उस आखिरी घड़ी में


उस पार घना अंधेरा, उजाला इधर भी नहीं कि कहीं जाना भी नहीं है और मुझे यहाँ रहना भी नहीं है। रोना नहीं है और रोये बिना जीने की सूरत भी नहीं। बोल पड़ूँ तो सुकून आए शायद मगर बात जो कहनी होगी उसे कहना भी नहीं है। यूं तो ज़ब्त करके मैं हंस भी लूँ मगर यूं सोच-सोच कर कुछ करना भी नहीं है। 

उस खाली खाली से मंज़र में कुछ घड़ी बाद बिछड़ ही जाना था और जीना था कई साल तक मरने की उम्मीद के बिना। सड़क चलती ही नहीं थी, लोग रुकते ही न थे। सांझ मुरझाई जाती थी, कदम टूटे जाते थे। एक मैं था, बिखरी बिखरी सी आती आखिरी सांस की तरह चलता हुआ। क्या सबब कि इस तरह मिला करे कोई, छोड़ जाए तन्हा, धूल भरे रस्तों में। 

खिड़की से बाहर देखूँ तो डर लगता है, कमरे के भीतर एक दोशीजा उदासी है। पगलाया हुआ दरवाज़े से बाहर आता हूँ, फरवरी का महीना है और आसमान पर फिर बादलों का फेरा है। दीवार का सहारा लिए खड़े जाल के पेड़ पर बैठी चिड़िया किसी जल्दी में है शायद और मेरे पास कोई काम ही नहीं है। 

सीने के तलघर में उतर आई है एक भारी सी चीज़। रह रह कर मुझे उकसाती है कि दौड़ने लगूँ। रेगिस्तान में प्यासे हिरण की तरह टूट जाए आँखों में बसी पानी की तस्वीर। गिर पड़ूँ तपती बालू रेत पर। एक बार उचक कर उड़ जाये पंछी दूर किसी दरख्त की शाख से। उस आखिरी घड़ी में सोचूँ कि तुम जा रहे हो मुझसे बिछड़ कर और आसमानों के पार जाने के लिए मुकम्मल हो रहा है मेरा सफ़र। 

ओ कुदरत मुझ पर रहम करो।
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तस्वीर मेरे दुश्मन शहर की एक पुरानी सड़क की है। लोग कौन है, किधर जा रहे हैं मालूम नहीं। मैं कार के शीशे से पीठ टिकाये हुये सोचता हूँ कि कोई जगह बनी होनी चाहिए सुकून के लिए....