कि सोचना खुद एक गुंजलक शै हो चुकी

और कितना लड़ना चाहिए। 

बरस भर में कई बार लड़ चुका हूँ। हालांकि ये लड़ाई किसी से कही जाए तो वह कहेगा धत्त! इसे भी भला कोई लड़ाई कह सकता है। 

त्वरित घटित होने वाली घटनाओं का एक दौर हुआ करता है। आह, ओह, आहा, सचमुच, यकीन कर लें, ये भी होना था, सोचा नहीं था। इस तरह सब कुछ इतना तीव्र घटता है कि आगे के सामान्य समय की चाल शिथिल और उदासीन जान पड़ती है। 

एक ठहरा हुआ खाली समय। 

मैं तम्बाकू के अधीन नहीं था। मेरा मन किन्ही झंझावतों से घिरा हुआ था। एक क्षण बाद लगता कि अगला काम करने से पहले सिगरेट फूंक ली जाए। मैं तन्हा खाली कमरे की ओर जाता। सिगरेट फूंकता। 

चारपाई से उठने से पहले सोचता कि एक और सिगरेट का धुआं खींच लिया जाए। अब तक का धुआं कम लग रहा है। दूसरी सिगरेट जलाता। अकसर ऐसा होता कि दूसरी सिगरेट के बाद मैं चारपाई पर आधा लेट जाता। खिड़की और दरवाज़े से दिखते अरावली के पहाड़ों के टुकड़े देखता। 

काम फिर भी शुरू नहीं होते। कैसे तो काम, जैसे नहा लो, कपड़े पहन लो, अपना थैला लो, पेन पेंसिल चेक करो। स्कूटर पर बैठो और दफ़्तर चले जाओ। नहाना स्थगित रहता। आगे के काम स्वतः रुके रहते। 

भूख लगती तो आधा घंटा उलझा रहता कि अगर कुछ खा लिया तो नहाया कैसे जायेगा। इसका हल होता कि चलो एक सिगरेट फूंक ली जाए। मैं फिर छत पर बने उसी कमरे में बैठा होता, जहां से अभी कुछ देर पहले नीचे आया था। 

यह एक स्थाई प्रक्रिया हो गई थी। इस के कारण सिगरेट से ऊब होने लगती थी। मुझे कई बार लगा कि "फाइन टोबेको" के कारण बार-बार सिगरेट फूंक रहा हूं। मैं सख़्त तम्बाकू वाली सिगरेट ले आया। दो सिगरेट फूंकने के बाद अजीब सा हाल हो जाता कि न सिगरेट भली लग रही है न कोई काम हो रहा।

रोज़ याद आता कि सिगरेट वजह नहीं। सिगरेट तो एक जरिया है, वजह से उपजी उलझन के दबाव को भूलने का या स्थगित करने का। तो क्या करें? वजह तलाशें। 

वजह मामूली सी मिली। एक हड़बड़ी भीतर घुस कर बैठ गई है। जीवन के तेज़ी से बीतने का उतावलापन घर कर गया है। घर से बाहर न जाने की इच्छा काई की तरह दिल पर जम गई है। कुछ लिखने-पढ़ने के प्रति ऊब सनातन सी हो गई है। 

तो क्या करें? चलो सिगरेट फूंकते हैं। 

मैं थक गया। ये एक कुचक्र था। धुआं मेरी सांस लेने की आसानी को बरबाद कर रहा था। जनवरी की एक सुबह मैं जल्दी से चार सीढियां चढ़ा। इसके बाद कुछ बोलना था। मैं बोलने के लिए संघर्ष करने लगा। पचास सैकेंड बोलना किसी महायुद्ध से कम न था। 

मुझे याद आया कि मैं सिगरेट ख़त्म हो जाने और रोल्ड सिगार का चूरा बनाता और उसको पाइप में भरता। फिर अफ्रीकी तम्बाकू का धुआं मेरे मुंह मे सैंकड़ों कांटे भर देता। मुझे लगता कि हर कहीं चुभन हो रही है। कसैलापन इतना बढ़ जाता कि मैं वाशबेसिन की ओर जाता। लेकिन थोड़ी देर भन्नाया हुआ दिमाग और चेहरे पर पड़े पानी के छींटे अच्छे लगते। 

मुझे अपनी चिंता हुई। अजानी उलझनें या जानी हुई उलझनों से मुंह फेर कर धुआं निगलते जाना, आत्मपीड़ा का पोषण करना था। किसी रोके जा सकने वाली प्रक्रिया को धुएं से ढकना। निरी मूर्खता थी। मैं इसी में जी रहा था। 

कुछ बरस तक लगातार ऐसा जीवन जीना कैसा होता है, मैं जानता हूं। 

दो सप्ताह पहले एक सुबह उठा तब मैंने याद किया कि दस बरस लगातार तम्बाकू फूंकने के बाद दस बरस के लिए मैं उस से दूर ही रहा। लेकिन तम्बाकू से प्यार था न। 

मुझे तम्बाकू के स्वाद से कोई समस्या नहीं थी। मुझे निकोटिन से मिलने वाले अस्थाई हाई से खुशी थी। लेकिन दो अलग चीज़ें मिलकर विषाक्त हो गई थी। एंजाइटी और निकोटिन अलग ही भले थे। 

अल्कोहल के साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। मैं जब भी उदासी की पदचाप सुनता सबसे पहले अल्कोहल से दूर हो जाता। ये एक पुराना अनुभव था कि एल्कोहल को ड्रॉप करने से मैं एंजाइटी से जल्द बाहर आ सका था। 

उस सुबह मैं इन दो चीज़ों को अलग कर देना चाहता था। अवसाद अपने आप में एक नशा है। इसलिए इसके साथ कोई दूसरा नशा नहीं मिलाना चाहिए। 

मैं कहां उदासीन होता हूं। किस जगह आकर लगता है कि सम्बंध का किनारा आ गया है। कहां भूलना समझा जा सकता है। ये सब सोचने से परे रहता है। कि सोचना खुद एक गुंजलक शै हो चुकी है। 

कुछ भी साबुत नहीं बचा है मगर दाएं बाएं ठोकरें खाते हुए जीवन चलता रहता है। कभी-कभी सपना आता है। मैं तम्बाकू फूंक रहा हूँ और ऐसा करते हुए किसी प्रिय ने देख लिया है।

तस्वीर गुड़गांव में ली गई थी। जिसे गुरुग्राम लिखा कहा जाने लगा है।

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