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Showing posts from 2013

तुम जो बिछड़े भी तो खुशी है

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इस लेख को कहीं भी  प्रकाशित किये जाने की  अनुमति नहीं है.  ये मेरे जीवन का निज हिस्सा  और अपनी सोच का अक्स है. हम अगर कर पाते संभावित दुखों की मामूली सी कल्पना तो जान जाते कि ज़िंदगी का शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं. इस साल के बीतने में एक दिन बाकी है. साइबेरिया से उड़े पंछी रेगिस्तान की ओर आने के रास्ते में हैं. इधर मगर ठण्ड बढती जा रही है. मैं और ज्यादा बर्फ हुआ जाता हूँ कि दिल्ली जो मेरे देश की राजधानी है, वह एक डरावनी बहस में घिरी है. दो प्रमुख दल एक बात बड़े विश्वास से कह रहे हैं कि सस्ती बिजली और ज़रूरत का पानी उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है. मैं घबराया हुआ हूँ कि ‘ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पत्थर के जाते पाँव उखड़’ वाली जिजीविषा वाले मनुष्य ने अपने हौसले को खो दिया है. या फिर ये आदमी के खिलाफ आदमी की ही साजिश है. दोनों में से जो भी सत्य है वह नाउम्मीदी से भरा है. रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी, डूबते साल में हतप्रभ हों शायद. लेकिन ऐसा नहीं है. हम अक्सर अच्छी बातों को भूल जाते हैं और दुखों के सांप गले में लपेटे हुए, ज़हर पिए शिव बने रहने को याद रखते हैं. मैं रात

कोई चरवाहा भी न रखे

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लोग पड़े हैं जाने कहाँ और जाने कहा अपने दिलों को छोड़ आये हैं. समझते हैं खुद को दिल के बादशाह और सोचो तो ऐसे लोगों को कोई चरवाहा भी न रखे. * * * अनजाने अँधेरे की गिरहों से बेढब, बेहोशियारी की बातें करके रात कहीं चली गयी है. पुल नीचे, एक पिलर के पास उसका बोरिया समेट कर रखा हुआ है. पुरानी ज़िंदगी की कलाई में फिर एक नया दिन है, रात की तलाश में निकला हुआ. * * * जिनको जीवन ने अस्वीकार कर दिया था हमारे हाथ के उन चार दानों को मृत्यु कैसे स्वीकार कर सकती है. इसलिए तुम दुनिया में कहीं भी रहो, मैं तुम्हारे पीछे हूँ. * * * पहाड़ो में रहने वाले चूहों से अलग हैं रेतीले मैदानो के चूहे, बाज़ की चोंच मगर असफल है उनके स्वाद को अलग अलग परख पाने में. मैं कैसे भी भूगोल पर चला जाऊं एक याद बीनने लगती है, मेरा रेशा रेशा. * * * कुछ दिन पहले उन्होंने ईश्वर के बारे में कुछ पता करने को सदी का भयानकतम प्रयोग किया था. कुछ दिन बाद एक नन्हीं लड़की रेल में सफ़र कर रही थी. कुछ दिन बाद नहीं, ठीक उसी दिन कवि ने कविता लिखी. * * * धूप ने दीवारों को साये खिड़कियों को रौशनी के फाहे बख्शे हैं. हवा में बर्फ की खु

करमण री गत न्यारी

अ क्ल केह मैं सबसूं बड़ी, बीच कचेड़ी लड़ती दौलत केह मैं सबसूं बड़ी, मेरे हर कोई पाणी भरती सूरत केह मैं सबसूं बड़ी, मेरे हर कोई जारत करते तकदीर केह तुम तीनों झूठे, मैं चावूँ ज्यों करती. ऊदा भाई करमण री गत न्यारी टर सके नहीं टारी आछी पांख बुगले को दीनी, कोयल कर दीनी काली बुगलो जात बाभण को बेटो, कोयल जात सुनारी छोटा नैण हाथी ने दीना, भूप करे असवारी मोटा नैण मृग को दीना, भटकत फिरे भिखायारी नागर बेल निर्फल भयी, तुम्बा पसरिया भारी चुतर नार पुत्र को झुरके, फूहड़ जिण जिण हारी अबूझ राजा राज करे, रैय्यत फिरे दुखियारी कहे आशा भारती दो दरसण गिरधारी. मैं लंबे समय से इस प्रतीक्षा में था कि गफ़ूर खां मांगणियार और साथियों की आवाज़ों में इस रचना को रिकार्ड किया जा सके. अभी एक खुशखबरी मिली कि इन बेहतरीन गायकों को आकाशवाणी ने ए ग्रेड के कलाकारों में शामिल कर लिया है. इस ऑडिशन के लिए भेजी जाने वाली रिकार्डिंग करके भेजते समय मैंने चाहा कि बीस सालों की सबसे बेहतरीन रिकार्डिंग हो सके. उस रिकार्डिंग से कोई रचना कभी ज़रूर आपसे बांटना चाहूँगा मगर फ़िलहाल इसे सुनिए. अक्ल कहती है मैं कचहरी में खड़ी

