भाजपा का हमला नहीं, ज्यादा खा चुकी बकरी के आफरे के बाद की मिंगणियां है

मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और उनके सिपहसालार विधायक रमेश मेन्दौला के कथित घोटालों के बारे में प्रकाशित खबरों के बाद राजस्थान पत्रिका समूह के अखबार 'पत्रिका' पर हमले किये जा रहे हैं. संसद में जयपुर के सांसद महेश जोशी ने इसे भाजपाई गुंडागर्दी कहते हुए इन हमलों के खिलाफ पुरजोर आवाज़ उठाई. पत्रिका के गुलाब कोठारी ने इसे भाजपा के भय से कांपती मथुरा का नाम दिया है.

समाचार पत्रों पर फासीवादी हमले कोई नयी बात नहीं है. हमारे देश में इस तरह के हमले स्वतः स्फूर्त हो कर सदा ही प्रायोजित होते हैं. दक्षिण के क्षेत्रीय दल हों या शिव सेना की परंपरा में उपजे महानगरीय उदंड समूह, सबने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए इस तरह की ओछी हरकतें नियमित रूप से की है. मुझे याद नहीं आता कि इस तरह के हमलों के बाद पुलिस ने कोई उचित कदम उठाये होंगे. सर फूटे हुए पत्रकार फिर से अपने काम में जुट गए क्योंकि उनका प्रबंधन समाचार पत्र चलाने के धंधे को अपने पत्रकारों की तुलना में सदा वरीयता पर रखता आया है.

राजस्थान पत्रिका का भाजपा पर लगाया आरोप उतना सीधा नहीं है जितना दिख रहा है कि करोड़ों के घोटाले की खबरें छापने के कारण ये सब हो रहा है. इसके मूल में कुछ और बातें है जिन्हें समझने के लिए कैलाश विजयवर्गीय को भूल कर इसे एक समाचार कार्पोरेट समूह और सरकार के व्यवसायिक रिश्तों के तौर पर देखना होगा. मंत्री और विधायक की तानाशाही लोकतंत्र पर कलंक है मगर इस खबर को पत्रिका ने व्यवस्था पर केन्द्रित करके व्यक्ति विशेष पर किया है और भाजपा पर गुंडा गर्दी का आरोप मुझे सरासर वाहियात इसलिए भी लगता है कि पत्रिका समूह स्वयं भाजपा के मुखपत्र का दायित्व निभाता रहा है.

भास्कर समूह के राजस्थान में आने के किस्से से सब भली भांति परिचित है. एक तरफा और प्रायोजित खबरों के अभियान से उपजे द्वेष के चलते हुए राजस्थान भाजपा के एक वरिष्ठतम नेता अपने सम्बन्धों के चलते पत्रिका के तोड़ के लिए भास्कर समूह को राजस्थान में लाये थे. उस समय दैनिक नवज्योति कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था मगर वह समूह अजमेर अंचल के बाहर अपना अपेक्षित प्रसार कभी नहीं कर पाया था. नवभारत टाईम्स भी अपने व्यवसायिक हितों की पूर्ति होने के कारण जयपुर से खुद को हटा चुका था और राज्य में पत्रिका अकेला समूह था जिसकी तूती बोलती थी.

आज जनपक्षधरता की बात करने वाले इस अखबार में जनता से जुड़ी खबरों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैं इसे समाचार पत्र की मनमानी और जनता की लाचारी कहता हूँ. पत्रकारों के नाम पर जिला मुख्यालयों पर आकाशवाणी के लिए जिले की चिट्ठी लिखने जैसा औपचारिक काम करने वाले लोग थे. खबरों का आलम ये था कि भाजपा से अलग किसी विचार और आन्दोलन की सिंगल कालम न्यूज तक नहीं लगाई जाती थी. सीकर में इसी अखबार के जनविरोधी रवैये से खफा होकर वामपंथी छात्र, युवा और किसानों ने होली जलाई थी और अख़बार को जिले में घुसने ही नहीं दिया था. तब यह समूह कांग्रेस को लाचार सरकार बता रहा था. व्यापक विरोध के बाद शर्मसार पत्रिका ने किसी जन आन्दोलन को पहले पन्ने पर स्थान दिया था.

