक मुसकुराता रहा। यह उसका दोष नहीं था। हम सब जंगल, ज़मीन और पानी के रिश्ते को कभी समझना ही नहीं चाहते हैं। जो हमारे सामने है उसको दूह लेने के सिवा कुछ कभी सीखा ही नहीं है।

उस यात्रा के दस साल बाद इस सूखे रेगिस्तान में बाढ़ आ गई। यह जान कर आपको भले ही अचरज हो मगर अपने वाटर क्यूब्स को भरने का कुदरत का यही तरीका है। क्यूब माने धरती के अंदर पानी के लिए बनी हुई जगहें हैं। उनका भराव होता रहता है। कवास के पास के एक गाँव के बीच में कई सौ साल पुराना पानी का कुआं सारे गाँव की बाढ़ को पी गया। ये सब हमारे पुरखों का ज्ञान था। उन्होने मशीनों की जगह अपने परंपरागत साधनों की कद्र की और उनका रखरखाव कुदरत के परम मित्रों की तरह किया।

इसी अगस्त महीने के आखिरी गुरुवार को हिमालय का पानी रेगिस्तान के इस मुख्यालय तक पहुंचा। इसका भव्य लोकार्पण किया गया। यह इस रेगिस्तान के लिए बहुत बड़ी नेमत है। अब मीठा पानी पीने के लिए साल भर उपलब्ध रहेगा। रेगिस्तान में इससे पहले भी नहरों के जरिये सिंचाई की जा रही है। उन नहरों ने फसलों की उपज में आशा से अधिक का योगदान दिया है। लेकिन हम इस बात को याद नहीं करना चाहते हैं कि नहरी पानी के रिसाव और भराव से खेती करने लायक बहुत बड़ा भूभाग सैम के कारण बंजर हो गया है। कीटनाशकों ने कुदरत के व्यवहार और वनस्पतियों को बदल दिया है। विज्ञान और परंपरागत ज्ञान की ये बात हमें याद रखनी चाहिए कि रेगिस्तान के पारिस्थितिकी तंत्र को बरबाद करके यहाँ रहने वाले कभी सुखी न हो सकेंगे।

आरबी की गफन में मोटर से सींचे जा रहे पानी और नहर के जरिये शहर तक आ रहे पानी का मोल कौन समझेगा। इसका दुरुपयोग यहाँ की ज़मीन को कैसे ज़ख्म देगा, इसकी परवाह कौन करेगा। मैं विकास का पक्षधर हूँ। आदमी को सुखी करने वाली सभी योजनाओं का दिल की गहराई से स्वागत करता हूँ मगर आदमी के आलसी और स्वार्थी होते जाने के खिलाफ़ हूँ। मैं चाहता हूँ कि इस रेगिस्तान की खूबसूरती और जीवन के अनूठेपन पर कीचड़ न फैले। सुख से जीना है तो जाओ बस जाओ नदियों के किनारे। ये जगह तो कुदरत ने आदिम प्यास वाले और अकूत हौसले वाले आदमी औरतों के लिए बनाई है।
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सांध्य दैनिक राजस्थान खोजख़बर के लिए लिखा गया, असंपादित लेख। 
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[Image courtesy : trekearth.com]

September 5, 2012

तुम्हारे सिवा कोई अपना नहीं है


वे अलसाई नन्हीं आँखों के हैरत से जागने के दिन थे. बीएसएफ स्कूल जाने के लिए वर्दी पहने हुए संतरियों को पार करना होता था. उन संतरियों को नर्सरी के बच्चों पर बहुत प्यार आता था. वे अपने गाँव से बहुत दूर इस रेगिस्तान में रह रहे होते थे. वे हरपल अपने बच्चों और परिवार से मिल लेने का ख़्वाब देखते रहे होंगे. वे कभी कभी झुक कर मेरे गालों को छू लेते थे. उन अजनबियों ने ये अहसास दिया कि छुअन की एक भाषा होती है. जिससे भी प्यार करोगे, वह आपका हो जायेगा. लेकिन जिनको गुरु कहा जाता रहा है, उन्होंने मुझे सिखाया कि किस तरह आदमी को अपने ही जैसों को पछाड़ कर आगे निकल जाना है. 