मंडेला मंडेला

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नौजवान दिनों के दो ही क्रश यानि पहले सम्मोहन हुआ करते हैं, प्रेम और क्रांति. मैं जिस साल कॉलेज से पास आउट होने वाला था उसी साल यानि उन्नीस सौ नब्बे में अफ़्रीकी जन नेता नेल्सन मंडेला को सत्ताईस साल की लंबी क़ैद से मुक्त किया गया था. नए साल के फरवरी महीने की ग्यारह तारीख को दुनिया का ये दूसरा गाँधी विश्व को अपने नेतृत्व और अकूत धैर्य के जादू में बाँध चुका था. दुनिया भर में नेल्सन मंडेला की रिहाई के जश्न मनाये गए थे. बहत्तर साल की उम्र के इस जननायक को बाईस साल के नौजवानों ने अपने दिल में बसा रखा था. हर कहीं अखबारों, रेडियो और टीवी पर इसी महान शख्स के चर्चे होने लगे थे. मंडेला के साथ होना एक ऐसी क्रांति का प्रतीक था जो श्वेतों के विरुद्ध रक्तहीन क्रांति थी. हालाँकि इस क्रांति की नींव में रंगभेद का शिकार हुए अनगिनत काले लोगों की लहुलुहान आत्माएं थीं. हम उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ से सभी मंज़िलें फतह कर लिया जाना चुटकी भर का काम था. देश में राजनितिक बदलाव की सुगबुगाहट थी लेकिन असल में हर युवा एक ऐसी क्रांति की उम्मीद करता था जो देश की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तनकारी सिद्ध हो सके. नौकरशाह

साजन गुडी उडावता

रात को आती है आवाज़ खाली कांच के प्यालों की मगर बिल्ली शराब नहीं पीती. गाय मुतमईन है शहर में प्लास्टिक में बचा कुछ भी खाते हुए उसे क्या गरज होगी ढोल बजाने की मगर आती है लोहे चद्दरों से किसी के टकराने की आवाज़. बूढ़े खुजियाये कुत्ते ने कर ली आत्माओं के रंग और लक्षणों से मित्रता, रोना बंद है उसका इन दिनों मगर मैं जाग उठता हूँ बार बार अचानक. कि आवाजें ज़बरन बुनती है भय के बारीक रेशे. नीम नींद में उठकर बीवी भी बदल लेती है कमरा किसी अच्छी गहरी नींद की तलाश में. सुबह के साढ़े तीन बजे दर्द के बेहिसाब बेशक्ल लिबास में सही जगह की तलाश भटक जाती है अपनी राह से और कोई कारण नहीं मिलता कि दर्द कहाँ और किस वजह से है. सुबह जो लड़का पतंग उड़ा रहा था उसके मांझे पर क्या बारीक कांच पिसा हुआ होगा? क्या अंगुलियां गरम दिनों के आते आते कट न जायेगी कई जगहों से. ऐसे ही खुद को बचाने के लिए हम छिलते जाते हैं. हम खुद खरोंच से कहते हैं आ लग जा मेरे सीने से कर्क रेखा की तरह. ज़िंदगी के मानचित्र पर कुछ जो रेखाओं सा दीखता है वह वास्तव में कट जाने के निशान हैं. हम काफी उम्रदराज़ हो चुके हैं. आ मेरी बाहों में मगर बता क

ज़िन्दगी रात थी, रात काली रही

लोकतन्त्र और चुनावों के बारे में एक प्रसिद्द उक्ति है कि चुनावों से अगर कुछ बदला जा सकता तो इनको कभी का अवैधानिक क़रार दे दिया जाता. इसे याद करते हुए हमें लगता है कि दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देश निश्चित अविधि के बाद नयी सरकारें चुनते हैं किन्तु वे जिस उद्धेश्य और सोच से प्रेरित होकर वोट करते हैं वह कभी पूरा नहीं हो पाता है. हम ख़ुशी से भरे होते हैं कि इस बार ज़रूर कुछ बदलने वाला है लेकिन सिर्फ चहरे और नाम बदल जाते हैं. व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता. आम आदमी के जीवन को आसान करने वाले काम की जगह नया शासन उसी ढर्रे पर चलता रहता है. इस सदी का सबसे बड़ा रोग भ्रष्टाचार है. ये रोग हर बार नए या फिर से चुनकर आने वालों का प्रिय काम बन कर रह जाता है. वे ही लोग जो कल तक इस बीमारी के कारण हुए राष्ट्र के असीमित नुकसान का हल्ला मचाते हुए नए अच्छे शासन के लिए बदलाव की मांग करते हैं इसी में रम जाते हैं. आप अगर कुछ नेताओं के जवानी के दिनों की माली हालत को याद कर सकें तो एक बार ज़रूर करके देखिये. ऐसा करते हुए आप असीम आश्चर्य से भर जायेंगे. ये अचरज इसलिए होगा कि ऐसे अनेक नेता पक्ष और विपक्ष में बराबरी से

