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Showing posts from January, 2023

कोई क्या ही जानता है

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तुम बहुत सेफ खेले।  ये पढ़कर बहुत देर मुस्कुराता रहा। दो दिन बाद लगा कि ये बस मुस्कुराने की बात नहीं थी। तीन दिन बाद याद आया कि रेल में यात्रा के समय जो नेटवर्क डिस्कनेक्ट होता है, वह कभी कभी बहुत सारी नासमझी छोड़ जाता है।  रेल तुम्हारे पास ठीक मोबाइल नेटवर्क कब होगा? कि जो किसी को बेरुखी लगे, वह किसी को इंतज़ार में होना लगता रहे।  कुछ भी सेफ नहीं है। शुक्रिया।  *** एक रेलगाड़ी रेगिस्तान को चीरती हुई चलती है। पहाड़ की उपत्यका में जाकर ठहर जाती है। कभी पहाड़ नहीं जा पाती। ऐसे ही बहुत कुछ है।

औंधे पड़े ताश के पत्ते

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जूतों पर पान के पीक के दाग़, अंगुलियों में जले तम्बाकू की बासी गंध, सलवटों से भरी पेशानी पर उलझे बिखरे बाल, कमीज़ के कॉलर पर सियाह गिरहें, आस्तीनों में पड़ी अनगिनत सलवटों के साथ जुआरी ताश के औंधे पड़े पत्तों को टुक देखता था।  जैसे प्रेमी बैठा हो असमाप्य प्रतीक्षा में।  जीत कर जुआरी जूते बदलेगा, नहाएगा बहुत देर तक, चेहरे पर समंदर पार से आई खुशबू लगाएगा, सफेद कमीज पहन लेगा, ताश के पत्तों से दूर किसी शराबखाने में व्हिस्की के पास बैठा होगा।  जब तुम आ जाओगे और प्रेमी की प्रतीक्षा समाप्त हो जाएगी तब प्रेमी कहीं नहीं जाएगा। वह कहेगा थक गए हैं। आओ धरती पर लेट जाएं कि इंतज़ार बहुत कड़ा होता है। अब हम मिलकर आकाश देखते हैं कि इसे सदियों देखा जा सकता है।  लेकिन अकसर जुआ और प्रतीक्षा खत्म नहीं होती।

गिरजे का अकेलापन

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मंच से उतरे व्यक्ति का अकेलापन, उसके लिए बहुत डरावना होता है।  व्यक्ति हर क्षण मंच तक पहुंच जाने की लालसा से भरा हुआ अथक प्रयास करता रहता है। जन समूह के समक्ष आसन पर बैठकर कला, साहित्य, सिनेमा, नीति और अन्य सामाजिक विषयों पर अपनी सीमित समझ का ब्योरा देने के समय मानसिक उत्तेजना और अंधे अदृश्य अहंकार की पुष्टि के ठीक बाद वह स्वयं को भीड़ के बीच और बेहद सामान्य व्यक्ति की तरह पाता है।  ये सचमुच पीड़ादायक है। जलसे का वह हिस्सा खत्म हो चुका है। श्रोता और दर्शक अब किसी और को देख सुन रहे हैं। अभी अभी का नायक पदच्युत हो चुका होता है। प्रसिद्धि और प्रयास काम नहीं कर पाते। वह अकेला रह जाता है।  इस समय अकेले में अकेलापन या निराशा नहीं आती वरन एक हताशा कठोर प्रहार करती है। इसलिए टूटन बेहिसाब होती है। वह जिस जन को एक स्थाई शोर और चीयर समझा था, वह क्षणिक ठहरा।  मैं और संजय एक बंद दुकान के पेढ़ी पर बैठे थे। कुछ ऐसी बातें कर रहे थे।  हमारे पास कुछ कहानियों और कुछ उपन्यासों की बातें थी। इनके बीच संजय ने व्यक्ति के वर्चुअल के स्पेस के बारे में सुंदर बात कही। ये इस समय का सच है।  मैं और संजय सोशल साइट्स

अलीजा की उनींदी आंख से गिरा लम्हा - दो

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सपने कितने अच्छे होते हैं न? पहाड़ की तलहटी, रेगिस्तान का कोई कोना या समंदर के किसी किनारे नीम रोशनी में एक दूजे के साथ होना और फिर वह प्यार करना, जिसे सोच कर जिए जाते रहे कि काश ऐसा हो।  हालांकि हम ऐसी ही जगह पर थे। ये अचंभा था। किसने सोचा था? चार पांच बरस पहले की दौड़भाग भरी मुलाकात के बाद, ये क्षण सचमुच आएगा।  हम दूर रहते हुए जितना कुछ सोचते थे, वैसा कुछ नहीं हो रहा था। हम मिलकर गले लगकर चुप बैठ गए थे। जैसे किसी बच्चे को उसके सपनों के संसार में बिठाकर कह दिया जाए, जल्दी करना हमें वापस जाना है।  कुछ नहीं सूझ रहा था। न तो कोई गहरे बोसे याद आ रहे थे। न हमने एक दूजे को बाहों में भरकर स्क्वीज किया। हालांकि हम ऐसी बहुत बातें करते थे।  उसने अपनी तर्जनी से मेरी बाईं हथेली पर कुछ लिखा। मैंने पूछा क्या?  उसने नज़रें नहीं उठाई। मैं भी खिड़की के कांच के पार धुंधले साए सोचने लगा। अचानक उसने कहा "लिखने से सचमुच आराम आता है?"  मैंने कहा "पता नहीं"  वह कहती है "मेरे पिताजी डायरी लिखते थे। वे देर रात को जब भी जागते डायरी लिखने बैठ जाते थे।"  मैंने कहा "हर कोई अपना

