अपने लिखे में ढल जाना

शाम ढ़लने के समय कोई छत से पुकारता है। मैं अजाने सीढियां चढ़ने लगता हूँ। छत पर कोई नहीं होता। पुकारने वाला शायद उस ओर बढ़ जाता है, जिधर सूरज डूब रहा होता है। 

पश्चिम में पहाड़ पर जादू बिखर रहा होता है। उपत्यका में रोशनियों के टिमटिमाने तक मैं डूबते हुए सूरज को देखता रहता हूँ। किसी सम्मोहन में या किसी के वशीभूत। 

अचानक मन शांत होने लगता है कि क्या करूँगा वहां जाकर जहां से लौटना ही होगा। मैं कभी सिगरेट सुलगाता हूँ कभी चुप बैठे सोचता हूँ कि अब तक कितनी बर्फ गिर चुकी होगी। 

एक कहानी कही थी 'एक अरसे से', कहीं मैं उस कहानी के नायक में तो नहीं ढल गया। मैं बदहवास सीढियां उतर कर उस किताब को खोजने लगता हूँ ताकि अपनी कही कहानी का अंत पढ़ सकूँ।

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