ज़ुबानदराज़ होकर भी बेज़ुबान

लालकुर्ती बाज़ार का नाम लो तो जाने कितने शहर एक साथ याद आते हैं. पेशावर से लेकर मेरठ तक. ये लाल कमीज यानि अंग्रेज फौज़ की पोशाक बेचने वाले बाज़ार हर उस छावनी के आसपास हैं जिनको अंग्रेजी उपनिवेश काल में स्थापित किया गया. उस ज़माने के ये छोटे से बाज़ार अपनी तंग सर्पिल गलियों में भीड़ से आबाद रहते हैं. एक पुराना मौसम है जिसकी गंध यहाँ की हर छोटी बड़ी दुकान में समाई रहती है. ऐसा लगता है कि हाथ ठेले वालों से लेकर खुले दरवाज़ों के पीछे लगे हुए ऐ सी वाली दुकानों तक में कोई समय का साया ठहरा है. बारहों महीनों के हर मौसम में इतनी ही भीड़ इतने ही खरीदार और ऐसी ही रवानी. पाँव को आँख उग आती है कि वह हर क़दम पर ठिठक जाता है. सामने कोई अड़ा हुआ दिखाई देता है. भीड़ किस बात की है. भीड़ का ऐसा आलम क्यों है. लोग इतना सामान कहाँ रखेंगे अगर यहाँ से सबकुछ खरीद लेंगे तो नया नया सामान आने में कितना वक़्त लगेगा. इन बाज़ारों और मेरठ की गलियों में पुरातन और ऐतिहासिक यादों के साये में घूमता हुआ सोचता हूँ कि वक़्त अपने साथ क्या ले गया? कुछ ज़िन्दा लोगों की सांसें, कुछ उम्मीदें टूटी हुई. अब भी मगर पौराणिक कथाओं के ग्रंथों से कई

आखर पोटली वाले बातपोश की विदाई

किसी भी लोक की कहावत को अगर हम किसी ख्यात व्यक्ति के नाम से उद्धृत कर दें तो उस पर कोई संदेह नहीं किया जाता कि ये उन्होंने कहा है या सदियों की मानव सभ्यता के अनुभव से जन्मी कोई बात है. ऐसे कहा जाता है कि गुलाब के फूल बांटने वाले के हाथों में गुलाब की खुशबू बची रह जाती है. अचानक सुना कि लोक कथाओं की खुशबू से भरी हुई अंगुलियाँ विदा हो गयीं. अचानक ही याद आया कि एक मित्र ने दस साल बाद भी अभी तक एक किताब नहीं लौटाई है. किताब का शीर्षक है अलेखूं हिटलर. ये किताब उसी लोक गंध से भरी है जिसके कारण बिज्जी यानि विजयदान देथा को जाना जाता है. बिज्जी चले गए हैं या वे कहीं नहीं गए अपने शब्दों के माध्यम से रेगिस्तान की हवा में घुल मिल गए हैं. अदीठ किन्तु हर वक़्त साथ. उस जादुई प्रेत की तरह जो नवविवाहिता पर मोहित होकर एक दुनियादार बन जाने को उकस जाता है. दुनिया में न होते हुए भी साकार दुनिया में उपस्थित. वे कहीं नहीं जा सकते हैं. वे हमेशा हमारे बीच रहेंगे. वे कुछ दोस्त थे. ऐसे दोस्त जिनको लगता था कि राजस्थान की इस बहुमूल्य लोक निधि को संरक्षित करने का काम किया जाना चाहिए. आज़ादी के बाद के पहले तीन दशकों

आतिशदान के भीतर की गंध

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आले में रखी प्रिय की अंगुली से उतरी अंगूठी को छूकर आ रही हवा की खुशबू से भरा कमरा. चित्रकार की आँखों में रंग करवट लेते हुए. * * * रात भर लालटेन की रौशनी में स्मृतियाँ बुनती हैं स्याही पर सुनहरे पैबंद.  दिन के उजाले में घर की बालकनी पर ज़र्द होकर झड़ते हैं मुसलसल पिछली रुत में खिले बोसे. ज़िन्दगी जिसे कहते हैं पड़ी हुई है एक खराबे में.   * * * प्रेम के अतुल्य शोर के बीच प्रेम का अपूर्व दुर्भिक्ष. * * * आतिशदान में बचाकर रखी हैं  अधेड़ प्रेमी-प्रेमिकाओं ने कुछ मुलाकातें. जाने कब उसे आख़िरी बार देख लेने का मन हो और वह आख़िरी बार न निकले. * * * उदास ही सही मगर चुप बैठे हुए, भेजते हैं कुछ कोसने खुद को. तुम न रहो तो ज़रूरी नहीं कि न रहे कोई काम बाकी. * * * हर रुत एक सी कहाँ होती है. कई बार कल की कोई बात पीछे कहीं छूट जाती है. उसी विस्मृति की खोज में उदासी की अंगुली को थामे रहना कैसी मजबूरी होती है. ये सोचना कि किस तरह बदल जाता है सब कुछ. सीली भीगी बारूद की तरह जल ही नहीं पाते. ठहरे हुए वक़्त की गंध सघन होती जाती है. भीगी हुई माचिस की तीलियों को रगड़ कर फै

बात, जो अभी तक न सुनी गयी हो.

