दिल उदास तो नहीं मगर



मैं दफ्तर की कुर्सी पर बैठा हुआ उकता गया था। मैंने कुछ काम किया, कुछ फोन देखा और फिर स्टूडियो से बाहर इस घने पेड़ की छाँव में चला आया। ये पेड़ जाल का है मगर बोगनवेलिया भी इसके साथ-साथ बढ़ा था। अब दोनों प्रेमपाश में इस तरह गुंथे है कि दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अब गहरा हरा और गुलाबी रंग एक साथ मुस्कुराते हैं।

दीवार के पास रेडियो कॉलोनी का रास्ता है वहीँ छोटी लड़कियों की चहचाहट सुनाई देने लगी। बारह बज रहे होंगे और स्कूल जा रही होंगी। एक ने शिकायत की- "तुम आई नहीं" दूसरी ने उसकी शिकायत को काटते हुए कहा- "मैं सबके लिए करती हूँ, मेरे लिए कोई कुछ नहीं करता" वे तीनों एक साथ चुप हो गयीं। शायद तीनों इस बात से सहमत थीं।

मैंने किसी के लिए कुछ नहीं किया इसलिए असहमति में फोन खोजने लगा कि वह किस जेब में रखा है। सामने दफ्तर के लोग दिखाई दिए। इस साफ़ धूप में वे अच्छे दिख रहे थे। सोचा तस्वीर उतार लूँ। तस्वीर को देखा तो ख़याल आया कि इस रेगिस्तान में भी इंसान का जीवट कैसी हरियाली बना लेता है।

वैसे बात ये थी कि आज धूप के साथ उमस भी है। दिल उदास तो नहीं मगर ऊब से भरा है। कुछ याद आते ही लगता है कि

जाने दो।

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