मुझे आज सुबह से फुर्सत है. मैं अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ सूफी संगीत सुन रहा हूँ. इससे पहले एक दोस्त का शेयर किया हुआ गीत सुन रहा था. क्यूँ ये जुनूं है, क्या आरज़ू है... इसे सुनते हुए, मुझे बहुत सारे चेहरे याद आ रहे हैं. तर्क ए ताअल्लुक के तज़करे भी याद आ रहे हैं. मैं अपनी ज़िंदगी से किसी को मगर भुलाना नहीं चाहता हूँ. उनको तो हरगिज़ नहीं जिन्होंने मुझे रास्ते के सबब समझाये. नौवीं कक्षा के सर्दियों वाले दिन थे. शाम हुई ही थी कि एक तनहा दीवार के पास चचेरे भाई ने अपनी अंटी से मेकडोवेल्स रम का पव्वा निकाला. मैंने अपने हिस्से का आधा पिया आधा गिराया. उस एक कडवी कसैली शाम ने ज़िंदगी भर की शामों को आसान कर दिया. भाई तुम मेरे बेहतरीन गुरु हो. तुम न होते तो मैं छत पर शामें गुज़ारने की जगह एक दिन दुनिया से भाग जाता. 

रेल पटरियों पर चलते हुए किसी का हाथ थाम लेने से पटरी पर चलना आसान हो जाता था. उन पटरियों ने सिखाया कि हाथ थाम कर चलना. पांचवीं क्लास में पढ़ने के दिनों उसी रेलवे स्कूल में एक दिन आठवीं क्लास की एक लड़की को लम्बे बालों वाले गवैये माड़साब के साथ देख लिया था. स्कूल के पार्क वाली साइड में खुलने वाली उस खिड़की के भीतर दिखते दृश्य में वे यकीनन देशगीत का रिहर्सल नहीं कर रहे थे. मैं इस मिस मैच पर बहुत उदास हो गया था. उस पार्क में मैं जिन व्हाइट रेलवे क्रीपर और बाकी रंग के सदाबहार के फूलों को देखने जाता था उनको देखना भूल गया. रेलवे स्कूल का वह दिन बहुत बुरा था. बुरे दिन अक्सर सबसे अच्छे गुरु होते हैं.

बहुत दूर के रिश्ते का या बिना किसी रिश्ते का एक बहुत बड़ा भाई था. दस साल बड़ा. चला गया है, अब कभी लौट कर नहीं आएगा. वह जितना ऐबदार था उतने ही उसके चाहने वाले भी थे. उसके दफ़्तर से कोई सामान लाना था. दफ़्तर सूना था और उसके पास का कमरा बंद था. मैंने बड़ी टेबल पर लगे कांच के ऊपर रखे हुए पेपरवेट को घुमाते हुए इंतज़ार किया. थोड़ी देर बाद भाई आ गया. मुस्कुरा रहा था. मैंने दूसरे दरवाज़े की तरफ देखा. भाई ने आँख मारते हुए कहा, तेरी दूसरी भाभी है. मालूम नहीं क्यों मैं बहुत देर तक मुस्कुराता रहा. उस दफ़्तर से घर तक पसरी हुई रेत पर चलते हुए मैंने चाहा कि अपने चप्पल उतार कर हाथ में ले लूं और नंगे पांव इस रेत पर दौड़ने लगूं. 

अख़बार के दफ़्तर में एक ट्रेनी साथ काम करने आई थी. दफ़्तर के बाहर, कमसिन उम्र की उस पहली मुलाकात में उसने इतने दुःख बयां किये और इस कदर रोई कि मैं उस रेस्तरां से भाग जाना चाहने लगा. उस दिन के बाद से अब तक घबराया हुआ हूँ कि हर लड़की के पास अनगिनत दुःख हैं और तुम उनके सैलाब में डूब सकते हो. बहक बहक कर चलने की जगह, बच बच के चलना. थेंक्यू रोने वाली लड़की कि बहक जाने को होता हूँ मगर संभल जाता हूँ. कई सालों बाद एक लड़की ने कहा. उस बेवकूफ लड़के के बारे में मत सोचो, जो मुझे यहाँ ड्रॉप करके गया है. हम अभी एक आईस्क्रीम खाते हैं, एक जूस लेते हैं. यही हो सकता था मगर आप सीख सकते हैं कि कटे हुए हाथों से बंधे हुए हाथ बेहतर होते हैं. मैं उस दिन से किसी को अपनी ज़िन्दगी से जाने नहीं देना चाहता हूँ कि बेवकूफ लड़के अक्सर रिलेशन्स को ड्रॉप कर देते हैं. 