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घर के बैकयार्ड में लोहे का एक मोबाईल चूल्हा है. इस पर माँ बाजरे की रोटियां बनाया करती हैं. कभी इस पर काचर का साग पक रहा होता है. अब सर्दियाँ आई तो हर सुबह नहाने के लिए पानी गरम होता रहेगा. आज माँ गाँव गयी हुई है. मैं पानी गरम करने लगा था. चूल्हे की आंच के सम्मोहन में गुज़रे मौसम में टूटा हुआ एक सूखा पत्ता दूर से उड़ कर आग की परिधि में कूद पड़ा. मुक्ति सर्वाधिक प्रिय शब्द है. * * * रौशनी का एक टुकड़ा दरवाज़े से होता हुआ कच्चे आँगन पर गिर रहा है. हवा भी उतनी ही ठंडी है जैसे बरफ की गठरी की एक गाँठ भर ज़रा सी खुली हो. प्लास्टिक की मोल्डेड कुर्सी पर बैठा हूँ. पांवों के पास अँधेरा आराम बुन रहा है. छोले. गाँधी चौक स्कूल के आगे पहली पारी की रिसेस से दूसरी पारी की रिसेस तक. आलू टिकिया के सिकने की खुशबू. और सर्द दिनों में छोलों की पतीली से उड़ती हुई भाप की दिल फरेब सूरत याद आ रही है. रात के वक़्त उजले दिन की याद जैसे कोई पीछे छूटे हुए शहर को बाँहों में भरे बैठा हो. टीशर्ट. उम्रदराज़ होने के बावजूद अपने नीलेपन को बचाए हुए. दूसरे सहोदर, समान रंगी अनगिनत टीशर्ट में से एक. ये

मौत से भी ख़त्म जिसका सिलसिला होता नहीं.

अभी कुछ दिन पहले पेरू की राजधानी लीमा से कुछ ही दूरी पर एक बस पहाड़ी से नदी में गिर गई. जिससे तेरह बच्चों सहित बावन लोगों की मौत हो गई. ये बस पिछले शनिवार की रात सांता तेरेसा की प्रांतीय राजधानी से चला थी. अपने गंतव्य तक पहुँचने से पहले नदी में करीब छः सौ पचास फीट की गहराई में गिरी. इस दुखद समाचार को पढ़ते हुए मुझे सिलसिले से अनेक दुर्घटनाएं याद आने लगी. हमारे देश में हर महीने कहीं न कहीं इसी तरह बस खाई या नदी में गरती है और बड़ी जनहानि होती है. हम हादसे के समय उदास और दुखी हो जाते हैं लेकिन आदतन उसे जल्दी ही भूल भी जाते हैं. पेरू में जो बस नदी में गिरी थी उसमें सवार कोई भी यात्री ज़िन्दा नहीं बच सका. पेरू और हमारे देश सहित दुनिया भर के गरीब और विकासशील देशों के लोग बेहतर सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था न होने के कारण ज्यादातर ट्रक और ट्रेक्टर में सफर करते हैं. इन वाहनों से भी इसी तरह की दुर्घटनाएं होना आम बात है. गाँव के गरीब लोग ब्याह शादियों जैसे अवसरों के लिए भी अच्छे वाहनों का बंदोबस्त नहीं कर पाते हैं. उनकी बारातें ट्रेक्टर ट्रोलियों और जुगाड़ जैसे साधनों से सफ़र तय करती हैं. यात्री पर

उधर बकरे क़ुरबान, इधर बारूद

यहाँ से रेलगाड़ी मुनाबाव और फिर उससे आगे पाकिस्तान जाती है. मैं रेलवे स्टेशन पर एक लम्बे सन्नाटे के बीच दुबका हुआ बैठा था. एक काले रंग का कुत्ता किसी जासूस की तरह रेलवे ट्रेक की छानबीन करके एक ही छलांग में स्टेशन के प्लेटफार्म पर चढ़ आया. उसने मुझे पूरी तरह इग्नोर किया और पास से गुज़र गया. इसी तरह एक बच्चे ने छलांग लगायी और मेरी तरफ बढ़ने लगा. मैं उसे अपलक देख रहा था. बच्चे को ये अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने इशारे से पूछा क्या? एक ही छलांग में प्लेटफोर्म पर कैसे चढ़ जाते हो? आराम से मैं उसकी शान में ऐसा मुंह बनाता हूँ जैसे उसने कोई बहुत बड़ा काम कर लिया हो. वह मेरे पास रेलवे स्टेशन की बैंच पर बैठ जाता है. स्टेशन खाली. रेल महकमे के कामगार टहलते रहते हैं. पुलिस का जवान आधी नींद में स्टेशन को नापता हुआ गुज़र जाता है. क्या नाम है? मोहम्मद शोएब अख्तर किसको लेने आये? बकरे को अच्छा कहाँ से आ रहा है? नागौर से मैं उसके हुलिए को देखने लगा. वह मेरे बेटे की उम्र का था. उसकी पेंट पर चीकट लगा हुआ था. उसके हाथों पर खुश्की थी. बाल उलझे हुए थे. पाँव के स्लीपर घिसे हुए थे. तुम कैसे आये? मैं