भास्कर समूह के आगमन के बाद राज्य के पत्रकारों को उचित सम्मान और अवसर मिलने लगे. गली मौहल्लों में हज़ार पांच सौ की प्रसार संख्या वाले लघु समाचार पत्रों में काम करने वाले असंख्य योग्य युवाओं को इस क्षेत्र में कुछ कर पाने का अवसर मिला, वेतन के नाम पर हो रहे शोषण में कुछ राहत मिली और व्यवसायिक स्पर्धा के चलते छोटे - छोटे शहरों और कस्बों में अखबारों के ब्यूरो खुलने लगे तब कहीं जाकर आम आदमी को उससे जुड़ी खबरें पढ़ने को मिली. पत्रिका के एक सत्तात्मक रवैये से ऊबे हुए आम आदमी ने भास्कर को आते ही सर पर बिठाया जयपुर में इसने पहली तिमाही में ही पत्रिका को बीस हज़ार पाठक पीछे छोड़ दिया था. आज पत्रिका उसी कहानी को मध्यप्रदेश में सफलता पूर्वक दोहरा रहा है.

कल जब संसद में माननीय हरीश चौधरी, बद्री जाखड़, गोपाल सिंह शेखावत सहित कई सांसद पत्रिका के पक्ष में आवाज़ उठा रहे थे तब मुझे अब तक के सभी छात्र संघ, नगर निगम और आम चुनाव याद गए. इन सब में पत्रिका कभी निष्पक्ष नहीं रहा है उसने सदा ही दक्षिणपंथी विचारधारा के लिए प्रायोजक का काम किया है. आपको यकीन हों तो एक सीधा सा काम कीजिये, इस समाचार पत्र की फाईल कॉपी लीजिये और अपने बच्चे के बस्ते से पैमाना निकाल कर नाप लीजिये कि दक्षिणपंथी फासीवादी दल के प्रत्याशियों के लिए इस समाचार समूह का रवैया क्या रहा है ? और इन्हीं हरीश चौधरी जैसे प्रत्याशियों को कितना स्पेस मिला है ?

राजस्थान में भास्कर के आगमन के बाद पत्रिका ने मध्यप्रदेश में कदम रखा है. पत्रिका वहां जन जागरण के लिए नहीं गया बल्कि मुझ सा मूर्ख भी जान सकता है कि ये शुद्ध व्यवसाय है. जो समाचार पत्र करोड़ों के घोटाले उजागर करने की बात करता है, उसी समूह के एक पत्रकार ने प्रशासनिक सेवा अधिकारी के घोटालों की खबरें लिखी तो तीसरे दिन पत्रिका प्रबंधन ने उसे इतना धमकाया कि वह पत्रकार मानसिक अवसाद की स्थिति में गया. उसकी खबरें ड्रॉप कर दी गई, उसे कहा गया कि इन सब में तुम्हारी रूचि क्यों है ? खैर ऐसे बहुत से किस्से हैं. ऐषु सुप्तेषु जागर्ति का दावा वास्तव में स्वयं के व्यवसाय को जगाने का दावा मात्र है.

मैं पत्रिका पर हो रहे हमलों का विरोध करते हुए तीव्र शब्दों में भर्त्सना करता हूँ मगर ये मसला इससे बढ़ कर कुछ नहीं है कि ज्यादा खा लेने से अघाई हुई बकरी को आफरा चढ़ आया है और सूखी हुई मिंगणियों का दोष जो पहले कांग्रेस की लाचारी और वामपंथियों की गुंडा गर्दी को जाता था आज वह भाजपा को जा रहा है. एक राजस्थानी कविता की दो पंक्तियाँ याद रही है.

कोई किंयाँ , अर कोई किंयाँ
पण है सगला का सगला ईंयाँ

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