बातों के ठिकाने



जो साथ नहीं हो पाए, उनके पास बचाकर रखी चिट्ठियां थी, रिकॉर्डेड कॉल्स थे। जो साथ हुए उनके पास अधनंगी तस्वीरें थी, चूमने के स्मृति थी, बदन पर उतरे निशानों के पते थे, आधी नींद में सटे पड़े रहने की याद थी।

जो कुछ भी जिस किसी ने बचा रखा था, वह केवल सुख या दुख न था। वह लालच और प्रतिशोध भी था।

इस दौर के आदमी के पास बस यही बचा है। इसे वह मिटाना नहीं चाहता। इसे वह बार-बार टटोलता है। जिस तरह बिल्ली अपने बच्चों की जगह बदलती है वैसे ही ऐसी यादों और बातों के ठिकाने बदलता रहा है।
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मैं चलता था। चलते हुए एक इच्छा करता था। मैं जिधर से गुज़र रहा होऊँ, उधर से मेरा गुज़रना मिटता जाए। मैं लिखूं और मेरा लिखा मेरी याद से मिटता जाए। मैं चूम रहा होऊं और चूमने के निशान किसी आत्मा पर न पड़ें।

खिड़की से पर्दे हटाये। रजाई से बाहर निकला उसका आधा मुंह देखा। उसकी बन्द आंखें देखी। खिड़की के पास खड़े हुए सोचा कि रात और दिन हम क्या चाहते हैं? क्यों हम चाहना की राख से भरे हुए मंद दहकते रहते हैं। क्या दिमाग में हवस ही भरी है। क्या हम कभी इससे बाहर आ सकते हैं। क्या हम बाहर आना चाहते हैं?

अंगुलियां तपिश महसूस करती है। सिगरेट राख हो चुकी होती है। शायद ज़िन्दगी भी इसी तरह लगभग खत्म है जबकि वह ख़त्म होती दिख नहीं रही।
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तुम्हारे पास क्या है? चिट्ठियां, बातें, तस्वीरें, पते या मेरी तरह केवल चाहना और हवस। हालांकि मेरे पास ये है, इसका भी मुझे सन्देह है।
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