दिल के कबाड़खाने में

जोधपुर रेलवे स्टेशन से सोजती गेट और वहां कुंज बिहारी मंदिर की ओर के संकरे रास्ते पर नगर निगम के ट्रेक्टर अपनी हैसियत से ज्यादा की सड़क को घेर कर खड़े होंगे. नालियों से बाहर सड़क पर बह रहे पानी से बचते हुए दोनों तरफ की दुकानों पर हलकी निगाह डालते हुए चलिए. एक किलोमीटर चलते हुए जब भी थोड़ी चौड़ी सड़क आये तो उसे तम्बाकू बाज़ार की गली समझ कर दायीं तरफ मुड़ जाइए. ऐसा लगेगा कि अब तक ऊपर चढ़ रहे थे और अचानक नीचे उतरने लगे हैं. कुछ ऐसी ही ढलवां पहाड़ी ज़मीन पर पुराना जोधपुर बसा हुआ है. तम्बाकू बाज़ार एक भद्र नाम है. घास मंडी से अच्छा. गिरदीकोट के आगे बायीं तरफ खड़े हुए तांगे वाले घोड़ो की घास से इस नाम का कोई वास्ता नहीं है. ये उस बदनाम गली या मोहल्ले का नाम है जहाँ नगर की गणिकाएँ झरोखों से झांकती हुई बड़ी हसरत से इंतज़ार किया करती थीं. त्रिपोलिया चौराहे को घंटाघर या सरदार मार्केट को जोड़ने वाली सड़क तम्बाकू बाज़ार है. नयी सड़क और त्रिपोलिया बाज़ार के बीच की कुछ गलियां घासमंडी कहलाती रही है. घासमंडी और तम्बाकू बाज़ार के बीच एक सड़क का फासला है जिसको 'सिरे बाज़ार' कहा जाता है. ऐसी ही ढलवां, संकड़ी और टेढ़ी म

वो दुनिया मोरे बाबुल का घर

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ज़माना बदल गया है. जिंदा होने का यही सबसे बड़ा सबूत है. किताबें भी बदल गयी हैं. आजकल बहुत कम लोग अपने थैले में किताबें लेकर चले हुए मिलते हैं. कई बार मुझे ये लगता है कि किताबों से हट कर कुछ लोग अपने मोबाईल में खो गए हैं. जैसे मोहल्ले भर की हथाई को सास-बहू के सीरियल चट कर गए हैं. अब हथाई पर आने वाली गृहणी सिर्फ सास बहू सीरियल का संवाद लेकर ही हाजिर हो सकती है. जैसे पहले के ज़माने में किसी का अनपढ़ रह जाना कमतरी या बड़ा दोष गिना जाता था. उसी तरह आजकल हर जगह की हथाई में हाजिर गृहणी के लिए सास बहू सीरियल का ज्ञान और ताज़ा अपडेट न होना कमतरी है. उसकी जाहिली है. इसी तरह का कानून सोशल साइट्स पर भी लागू होता है. अगर किसी के पास फेसबुक, ब्लॉग या ट्विटर जैसा औजार नहीं है तो वे कमतर हैं. लेकिन कुछ चीज़ें कभी भी अपना रस और आनंद नहीं छोड़ती. वे सुस्त या खोयी हुई सी जान पड़ती है मगर उनका रस कायम रहता है. चौबीस अक्टूबर का दिन और दिनों के जैसा ही होता होगा मगर कुछ तारीखें कुछ लोगों की याद ज़रूर दिलाती है. जैसे उर्दू की फेमस अफसानानिगार इस्मत चुग़ताई का इसी दिन गुज़र जाना. ये पिछली सदी के साल इकानवे की बात है जब

ये धुंआ सा कहाँ से उठता है.