विष के मद से भरी सांसें

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कभी बरसों बाद उसी सूने रास्ते पर वो फिर दिख जाएगा, ऐसा कौन सोचता है।  मैं अक्सर टूटी हुई चीज़ों को सावधानी से छूता हूँ। दुख जब किसी को तोड़ते हैं, तब वे तेज़ किनारे छोड़कर जाते हैं। दुख नहीं चाहते कि फिर से उनको कोई गले लगाकर बिसरा दे और हमको फिर से तोड़ने आना पड़े।  वो बरस कौनसा था, दिल से ये भी मिट गया था। कुछ याद नहीं रहा। रूठकर बिछड़ने की जगह लड़ कर पीड़ा से भरे बिछड़ना हुआ था।   परसों अचानक एक तस्वीर दिखी। हम चारों एक ही बिस्तर पर सटे पड़े थे। गद्दे पर रखे हुए भरे भरे शराब के प्यालों से बेफिक्र थे। कि औचक कहा "इतनी जल्दी और इतना सारा क्यों पी रहे हो?" प्याला हाथ में लिए एक से दूजे कमरे फिर बालकनी और फिर घर के आगे सीढ़ियों पर बैठ गए थे। "ऐसे ही अच्छा लगता है। खासकर तुम आस पास रहो तो एक बार में ही ड्रिंक खत्म कर के तुमको देखता रहूं।   सब खत्म हो जाता है। मैं जब भी ये कहता तुमको बहुत शिकायत होती थी। भरोसा नहीं होता था। तब तुमको पता नहीं था। बाद में पता चला कि मैं डायरी में ककहरे भी सहेज कर रखता हूं।  पुरानी डायरियां पढ़कर ही मुझे विश्वास हुआ कि अब तक सबकुछ नष्ट ही तो ह

सूने स्टेशन पर रेलकोच

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हम दो तरह के लोगों एक बीच जीते हैं।  एक वे लोग, जो बार बार टकराते हैं। अनियतकाल के लिए पटरी पर दौड़े जा रहे डिब्बे के सहयात्रियों की तरह। एक दूजे से मिलते, दिखते और फिर अपने कूपों में कहीं खो जाते हुए। उदासीनता और अप्रेम से भरे हुए। किसी मजबूरी से बंधे, बाहर न भाग पाने की हताशा में उपलब्ध लोगों के साथ मुस्कुराते हुए।  दूसरी तरह के वे लोग होते हैं। जो चुपचाप आए थे और बिना कोई आहट किए चले गए। उनकी याद से अधिक उनकी उपस्थिति महसूस होती रहती है। रोज़ के जीवन में कभी कभार जैसे किसी सूने रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकती है और हम कुछ क्षणों के लिए डिब्बे से उतर जाते हैं। ठीक ऐसे ही उन लोगों के पास पहुंचते हैं। उनकी लिखी चिट्ठियां खोजते हैं। पोस्टकार्ड देखते हैं। उनके लिखे ब्लॉग, कविताएं और कहानियां पढ़ते हैं। उनकी किसी तस्वीर में उनका अकेलापन पढ़ते हैं और फिर चाहते हैं कि वे खुश रहें।  जीवन की रेल अचानक फिर से चल पड़ती है। सब स्टेशनों से बाहर जाने के रास्ते बंद हैं।  कभी कभी लगता है कि असल में चौकीदार हमारे दिमाग पर ताला लगाकर चले गए हैं। और हम किसी भी स्टेशन पर उतरते ही रेल छूट जाने के डर से दौड़क

दही बड़े

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साढ़े पांच सौ किलोमीटर का सफ़र करना होता है इसलिए हम एक नियत गति से हाइवे पर चलते रहते हैं। गुप्ता जी के दही बड़े की दुकान अक्सर पीछे छूट जाती है।  उन्नीस सौ सात में आगरा से आकर खेमचंद जी गुप्ता ने ब्यावर और बर के बीच सेंदड़ा गांव में दही बड़े की दुकान खोली थी।  अब ये दुकान हाइवे पर है। इसे राहुल गुप्ता संभालते हैं। दुकान के आगे एक तिपहिया से सकोरे उतारे जा रहे थे। मैंने पूछा "इतने सारे"  राहुल कहते हैं "हमारे दही बड़े, रबड़ी और कलाकंद मुंबई तक जाते हैं। इन सकोरों में ताज़ा बने रहते हैं। हम हर रोज पार्सल तैयार करते हैं।"  दुकान के भीतर कुछ पोस्टर लगे हैं। इनमें राजनीति से जुड़े जुड़े लोगों की तस्वीरें हैं, जो गुप्ता जी के दही बड़े खाकर गए। कुछ एक ख़बरें हैं, जो इस दुकान के इतिहास के बारे में बताती हैं।  परिवार के लोगों की तस्वीरें भी हैं। उनमें एक अलग दिखते हैं। मैं पूछता हूं ये कौन हैं। राहुल जी बताते हैं कि जब पड़ दादा जी ने ये दुकान शुरू की थी, तब ये छोटे बच्चे थे। ये दुकान पर काम करने लगे। पड़ दादा और दादा लोग चल बसे लेकिन ये अभी तक हैं। इनकी उम्र सौ साल के पास