मेहरबानों के घर के बाहर


उस रात अमावस्या को गुज़रे हुए कोई दो तीन दिन ही हुए होंगे. सब तरफ अँधेरा ही अँधेरा था. आकाश तारों से भरा था. धरती के ज़रा दायीं तरफ दक्खिन की ओर जाती हुई दिप-दिपाते हुए तारों की एक लम्बी श्रृंखला आसमान के ठीक बीच नज़र आ रही थी. वह पांडवों का रास्ता है. हाँ, वही होगा जिसे वड्सवर्थ ने मिल्की वे कहा है. उसने इस सब को इतने गौर से कभी नहीं देखा था. वह सिर्फ़ सोचता था कि तारे कहां से निकलते हैं और किधर ड़ूब जाते हैं. उसने ये कभी नहीं सोचा कि अँधेरा भी ख़ुद को इतनी सुन्दरता से सजा लेता है. उसने अपना हाथ किरण के कंधे पर रखे हुए कहा. "तारों को देखो किरण.."

मुझे जाने क्यों सहसा सुख हुआ कि भले ही सुबह ओपरेशन के बाद वह बचे या नहीं मगर यह उसके जीवन के अनन्यतम श्रेष्ठ क्षणों में से एक क्षण है. मैं राजशेखर नीरमान्वी की कहानी पढ़ रहा था. कई दिनों से मैं रास्ता भटक गया था. मेरे जीवन जीने के औजार खो गए थे. इस जीवन में जिधर भी देखो आस पास कई सारी शक्लें जन्म से लेकर मृत्यु तक मंडराती रहती है. उनमे से कई हमारे जन्म से पूर्व प्रतीक्षा में होते हैं और कई हमारी मृत्यु के पश्चात् भी हमारी स्मृतियों में डूबे रहते हैं. इन चेहरों को समाज अपना कहता है. मैं सोचने लगता हूँ कि ये अपने किसलिए होते हैं? ये किस तरह की खुशियां लेकर आते हैं अथवा हमारे जीवन पथ के शूल कब कब बुहारते हैं. क्या ऐसा होता भी है कि ये हमारे उघड़े हुए दुखों पर अपनी आत्मीयता का पैबंद भी रखते हैं. अचानक मेरे भीतर से कोई नकार जागता है. अनुभव कहते हैं कि अपना तो कोई कोई ही होता है बाकी सब समाज के छद्म जाल हैं.

मैं जो कहानी पढ़ रहा था उसका नायक अपने पिता को कोसता है कि उन्होंने अपने स्वार्थ अथवा दुनिया की लकीर को बचाए रखने के लिए शादी करने को बाध्य किया. उसे अनेक अवसरों पर बाल्टी भर कर आंसू बहाने वाली अपनी माता भी याद आई. एक ऐसी माता जो जन्म देने का प्रतिफल चाहती थी. उसे वे सब दयनीय चेहरे याद आये जो समाज की रीति की वेदी पर सिक रहे थे. उसे याद आता है कि वह स्वयं कितना कमजोर था कि जिस समय रूढी की दीवार को ठोकर मारनी चाहिए थी, उसने आत्मसमर्पण कर दिया था. इस समय वह कृशकाय हो चुका था और चिकित्सकों का कहना था कि आंतें सूख चुकी है जीवन का कोई भरोसा नहीं है. ऐसे में लिपे पुते हुए चेहरे वाली उसकी धर्मपत्नी अपनी सहेलियों के साथ उसे देखने आई है.

नायक का मन इस कदर घृणा से भरा होता है कि वह पत्नी के द्वारा किये गए स्पर्श के लिए कोई प्रतिक्रिया करने के स्थान पर सोचता है कि इसके आंसुओं को रुक जाना चाहिए ताकि क्रीम पाउडर उतर न जाये. इस नकली चेहरे को सजाने में ख़राब हुआ समय और धन बेकार न चला जाये. नायक की इस मनोदशा के बारे में पढ़ते हुए मैं सोचता हूँ कि शादी का अर्थ होता है ख़ुशी. यह किस तरह की ख़ुशी है जिसमें एक तरफ घोर उपेक्षा और दूजी तरफ एक घृणा का बसेरा है. मुझे इससे भी अधिक अफ़सोस इस बात का होने लगता है कि समाज या जो अपने कहलाते हैं वे सब इन्हीं स्थितियों को बनाये रखने के लिए मरने को तैयार हैं. उनकी आँखें आंसुओं से भरी है. उन्होंने मुंह फेर लिए हैं कि उनका अपना इस बंधन से मुक्त क्यों होना चाहता है. ये अपने हैं क्या ?

कहानी इस समाज की विवाह व्यवस्था के आस पास की है. लकीर को पीट रहे समाज की क्षणिक तस्वीर दिखाती है. एक ऐसा समाज जिसमें माँ, पिता और तमाम सगे सम्बन्धी विवाह की रट लगाये रहते हैं. उस वक़्त से ही जब बच्चा बोलना सीखता है. गोया कि बच्चे पैदा करना और उनका विवाह कर के मर जाना ही एक मात्र शास्त्रीय कार्य है और स्वर्ग का आरोहण कर रही गाय की पूंछ है. वे ऐसा किसलिए कर रहे हैं? उनके पुरखों ने भी ऐसा ही किया था. उनके पिता भी माता को पीटते हुए और माताएं पिता को उपहास के झूले में झुलाते हुए जीती रही हैं. जब उनके साथ ऐसा ही हुआ तो फिर उनकी संतान क्योंकर खुश होकर अपनी पसंद के बंधन चुन और त्याग सकें.