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जीवन सरल होता है. वास्तव में जीवन परिभाषाओं से परे अर्थों से आगे सर्वकालिक रहस्य है. युगों युगों से इसे समझने की प्रक्रिया जारी है. हम ये ज़रूर जानते हैं कि हर प्राणी सरलता से जीवन यापन करना चाहता है. मैं एक किताब पढते हुए देखता हूँ कि कमरे की दीवार पर छिपकली और एक कीड़े के बीच की दूरी में भूख और जीवन रक्षा के अनेक प्रयास समाये हुए हैं. जिसे हम खाद्य चक्र कहते हैं वह वास्तव में जीवन के बचने की जुगत भर है. एक बच जाना चाहता है ताकि जी सके दूसरा उसे मारकर अपनी भूख मिटा लेना चाहता है ताकि वह भी जी सके. जीवन और मृत्य की वास्तविक परिभाषा क्या हुई? कैसे एक जीवन के मृत्यु के प्राप्त होने से दूसरे को जीवन मिला. इस जगत के प्राणियों का ये जीवन क्रम इसी तरह चलता हुआ विकासवाद के सिद्धांत का पोषण करता रहा है. विज्ञानं कहता है कि हर एक जींस अपने आपको बचाए रखने के लिए समय के साथ कुछ परिवर्तन करता जाता है. कुछ पौधों के ज़हरीले डंक विकसित हो जाने को भी इसी दृष्टि से देखा जा रहा है. ऐसे ही अनेक परिवर्तन जीवों में चिन्हित किये गए हैं और उन पर वैज्ञानिक सहमती बनी हुई है. क्या एक दिन कीड़ा अपने शरीर पर ज़

साये, उसके बदन की ओट किये हुए

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लड़की एक अरसे से जो जी रही है, उसे नहीं लिखती वजह कुछ भी नहीं है. लड़का एक अरसे से जो नहीं जी रहा है, उसे लिखता है वजह कुछ भी नहीं है. हो सकता है ये दोनों बातें उलट ही हों. मगर ये सच है कि हर एक कंधा गुज़रता है धूप की चादर से साये उसके बदन की ओट किये चलते हैं. * * * कोई फिक्रमंद होगा सुबह के वक्त की पहली करवट पर की होगी उसने कोई याद. बुदबुदाया होगा आधी नींद में कि जिसको धूप की तलब है उसी बिछौने उतरे आंच ज़िंदगी की अहिस्ता. जो पड़े हुए हैं रेत की दुनिया में उन पर बादलों की मेहर करना. हिचकियाँ बेवक़्त आती हैं अक्सर, उलझी उलझी. * * * जिस जगह अचानक छा जाता है खालीपन हरी भरी बेलों के झुरमुट तले चमकती हो उदासी. जहाँ अचानक लगे कि बढ़ गयी है तन्हाई बाद इसके कि बरसों से जी रहे थे तनहा तुम समझना कि कुछ था हमारे प्रेम में और टूट गया. मैंने सलाहों और वजीफों से इतर एक दुनिया सोची है जहाँ जी लेने के लिए एक अदद जिंदगी भर की ज़रूरत होती है वहाँ प्रेम हो सके तो समझना कि जो टूटा वह एक धोखा था. उसका नाम कुछ भी लो तुम मगर असल सवाल होता है कि क्या तुमको सचमुच इल्म है मैंने किस तरह चाहा है तुम्हें.

फ्रोजन मोमेंट

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फो टो के निगेटिव जैसे फिल्म के सबसे छोटे फ्रेम में जादू के संसार की एक स्थिर छवि कायम रहती थी। गली में अंधेरा उतरता तो उसे लेंपपोस्ट की रोशनी में देखा जा सकता था और दिन की रोशनी में किसी भी तरफ से कि नायक नायिका हर वक़्त खड़े रहते थे उसी मुद्रा में। ये फ्रोजन मोमेंट बेशकीमती ख़जाना था। बस्ते में रखी हुई न जाँचे जाने वाली कॉपी में से सिर्फ खास वक़्त पर बाहर आता था। जब न माड़साब हो न कोई मेडम, न स्कूल लगी हो न हो छुट्टी और न जिंदगी हो न मृत्यु। सब कुछ होगया हो इस लोक से परे। रास्ते की धूल से दो इंच ऊपर चलते हुये। पेड़ों की शाखाओं में फंसे बीते गरम दिनों के पतंगों के बचे हुये रंगों के बीच एक आसमान का नीला टुकड़ा साथ चलता था। इसलिए कि ज़िंदगी हसरतों और उम्मीदों का फोटो कॉपीयर है। बंद पल्ले के नीचे से एक रोशनी गुज़रती और फिर से नयी प्रतिलिपि तैयार हो जाती। रात के अंधेरे में भी नायक और नायिका उसी हाल में खड़े रहते। ओढ़ी हुई चद्दर के अंदर आती हल्की रोशनी में वह फ्रेम दिखता नहीं मगर दिल में उसकी एक प्रतिलिपि रहती। वह अपने आप चमकने लगती थी। बड़े होने पर लोग ऐसे ही किसी फ्रेम में खुद कूद पड़ते हैं।

