नरक का प्रवेश द्वार

साल चौरासी के आस पास डाक बंगले से लेकर फकीरों के कुएं तक एक आठ फीट की पतली काली लकीर थी, जिसे राय कॉलोनी रोड कहा जाता था. इस रोड पर धूल उड़ती रहती थी. भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने बड़े शहरों में पनाह ली. इसलिए कि वहाँ रोज़गार के अवसर ज्यादा थे. घर बसाने में एक ज़िंदगी बीत जाती है फिर नये सिरे से घर बसाने की तकलीफ वे लोग नहीं जान सकते जो पुरखों की ज़मीन पर रह रहे हों. इस विस्थापन में बहुत से परिवार बाड़मेर में ही रुक गए. उनके लिए या तो भागते जाने की थकावट राह का रोड़ा थी या उनके रिश्तेदार यहाँ थे. इन्हीं विस्थापितों के लिए उन्नीस सौ तिरेपन से पचपन के बीच कलक्टर रहे ऐ के राय ने आवासीय भूमि आवंटन के प्रयास किये थे. इस बसावट को राय कॉलोनी के नाम से जाना जाने लगा. आज ये बाड़मेर की व्यापारिक गतिविधियों की केन्द्रीय जगह है. कभी ढाणी बाज़ार और पीपली चौक बाड़मेर के अर्थ जगत के आधार थे. उसी धूल भरी पतली रोड पर मेरे नये दोस्त भीखू का घर था.

साल अट्टहतर के आस पास किसान छात्रावास में पापा के वार्डन रहने के दौरान राय कॉलोनी तक धूल भरे धोरों को पार करके पहुंचा जा सकता था. वे रेत के धोरे बालमंदिर स्कूल को पार करने के बाद अस्पताल के पीछे वाले टीलों तक आते ही मुझे थका देते थे. एक दोपहर बाद मेरे द्वारा किसान बोर्डिंग हाउस से अस्पताल के आखिरी छोर तक की हुई यात्रा उन दिनों की सबसे बड़ी यायावरी थी. मैंने उस शाम घर पहुँचते इस तरह सांस ली जैसे आदिम यात्रियों का आशीष उतर रहा है. हमारे लिए खेलने की सीमा बालमंदिर स्कूल के आगे का भाग और हाई स्कूल के पीछे का मैदान तय था. जिस मैदान में अब गर्ल्स कॉलेज बनी हुई है. इन दो जगहों के बीच मुर्दा कोटड़ी नामक भयावह जगह थी. जो ठीक राय कॉलोनी की दिशा में पड़ती थी. उस कोटड़ी के चारों तरफ कोई दीवार न थी. कुछ बबूल की झाड़ियाँ थी और भूतों के लटकने के लिए एक बड़ा बरगद का पेड़ था. इसलिए भी मुझे राय कॉलोनी की दिशा में देखना पसंद न था. पुलिसिया भाषा में वह मोहल्ला आवारागर्दों का स्वर्ग था. वहाँ रोज़ लड़ाई झगडे होते थे. शराबियों और बदचलन लोगों की शरणस्थली थी. शहर के जूना केराडू मार्ग से लेकर रेलवे स्टेशन तक लोकतंत्र स्थापित हो रहा था लेकिन राय कॉलोनी में जिसकी लाठी उसकी भैंस का कायदा चलता था.

अमित से दोस्ती मुझे उस वर्जित भूभाग की ओर खींचने लगी.

हम कभी कभी ही मिलते थे यानी कोई दो महीने में एक बार. मुझे उसके बारे में सिर्फ इतना मालूम था कि उसे साइंस नहीं पढनी पड़ती और वह भाग्यशाली है. मोहन जी के सिनेमा यानी अम्बर टाकीज वाली गली में उसके पापा का ट्रक की बॉडी बनाने का कारखाना था. वे छः फीट लंबे और कद्दावर इंसान थे. उनकी आवाज़ भरी और आँखें गहरी थी. वे बोलने में मितव्ययी थे. शब्दों के प्रति उनका ये किफायती रुख और चेहरे के हाव भाव हमको डरा देते थे. लेकिन अमित अक्सर टिफिन लेकर वर्कशॉप तक जाता था. इसके बदले उसे कुछ रुपये मिला करते थे. लेकिन अक्सर सिर्फ ये होता कि अमित के पापा खुशालाराम जी उसे मोहन जी के सिनेमा में एंटर करवा देते थे. वे अमित से खूब प्यार करते थे. अमित का दावा था कि पिताजी और सिनेमा वाले मोहन जी गहरे दोस्त थे. मेरे लिए ये पहचान फिर कोई खुशी लेकर नहीं आई.

