लुटेरा

प्रेम एक दारुण प्रतीक्षा है। 

समय ने उसके चेहरे की कोमलता पर सुघड़ता के तार कस दिए थे। किशोरवय में हल्के झूलते गालों के स्पंदन को यौवन के संपूर्ण तनाव ने विस्थापित कर दिया था। ललाट पर चोट के तीन हल्के निशान थे। थोड़ा जूम करके देखने पर ललाट चांद की कोई तस्वीर सा दिख सकता था। स्कूल की किताब में दिखने वाला वो चांद जो आकाश के चांद से अलग था। जिसमें असमतल ज़मीन पर बेतरतीब छोटे गड्ढे थे। 

नायिका का अकेलापन क्षितिज की रेख की तरह फैला हुआ था। हवेली में सजी मूल्यवान धातुओं की चमक की तरह कौंधते हुए एकांत सा अकेलापन। सेवकों, मुंशियों, मनोरंजन करने वालों के बीच सजीव खड़ा हुआ। क्या इसी ठहरी और बोझिल ऊब से दिल किसी कांटे पर गिर पड़ता है। 

नायक ने न कांटा फेंका। न उस पर चारा लगाया। उसके साथ इतना हुआ कि वह किसी और प्रयोजन से तालाब में पांव डालकर बैठा था कि एक मछली गुदगुदी कर गई। उस चौंक में पहली बार पानी में तैरते मचलते रंग दिखें। उन रंगों को अपनी अंजुरी में छिपा लेने का मन हो गया। ये नहीं सोचा कि पानी से हाथ बाहर निकालते ही पानी बह जाएगा। मछली तड़प कर मर जाएगी। 

नायिका के अधखुले होंठ रूमान की गहरी तस्वीर खींचने में असमर्थ थे। नायक नई नई सुलगी कच्ची आग जितना ही दीप्त था। मद्यसार से भीगी रूई इस तरह जलती है या भड़क कर खिल उठती है। अकेलेपन पर गिरी बारिश की बूंदों का तड़ तड़ का स्वर धीमा होता है या उच्छवास के नगाड़ों की तरह बजता है। तूफानी हवा में वन लताएं मद्धम झूमती है या उलझ कर बेदम हो जाती है। 

नियति के स्थान पर, किसी अविश्वसनीय दुर्घटना के स्थान पर, उपकृत होने के बोझ से दबा नायक अपने पांव पानी से बाहर खींच लेता है। वह जिन मोतियों को चुराने आया था, उनको लेकर चला जाता है। जाने वाले की प्रेमिल अंगुलियों का स्पर्श नायिका के सीने में ज़हर बुझा तीर बनकर धंस जाता है। वह जीवन की तमाम आशाओं और स्मृतियों को छोड़कर दूसरी जगह चली जाती है। जहां एक नए अकेलेपन में मृत्यु की प्रतीक्षा की जा सके। नई तरह का दुख, नए तरह का बोझ उठाए, नष्ट हो चुके प्रेम की स्मृति का आभार व्यक्त किया जा सके। 

कहानी इतनी थी। किंतु कविता कहने की लत लग जाए तो समस्त भावुक कर देने वाले, बींधने वाले और नष्ट करने वाले बिम्ब कहे जाने से बचा नहीं जा सकता। 

परिस्थितियां उनको फिर से आमने सामने करती हैं। जीवन इतना संगदिल हो सकता है। इतना निष्ठुर भी हो सकता है। इतना बड़ा ठग भी हो सकता है। 

हम सब क्यों अपनी भूलों को सीने से लगाए रखना चाहते हैं। क्षण क्षण गतिमान जीवन में हम अतीत की गहरी चोट का मातम क्यों मनाते रहना चाहते हैं। प्रेम था। नहीं था। बाध्यता थी। चुनाव की प्राथमिकता थी। सब कुछ तो कहानी में सामने है। सब कुछ तो दिखता है। 

नायक प्रेम में डूबा है। विवाह करने का साहसिक अनुरोध करता है। गंभीर है। इसके समानांतर उसकी ठग गैंग के सदस्य उसकी पूरी जानकारी में नायिका के पिता को ठग रहे हैं। अचानक नायक अपने वास्तविक उद्देश्य के प्रति निष्ठावान हो जाता है। इसको कैसे भूला जा सकता है। इसके बाद अपने स्वास्थ्य के प्रति चिंता करने और जीवन को जैसे भी बेहतर जीया जा सके, जीने के लिए यत्न करने चाहिए। लेकिन नायिका सूखी हुई बाती की तरह जलते हुए बुझ जाने की प्रतीक्षा में स्वयं को डुबो देती है। 

प्रेम एक बार ही है और जीवन भर के लिए है। ऐसा जब भी कोई कहता है तो वह आपको उकसाता है कि एक ही हाल में जीना। सुबकना, रोना, स्वयं को कोसना और मर जाना। 

प्रेम की प्रतिष्ठा का मानक स्वयं को नष्ट करने से स्थापित होता है तो प्रेम के बारे में तुम कुछ नहीं जानते हो।
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मैं फ़िल्म नहीं देखता। मैं खुद को समझा नहीं पाता कि ये सिनेमा है। ये एक रचना है। किंतु जिस तरह, कथा, काव्य, नाट्य, संगीत आदि विधाओं में गहरी अनुभूतियों के बाद भी सहज रहता हूँ, उतना सिनेमा के साथ नहीं रह सकता। 

जब कोई मुझे कहता है कि ये फ़िल्म देखनी चाहिए तब मैं उस पतवार के भरोसे अपनी कश्ती उतारता हूँ। अधिकतर फ़िल्में मुझे पसंद आती है। ये दस एक बरस पुरानी फ़िल्म है। मुझे अच्छी लगी। जिस तरह का कचरा बनाया और सराहा जाता। जिस तरह का सिनेमा बिकता है, उस से सौ गुणा बेहतर फ़िल्म है। 
शुक्रिया। 

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