ज़ाहिदों को किसी का खौफ़ नहीं

पिछले कुछ दिनों से बादलों की शक्ल में फरिश्ते रेगिस्तान पर मेहरबान हो गए थे। उन्होने आसमान में अपना कारोबार जमाया और सूखी प्यासी रेत के दामन को भिगोने लगे। हम सदियों से प्यासे हैं। हमारी रगों में प्यास दौड़ती है। हमने पानी की एक एक बूंद को बचाने के लिए अनेक जतन किए है। हमारे पुरखे छप्पन तौला स्नान करते आए हैं। छप्पन तौला सोना होना अब बड़ी बात नहीं रही। लेकिन छप्पन तौला पानी से  रेगिस्तान के एक लंबे चौड़े आदमी का नहा लेना, कला का श्रेष्ठ रूप ही है। वे लोग इतने से पानी को कटोरी में रखते और बेहद मुलायम सूती कपड़े को उसमें भिगोते। उस भीगे हुये कपड़े से बदन को पौंछ कर नहाना पानी के प्रति बेहिसाब सम्मान और पानी की बेहिसाब कमी का रूपक है।    बादल लगातार बरसते जाते हैं और मैं सोचता हूँ कि काश कोई धूप का टुकड़ा दिखाई दे। मेरी ये ख़्वाहिश चार दिन बाद जाकर पूरी होती है। चार दिन बरसते हुये पानी की रिमझिम का तराना चलता रहा। इससे पानी के प्यासे लोग डर गए। उनका जीना मुहाल हो गया। गांवों में मिट्टी के बने कच्चे घर हैं। उनमें सीलन बैठती जा रही थी। कुछ क़स्बों में हवेलियाँ हैं। पुराने वक़्त की निशानियाँ। स

कमर पर बंधी है कारतूसपेटी

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दो कवितायें - तुम्हारी याद की जबकि तुम इतनी ही दूर हो कि हाथ बढ़ा कर छू लूँ तुम्हें। तुम्हारे जाने का वक़्त था या फसाने की उम्र इतनी ही थी कि बाद तब से अंधेरा है। वक़्त की जिस दीवार के साये में सर झुकाये चल रहा हूँ, वो दीवार दूर तक फैली है। धूप नहीं, याद नहीं, और ज़िंदगी कुछ नहीं कि आवाज़ जो लांघ सकती है दीवारें वह भी गायब है। कमर पर बंधी है कारतूसपेटी हर खाने में एक तेरा नाम रखा है। इस तंग हाल में बढ्ने देता हूँ उदासी के भेड़ियों को करीब जाने कौनसा कारतूस आखिरी निकले। काश एक तेरा नाम हुआ होता बेहिसाब और एक मौत का कोई तय वक़्त होता।  * * * अश्वमेध यज्ञ के  घोड़े की तरह मन निषिद्ध फ़ासलों पर लिखता है, जीत। आखिर कोई अपना ही उसे टांग देता हैं हवा के बीच कहीं जैसे कोई जादूगर हवा में लटका देता है एक सम्मोहित लड़की को। हमें यकीन नहीं होता कि हवा में तैर रही है एक लड़की मगर हम मान लेते हैं। इसी तरह ये सोचना मुमकिन नहीं कि तुम इस तरह ठुकरा दोगे, फिर भी है तो... शाम उतर रही है रात की सीढ़ियों से उदास और मेरी याद में समाये हो तुम। [Pai

रेगिस्तान में रिफायनरी की आधारशिला

सुबह अच्छी हवा थी लेकिन बारह बजते ही उमस ने घेर लिया। पचपदरा के नमक के मैदानों पर तने हुये आसमान में हल्के बादल आने लगे। मैं सवेरे छह बजे घर से निकला था। रेत के मैदान से नमक भरी जगह पर आ गया था। विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए तैनात जांच दल और प्रवेश पास बनाने वाली एजेंसी के पास जाते ही मालूम हुआ कि हमारे पास जिला मुख्यालय पर पीआरओ के पास हैं। ये बेहद उदास करने वाली बात थी। तीन दिन पूर्व पास बनाने के लिए किए गए निवेदन के बावजूद वे समय पर मिल नहीं पाये। मैं कार में अनमना बैठा था कि इंतज़ार करने के सिवा दूजा कोई रास्ता न था। इस तरह के वीआईपी दौरों के समय कई तरह की असुविधाएं होती हैं इससे मैं वाकिफ हूँ। लेकिन लापरवाही भरे तरीके से प्रवेश पास का गैरजिम्मेदार लोगों के पास होना और समय पर पहुँचकर भी सभा स्थल पर रिकार्डिंग के लिए अपने उपस्करणों को स्थापित न कर पाना अफसोस की बात थी। सुबह जब हमारी टीम वहाँ पहुंची तब तक सब खाली था। कुछ देर पहले लगाए गए होर्डिंग्स और बैनर रस्तों को नया लुक दे रहे थे। ज़्यादातर होर्डिंग अपने नेता के प्रति वफादारी या अपनी सक्रिय उपस्थिती दिखाये जाने के लिए