यह ढपोर शंखों की दुनिया है. इसकी सब आवाजें खो गयी है. बचा हुआ सुर है वह एक सरीखी रेंक है. चौतरफ बंधन हैं, ख़ुद के भ्रम से रचे गए बंधन. जन्म पर उल्लास की नदियाँ बहा देने वाले और मृत्यु पर शोक के विशाल पर्वतों की श्रृंखला रच देने वाले नासमझ इंसानों के समूह का आचरण, जिसे हम सामाजिकता कहते है, बड़ा खोखला, कुंठित और निर्दयी है. समाज की इस अवस्था के बारे में सोचता हुआ मैं फिर से कहानी में लौट आता हूँ. राजशेखर की यह कथा छठे दशक के हिंदुस्तान की कहानी है. सोचता हूँ पढ़ लिख कर बेहतरी की ओर बढ़ रहे समाज की हालात में अभी तक कोई परिवर्तन आया है. कहानी लिखने के बाद के इन पचास सालों में हमारी रूढ़ियाँ और समझ उसी खूंटे के चक्कर काट रही है जिस से हमारे पुरखे बंधे हुए थे.

उस दौर की माँ केपिटलिस्ट थी. जिसने सब अधिकार अपने कब्ज़े में कर लिए थे और पिता इसके विरोध में कम्युनिस्ट हो कर लड़ते रहे. पत्नियाँ आंसुओं की दुकानें थी और राशन कार्ड के हिसाब से उचित अवसरों पर यथायोग्य स्टाक कंज्यूम किया करती थी. पति भावनाओं से भरे वे श्रमजीवी थे जो कभी अपने अधिकारों के लिए लड़े नहीं और इसका दोष अपनी भार्याओं पर मढ़ते रहे. उन्होंने जिससे प्रेम किया वे उनकी पत्नियाँ नहीं थी और जो पत्नियाँ थी, उन पर प्रेम आता नहीं था. क्योंकि प्रेम एक रूमानी चीज़ है और रुमान क्षणभंगुर होता है. वह अल्टरनेट करंट की तरह आता है. जबकि पत्नी हमेशा साथ रहने के कारण डायरेक्ट करंट का ग्रिड बनी रहती है. आज भी सब कुछ वैसा ही है. आदम ने जो सहजीवन का झूला दिया था वह विवाह की आकाशीय पींगों में तब्दील हो गया है. हम चिल्लाने वाले को कौतुहल से देखते हैं और उसे कुटिल दिलासा देते हैं कि झूला नीचे आते ही सब सामान्य हो जायेगा. लेकिन सदियों से समाज इसका प्रतिकार करता है कि झूला रुक जाये.

खैर, वो जो किरण है. जिससे नायक कहता है. इस चांदनी को देखो... वह एक अभागी स्त्री है. जिससे नायक को इसलिए विवाह नहीं करने दिया गया था कि वह सोशल लेयर में नीचे थी. वह इस आखिरी घड़ी में तमाम बाधाएं पार कर किसी की परवाह किये बिना अस्पताल चली आई है. नायक को सहारा देकर खड़ा करती है. वह बाहर खुली हवा में घूम लेने के बाद अपने बिस्तर पर लौट आता है. नायक अमावस्या के बाद की अँधेरी रात में देखता है कि शुक्र तारा ऊपर जा रहा है. वह अपने रिश्तेदारों के बारे में सोचता है कि इन मेहरबानों से मुक्ति नहीं है. इन मेहरबानों के घर के बाहर क्षितिज से परे क्या है, यह देखने की इच्छा है. कभी कभी इस कब्र सी भूमि पर पड़े हुए आकाश की चादर को फाड़ कर भूमि और आकाश को एक कर देने की इच्छा होती है. अगले ही क्षण मेरा अस्तित्व धूल हो जाता है.

क्या सबके जीवन में कम से कम एक ऐसा क्षण आएगा कि घनघोर अँधेरे दिनों में कोई एक चांदनी की किरण होगी. सुबह जब नायक को स्ट्रेचर पर लिटा दिया गया तब उसने पाया कि माँ की आँखों में आंसू थे, पिता सांत्वना दे रहे थे और पत्नी किसी भाव को मुख पर लाने का प्रयास कर रही थी. लेकिन उसने इन मेहरबानों के बीच तय किया कि मर गया तो मेरी इच्छा पूर्ण होगी और बच गया तो... बस... जीवन अर्थपूर्ण ही बीतेगा. मुझे लगा उसने तय कर लिया है कि वह अपने इस जीवन को खोखले चेहरों और सड़ी-गली रवायतों के लिए बरबाद नहीं करेगा.

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इस कथा के नायक सदृश्य असंख्य नायिकाएं भी इसी धुंए में घुट रही है. समय का सूचक हमारा घड़ियाल कहीं ठहर तो नहीं गया है या फिर हमने अपनी अक्ल पर नासमझी को पहरेदार बना लिया है. "मेहरबानों के घर के बाहर" राजशेखर नीरमान्वी की इस कन्नड़ कथा के जरिये मैं इस नए दौर के कथित सभ्य समाज को लानतें भेजता हूँ. हम अभी भी घूरे के ढेर पर बैठे हैं, जाने हमारे दिन कब फिरेंगे?