वह क्यों नहीं?

वह थके क़दमों से आहाते को पार करता हुआ कमरे में दाखिल हो गया. कमरे में अँधेरा था. खिड़कियाँ के पल्लों में भूरे-स्याह रंग के कांच लगे थे. वे थोड़ी सी आ सकने वाली रोशनी को भी कम कर रहे थे. वह यंत्रवत एक कोने की तरफ बढ़ गया. एक पुरानी मेज के कोने में दीवार से सटी हुई छोटी सी तस्वीर रखी थी. वह उसके सामने चुप खड़ा हो गया. उसने याद किया कि वे दिन कितने पीछे छूट गए हैं, जब वह यहाँ खड़ा होकर मौन में प्रार्थनाएं किया करता था. कुछ एक शब्दों की प्रार्थना में इतना भर होता. पापा वह क्यों नहीं? मन ही मन ऐसा कहने के बाद चुप खड़ा रहा करता था.

क्या पीछे छूट गए दिन कुछ बातों को अपने साथ पीछे ही नहीं रख सकते थे? जैसे उसे पीले और लाल गुलाबों का गुलदस्ता पसंद था. वे सारे फूल वहीँ क्यों न छूट गए. मेरी ये प्रार्थना वहीँ क्यों न छूट गयी. वह चेहरा वहीँ क्यों न छूट गया. वह इसी तरह की कुछ बातें सोचता रहा.

उसने आहिस्ता से एक पाँव आगे रखा और तस्वीर को अंगुली से छू लिया. बारीक गर्द अंगुली के पोर पर बिंदी की तरह ठहर गयी. अचानक किसी के गिरने की आवाज़ ने उसे डरा दिया. वह दौड़ा और आहाते में सीढियों के पास पहुंचा. जहाँ कोई गिरा था. शांत और बिना हलचल के गिरा हुआ एक अधेड़ आदमी. उसने हाथ पकड़ा और कहा- पापा. असल में मृत्यु ने उनको पहले प्राप्त कर लिया था और उनका गिरना बाद में हुआ था.

वह जब भी इस कमरे में आता ये गिरने की आवाज़ हर बार आती थी. वे पंद्रह साल पहले गिरे थे. इस गिरने की स्मृति के मुहाने पर खड़े हुए, उसने मौन में ये सवाल नहीं पूछा कि पापा वह क्यों नहीं? उसके हाथ गर्द से भरे थे. तस्वीर कुछ साफ़ दिखने लगी थी. ज़िन्दगी पर गर्द अभी भी निर्दोष थी. वह इस गर्द के पार कुछ नहीं देखना चाहता था.

वह मुड़ा और तेज़ क़दम सीढियों की ओर बढ़ गया. असल में वह जितना धोखा खुद को दे सकता था दे चुका था.