जो अपना नहीं है उसे भूल जाएँ।

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ये परसों रात की बात है। शाम ठीक से बीती थी और दफ़अतन ऐसा लगा कि कोई ठहरा हुआ स्याह साया था और गुज़र गया। मेरे आस पास कोई खालीपन खुला जिसमें से ताज़ा सांस आई। काम वे ही अधूरे, बेढब और बेसलीका मगर दोपहर बाद का वक़्त पुरसुकून।  कहीं कोई उदास था शायद, वहीं कोई शाद बात बिखरी हो शायद। * * * ऊंट की पीठ पर रखी उम्र की पखाल से, गिरता रहा पानी  और रेगिस्तान के रास्तों चलता रहा मुसाफ़िर ज़िंदगी का।  बस इसी तरह बसर हुई।  कम फूलों और ज्यादा काँटों वाले दरख्तों, धूप से तपते रेत के धोरों और अकूत प्यास से भरी धरती वाले ओ प्यारे रेगिस्तान, तैयालीस साल असीम प्रेम देने का बहुत शुक्रिया।  तुम्हारे प्रेम में आज फिर एक नए बरस की शुरुआत होती है। जन्मदिन शुभ हो, प्यारे केसी। * * * शाम ढले घर में पाव के सिकने की खुशबू थी।  पेशावर से मैं कभी जुड़ नहीं पाता। मुझे मीरपुर खास ही हमेशा करीब लगता है। देश जब बंटा तो सिंध से आए रिफ़्यूजियों के हर झोले में गोल ब्रेड थी। जिसे वे पाव कहते थे। कोई तीस हज़ार साल पहले किसी कवक के गेंहू के आटे में पड़ जाने के बाद जो फूली हुई रोटी बनी, ये उ

रेगिस्तान का आसमान अक्सर

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रेगिस्तान के बीच एक पथरीले बंजर टुकड़े पर कई लोगों को कल देखा था, मैंने। कोलाहल के अप्रिय रेशे छू न सके मेरे कानों को कि कुछ इस तरह भरी भीड़ में तेरी याद को ओढ़ रखा था, मैंने। कितने ही रंग की झंडियाँ लहराती थी हवा में मगर मैंने देखा कि तुम बैठे हो वही कुर्ता पहने कल जो तुमने खरीदा था याद आया कि कपड़ों की उस दुकान में जाने कितने ही रंगों को चखा था हमने। सुगन चिड़ी बैठी थी जिस तार पर वहीं मैं टाँगता रहा कुछ बीती हुई बातें कोई भटकी हुई बदली उन बातों को भिगोती रही लोगों ने ये सब देखा या नहीं, मगर देखा मैंने। बाजरा के पीले हरे सिट्टों पर घास के हरे भूरे चेहरे पर शाम होने से पहले गिरती रही बूंदें जैसे तुम गुलाब के फूल सिरहाने रखे झांक रहे हो मेरी आँखों में याद के माइल स्टोन बिछड़ते रहे कार के शीशे के पार खींची बादलों की रेखा मैंने। मैं कहीं भी जाऊँ और छोड़ दूँ कुछ भी तो भी तुम मेरे साथ चलते हो। बीत गया वो जो कल का दिन था और उसके ऊपर से गुज़र गयी है एक रात पूरी। मगर अब भी तुम टपकने को हो भीगी आँख से मेरे। [बस इसी तरह बरसता है रेगिस्तान

सबकी पेशानी पर है प्रेम की थोड़ी सी राख़

दो दिन की डायरी के तीन टुकड़े।  रेत के बीहड़ में लोहे के फंदे में फंसी एक टूटी हुई टांग के साथ असहनीय दर्द की मूर्छा लिए हुये तीन सामर्थ्यहीन टांगों से छटपटाता है हिरण। हिरण, जो कि एक प्रेम है। अर्धचेतना में डूबा अपने महबूब शिकारी की प्रतीक्षा में रत। मृत्यु और भोर के बीच एक निश्चेष्ट होड़।  उसके होठों जितनी दूर और उतनी ही प्यासी, बुझती हुई हिरण के आँखों की रोशनी। इस तड़प के वक़्त बेखबर शिकारी सो रहा है जाने किस अंधेरे की छांव। हिरण के डूबते दिल की आवाज़ समा रही है धरती की पीठ में। वह तड़पता है फंदे में बेबस और लाचार।  सबकी पेशानी पर है प्रेम के अतीत की थोड़ी सी राख़।  मैं एक अघोरी हूँ। जो बैठा हुआ हुआ है छत पर और रेत उड़ उड़ कर गिर रही है सूखे प्याले में। 15 Sept 2013 8 PM वक़्त में नमी रही होगी। दीवार के बीच कहीं एक पत्थर के आस पास से झड़ गया था सारा सौदा जिसके साथ रहा होगा वादा थाम कर रखने का। ऊपर खुला आसमान था लेकिन बाकी तीन तरफ खाली छूटी हुई लकीरों को किसी तत्व का नाम नहीं दिया जा सकता था। उस जगह को दरारें ही कहना एक मजबूरी थी।  पत्थर मगर अटल था किसी