एक बार पापा ने छोटे भाई से कहा. तुम कर सकते हो अगर तुम चाहो. ये दिन फिर से लौट कर नहीं आएगा. उसने कर दिखाया. वह राजस्थान पुलिस सेवा का अफसर हो गया. वह अपने काम करने के तरीके से अक्सर दोहराता है कि सिस्टम चाहे जैसा हो अपना ईमान कायम रखना. हाथ चाहे बंधे हो मगर बंधे हाथों से भी लोगों की मदद करना. ये सब भी उसे पापा ने ही सिखाया था. जन्म तो कोई भी दे सकता है. पिता होना अलग बात है कि उनके सिवा, वो हौसला और वो रौशनी कौन दे सकता है? पिता जितने पिता थे, उनसे ज्यादा गुरु थे. उन्होंने कुछ एक शब्दों में हमें सब कुछ दिया. सबसे छोटा एक भाई है. उसने बेहद अवसाद में दसवीं कक्षा पास की थी लेकिन कभी हताशा का ज़िक्र नहीं किया. उसने ख़ुद अपनी मंज़िलें चुनी. अकेले सारा रास्ता तय किया. वह इतिहास का एसोसियेट प्रोफ़ेसर है. मुझे उसने सिखाया कि भाई घबराना मत. वह अनेक विचारों से घिरा हुआ अपने काम में डूबा रहता है लेकिन जब कभी मुस्कुराता है तो मुस्कान से उपजी एनर्जी का वेग ऐसा होता है कि तमाम चिंताएं सिमट जाती है.

एक लड़की ने कहा था कि क्या फर्क पड़ता है, शादी के बाद कोई जीये या मर जाये? मैंने ख़ुद से कहा था फर्क पड़ता है. ये कह कर अच्छा किया. वह हर रात मुझे बचा लेती है हज़ार आफ़तों से, हर सुबह भुला देती है सारी शिकायतें. अनेक दोस्तों ने कहा था कि लिखो कि किताब चाहिए अपने बैड पर. उन्होंने लिखवाया. हर शाम फोन करके कहा. हाँ अवसम हो. वे दोस्त कभी भी किसी से मिले तो ज़िक्र यही होता है, केसी को पढ़ा है कभी ? ये पढो... रस्ते में पड़े पत्थर जिनसे ठोकरें खाईं. वे कांटे जिन्होंने खरोंचें दी. वे लोग जो दोस्त और प्रेम बनकर आये और अपने हित साध कर चले गए, ये सब मेरे गुरु हैं.

मैंने आवारगी और बेपरवाही में बिताये कई सालों से बुनी हुई चादर के नीचे पनाह पाई है. मैंने क्रांतिकारियों के गीत गाये. लाल रंग के परचम तले खड़े होकर यकीन को पाया. सीखा कि यही दुनिया है इसी को सुंदर बनाया जाना, सबसे बड़ा सच है. मैं एक खराब और बहिष्कृत कामरेड हूँ. मुझे दोनों ही स्थितियों ने सिखाया. मैं जो कुछ भी बना हूँ वह लोगों का बनाया हुआ है, मैं जो कुछ भी बिगड़ा हूँ ये मेरी ख्वाहिश है... लव यू डैड, माँ, मेरे भाइयों, बीवी और दोस्तों कि तुम्हारे सिवा कोई अपना नहीं है. हेप्पी टीचर्स डे. 

मैंने जो सीखा है, वह शायद तम्हें पसंद न आये मगर उदास न होना. 
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[Image courtesy : Google search]

September 4, 2012

उनींदे की तरकश से


किसी शाम को छत पर बैठे हुये सोचा होगा कि यहाँ से कहाँ जाएंगे। बहेगी किस तरफ की हवा। कौन लहर खेलती होगी बेजान जिस्म से। किस देस की माटी में मिल जाएगा एक नाम, जो इस वक़्त बैठा हुआ है तनहा। उसको आवाज़ दो। कहो कि तनहाई है। बिना वजह की याद के मिसरे हैं। रेगिस्तान में गीली हवा की माया है। पूछो कि तुम कहीं आस पास हो क्या? अगर हो तो सुनो कि मेरे ख़यालों में ये कैसे लफ़्ज़ ठहरे हैं....

तुम्हारे आने तक 
सब्र के आखिरी छोर पर रखा
एक तवील उफ़
एक काले रंग का रेगिस्तान का तूफ़ान।
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चूने की मूरत 
उखड़ती हुई पपड़ियों से झांकते
अतीत के ललाट पर लिखी हुई
सदमों की कुछ छोटी छोटी दास्तानें।
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जादूगरी 
तनहा बैठे गरुड़ के पंखों के नीचे
छुपी हुई उदासी जैसी, सीले दिनों की कोई शाम 
रखता हूँ अपने पास
कई बार ख़ुशी के लिए ऐसे टोटके काम आ जाते हैं।
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किस्मत
वे अनगिनत तीर उड़ गए थे
किसी उनींदे की तरकश से
उन पर लिखा था जाने किसका नाम
मगर हवा बह रही थी, मेरी ही तरफ।
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अज्ञान 
मुसाफिर जानता है
सूरज बुझ जायेगा रेत के कासे के पीछे
प्रेम को इसके बारे में, कुछ भी नहीं पता।
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[Image courtesy : Natasha Badhwar]

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर ...