साजन गुडी उडावता

रात को आती है आवाज़ खाली कांच के प्यालों की मगर बिल्ली शराब नहीं पीती. गाय मुतमईन है शहर में प्लास्टिक में बचा कुछ भी खाते हुए उसे क्या गरज होगी ढोल बजाने की मगर आती है लोहे चद्दरों से किसी के टकराने की आवाज़. बूढ़े खुजियाये कुत्ते ने कर ली आत्माओं के रंग और लक्षणों से मित्रता, रोना बंद है उसका इन दिनों मगर मैं जाग उठता हूँ बार बार अचानक.

कि आवाजें ज़बरन बुनती है भय के बारीक रेशे.

नीम नींद में उठकर बीवी भी बदल लेती है कमरा किसी अच्छी गहरी नींद की तलाश में. सुबह के साढ़े तीन बजे दर्द के बेहिसाब बेशक्ल लिबास में सही जगह की तलाश भटक जाती है अपनी राह से और कोई कारण नहीं मिलता कि दर्द कहाँ और किस वजह से है.

सुबह जो लड़का पतंग उड़ा रहा था उसके मांझे पर क्या बारीक कांच पिसा हुआ होगा? क्या अंगुलियां गरम दिनों के आते आते कट न जायेगी कई जगहों से. ऐसे ही खुद को बचाने के लिए हम छिलते जाते हैं. हम खुद खरोंच से कहते हैं आ लग जा मेरे सीने से कर्क रेखा की तरह. ज़िंदगी के मानचित्र पर कुछ जो रेखाओं सा दीखता है वह वास्तव में कट जाने के निशान हैं. हम काफी उम्रदराज़ हो चुके हैं.

आ मेरी बाहों में मगर बता कि तेरी उम्र क्या है? उम्र का हिसाब आसान करता है, दर्द की किस्म को समझने के काम को...

जब कोई आ रहा होता है उसकी तरफ तब हर बूढ़ा आदमी अक्सर लिख लेता है दिल की पर्ची पर आने वाले आदमी की सीरत और उसके दुखों को, उस तक पहुँचने से पहले. मगर एक अफवाह मैंने सुनी थी कि बेटों ने ठग लिया अपने माँ बाप को. यकीन अब भी नहीं है.
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साजन गुडी उडावता लोम्बी दैवता डोर, झोलो लागो प्रेम रो कहाँ गुडी कहाँ डोर.

सजन पतंग उड़ाते हुए खूब ढील देते थे, प्रेम का एक झोंका लगते ही जाने कहाँ तो पतंग गयी और कहाँ गयी डोर. सुबह सात बजे से एक लड़का ओवर ब्रिज पर खड़ा हुआ पतंग उडा रहा है. मौसम सर्द है और धूप नन्हे पिल्ले की तरह अलसाई आँख से देख रही है रेगिस्तान को.
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शोर आता है दसों दिशाओं से
ज़िंदगी के हर कोने तक
मन की कच्ची दीवारों पर जैसे कोई चोट करता हो.

आदमी यूं जीए जा रहा है जैसे भुला दिया है खुद को.
दुनिया नए औज़ार खोज रही है कुछ इस तरह
जैसे आवाज़ें ही घोट डालेंगी आवाज़ों का गला.

शोर के बीच हम भूल चुके हैं नाम जाने कितने
एक दोस्त रूह रूह जपा करता था पिछले मौसम
कभी उससे मिलेंगे तो मुमकिन है हादसे सारे भूल जायेंगे.