अम्बर टाकीज में कुछ एक फ़िल्में ऐसी लगती थी, जिनका कोई सींग पूँछ नहीं होता था. उन फिल्मों के बीच में कोई खास रील जोड़ी जाती थी. टिकट खिड़की पर लड़के सर छुपाये हुए टिकट लेते और पास की दुकानों में छुप जाते. इस कार्य के लिए दोस्तों में बारी बंधी हुई होती थी. असल खतरा था टिकट लेते हुए देख लिया जाना. एक बड़ा कुख्यात किस्सा सबको डराता था. इन दिनों बिदेस बसे हुए एक एयरवेज के कमर्शियल पायलट के छोटे भाई ने कुछ दोस्तों की उनके घर पर शिकायत कर दी. दोस्तों ने योजना बना कर उसे कहा कि मोहन जी के सिनेमा में धांसू फिल्म लगी है. सेंग उतारी नोखा जेवी. उनसे कहा टिकट कौन कराएगा. उन दिनों खेल देखने में सबसे महत्वपूर्ण कारक था, टिकट करवाया जाना. उसका टिकट हो गया. अम्बर टाकीज से चलती फिल्म में बाहर जाने की छूट थी. कुछ अनुभवी लोग तो टिकट खिड़की पर पूछ भी लेते वो रील कब लगेगी? और वे ठीक उसी समय आते थे. 

वह दोस्तों के जाल में फंस गया था. जिस लड़के ने टिकट कराई वही उसके पापा के पास गया और बोला. आपका बेटा अम्बर टाकीज में भूंडी फिल्म देख रहा है. रेलवे में गार्ड बाबूजी को खूब गुस्सा आया और वे बोले कहाँ मिलेगा. तो उसने आधी टिकट दी और ये भी बताया कि वह किस सीट पर बैठा है. जैसे ही बाबूजी अंदर पहुंचे तभी दुर्भाग्य से वही रील शुरू हुई. उन्होंने हाथ में लिए हुए डंडे से अमके को वहीँ हाल में ही मारना शुरू किया. उसके सर के बाल पकडे हुए पीटते पीटते जुलूस निकाल कर अम्बर टाकीज से रेलवे कॉलोनी तक ले गए. ये सख्त बापों का ज़माना था. सारे बाप इस होड़ में थे कि वे सख्ती में एक दूसरे से आगे निकल सकें. सारी औलादें इस धरती पर उपलब्ध अतुलनीय ज्ञान से जानबूझकर वंचित रखी जा रही थी. जो बाप पीटते नहीं थे वे इस तरह देखते थे जैसे पीट रहे हों. मुझे पापा ने एक थप्पड़ भी न मारा मगर ऐसे किस्से सुनकर मुझे ख़याल आता कि मैं अमके की तरह सीन देखता हुआ पकड़ा गया हूँ और पापा मुझे रेलवे कॉलोनी से भी आगे नेहरू नगर तक ले जा रहे हैं. इससे डरकर मैं तुरंत तय करता कि मोहन का सिनेमा नरक का प्रवेश द्वार है.

अमित लगातार फ़िल्में देखता था. उसके पास अम्बर टाकीज की ऊँची दीवारों में बने पतली लोहे की चद्दर वाले एक्जिट से सुनाई देती हर तक पहुँचने का लाइसेंस था.

मैं आपको राय कॉलोनी की बात कहना चाहता था मगर मेरे बचपन के कस्बे की लाजवाब चीज़ों ने मुझे रोक लिया. कुछ लोग सत्तर के दशक को याद करके रुमान से भर जाते हैं. मुझे अस्सी का दशक खूब प्रिय है. वो अस्सी का दशक जिसमें अमित मिला.
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आगे की बात अगली कड़ी में