चीज़ें बदल चुकी होती हैं

सुरिन टेबल की तरफ नज़र किये चुप बैठी थी. जतिन उठकर कुछ लेने गया. सुरिन ने जब नज़र उठाई जतिन उसके सामने बैठा था. जतिन ने दोनों प्यालों की ओर देखते हुए सुरिन से पूछा- “बोलो कौनसा?”

सुरिन ने दोनों प्यालों को नहीं देखा. वह जतिन की आँखों में देखते हुए हलके से मुस्कुराई. जतिन ने कहा- “चुन लो, फिर कहोगी तुम्हारे कारण पीना पड़ा.”

“दोनों में क्या है?”

“कॉफ़ी”

“इसमें कौनसी”

“फ्लेट वाइट”

“और इसमें”

“फ्लेट वाइट”

अचानक से सुरिन की आँखों से मुस्कराहट खो गयी- “क्या तुम कभी थोड़े से बड़े हो जाओगे? मुझे तुम्हारी कुछ चीज़ें जो अच्छी लगती थी, अब उनका न बदलना अच्छा नहीं लगता.”

जतिन ने पूछा- “त्तुम्हारा हाथ छू लूँ?”

सुरिन की आँखें से खोई मुस्कान से बनी खाली जगह को भरने के लिए दो बूंदें चली आई. “मुझे मालूम है. मेरे हाँ कहने पर तुम कहोगे कि छूना थोड़े ही था, पूछना था”

गरम रुत थी. हवा बुहारने के काम पर लगी थी. बड़े शीशे के पार कुछ एक कागज़ के टुकड़े उड़ते जा रहे थे. कबूतरों ने आकाश के सूनेपन को बिखेरने के लिए फिर से एक फेरा दिया. वे लयबद्ध कलाबाज़ी खाते हुए खिड़कियों, छज्जों, मुंडेरों और तारों पर बैठ गए.

“वो पहली बार इस तरह घर आया जैसे वहां पहले बहुत बार आ चुका हो. वह सोफे पर इस तरह बैठा जैसे हमेशा से वहीँ बैठता रहा हो. मेरे घर वाले बहुत कुछ औपचारिक सी तैयारी करके बैठे थे. चाय की पूछताछ हुई तो वह खड़ा होकर रसोई कहाँ है पूछता हुआ मम्मा के पीछे चल दिया. मम्मा हैरत से देख रही थी. वह अचानक मुस्कुराई और कहा आइये. मम्मा आगे और वह पीछे. उसने कहा अदरक कहाँ रखी है. जवाब मिलने से पहले ही फ्रीज़ खोलकर अदरक निकाल चुका था और उसे कूटने के लिए कुछ खोजने लगा.” सुरिन की आँखों में एक चेहरा था. वह उसी को देखते हुए जतिन को कह रही थी.

जतिन ने कहा- “हाँ आज भी अगर तुम हां कहती तो भी मैं तुम्हारे हाथ नहीं छूता... वैसे वो कैसे छूता है?”

"शटअप"

"क्या?"

“कुछ नहीं... मालूम है सब चौंक गए थे. चाय पीने के ठीक बाद उसने कहा- अब चलते हैं. उसके साथ उसके भाई और भाभी थे. वे अचकचाए किन्तु वह खड़ा हो गया था. मेरे पापा कुछ न बोले. मम्मा बोली थी- खाना खाकर जाइए. वह हँसते हुए कहने लगा- मेरी खाना बनाने की इच्छा नहीं है.” अपनी बात को बीच में रोक कर सुरिन ने प्याले की ओर देखते हुए कहा- “चीनी तुम डालोगे या मैं डालूं?”

जतिन ने कहा- “चख लो”

कॉफी मीठी थी. सुरिन से जतिन ने कहा- “तुमको कैसा लगा था?”

“मुझे अजीब लगा था. अव्वल तो ये ही अजीब है कि कोई किसी लड़की को देखने आये. फिर ये सब तमाशा करना. मगर जब हम सब बाहर आये न तब उसने मुझे कहा- एक मिनट इधर आना तो... मैंने देखा कि मम्मी और पापा उसके भैया भाभी के सामने देखने लगे थे. उन्होंने मुझसे नज़रें फेर ली थी. मैं उसकी तरफ गयी. उसने कहा- सॉरी, ये सब मुझे अच्छा नहीं लगता. मैंने पहले ही हाँ कर दी थी. मगर घरवाले माने ही नहीं. कहते रहे जाओ देखकर आओ. फिर मैंने सोचा देखने के बहाने तुमसे पूछ लूँगा कि क्या मैं तुमको पसंद हूँ.”

जतिन ने कहा- “वो बेहद अच्छा आदमी है”

सुरिन ने जतिन के होठ पर लगे कॉफ़ी के छोटे से झाग को अपनी अंगुली से मिटाते हुए कहा-“हाँ वो बेहद अच्छा आदमी है”

[मुस्कुराते हुए होठ कई बार एक ठहरी हुई छवि भी हो सकते हैं, अक्सर समय बह चुका होता है और चीज़ें बदल चुकी होती हैं]

सुरिन भाग दो