एक उड़ने वाला गाँव

मिहाई बाबित्स की कथा का एक पात्र भद्र लोगों के शहर में एक संभ्रांत शराबघर में असंभव की हद तक की घृणा और अपने शरणार्थी होने के अकल्पनीय दुःख से भरा हुआ आराम कुर्सी पर बैठा है. वह अभी अभी दोस्त हुए एक आदमी को कहानी सुना रहा है. श्रोता उसको टोकते हुए कुछ पूछता है. कथा के बारे में अचानक अविश्वास से पूछे गए प्रश्न पर कहता है. क्या तुमने कभी हवा में मेज खड़ी कर देने वाला तमाशा देखा है ? प्रश्नकर्ता अपना सर हिला कर हामी भर देता है.

"मेज हवा में कैसे खड़ी हो जाती है. ध्यान करने से, एकाग्र मन से. अगर ध्यान करने से एक साधारण सी मेज हवा में खड़ी हो सकती है तो हम एक मकान नहीं उठा सकते ? एक गाँव नहीं उड़ा सकते ? वह गाँव जहाँ हम बड़े हुए, जहाँ आज भी हमारी आत्मा भटक रही है. विश्वास करिए अगर मेरी तरह आधी रात को आप भी भागे होते, अगर आपने बर्फीली हवा के थपेड़े खाते हुए खुले मैदान में पहाड़ों की शरण में रात बितायी होती, आपके ख़यालों में होता आपका घर, गाँव के पेड़, उस गाँव की चीज़ें और आपने सोचा होता कि कल तो आप उन सबके बीच थे, कल तक तो आपने सपने में भी नहीं सोचा था कि आपको उनको छोड़ कर भागना पड़ेगा तो आप शेख चिल्ली की तरह ख़यालों में खो जाते. आप भी सोचते कि आपके ख़याल आपके घर को क्यों नहीं उड़ा लाये और सारी दुनिया ने आपके ख़यालों का हुक्म क्यों नहीं बजाया."

प्राइमरी के अध्यापक से विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तक का सफ़र करने वाले और न्यूगात के संपादक रहे, बाबित्स इस कहानी में बेघर और अपनी ज़मीन से बेदखल होने के अहसासों गहरी बुनावट है. इसे पढ़ते हुए मैं एक बारगी अपनी इस ज़मीन से लिपट जाने के ख़याल से भर उठता हूँ. आप भी अपने बंगले, घर, फ्लेट या झोंपड़ी में बैठे हों और ये हुक्म मिले कि आपको अब यहाँ से विदा होना होगा. अपने साथ आप उतना ही ले जा सकेंगे जितना आपकी दो भुजाओं में सामर्थ्य है और वक़्त उतना ही दूर है जितनी दूर फौजी बूटों से आती आवाज़. आप सबसे पहले अपने बच्चों के हाथ थामेंगे फ़िर भयभीत पति अथवा पत्नी को दिलासा देती असहाय नज़रों से देखते हुए, अपने माता पिता को खोजने लगेंगे. यह दृश्य आपके ज़हन में आते ही उडीसा, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, गुजरात, नोएडा, थार मरुस्थल का बाड़मेर, उपजाऊ सिंगुर, नमकीन कच्छ, जंगल, भूख, तेंदू पत्ता, खेजड़ियाँ, सागवान, चन्दन, नदियाँ सब भूल जायेंगे. सिर्फ़ एक अदृश्य मुहर आपकी तकदीर पर लगी हुई दिखाई देगी. इस पर लिखा होगा, शरणार्थी.

हावर्ड फास्ट के उपन्यास पीकस्किल के नीग्रो पात्र जिन्हें अपनी ही जगह पर कुत्ते से बदतर जाना और व्यवहार किया जाता था. शरणार्थी न थे. वे अपमान सह रहे और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे काले योद्धा थे. रियोनुसुके अकूतागावा की कहानी शकरकंद की लपसी का लाल नाक वाला नायक 'गोई' बेरहम ज़िन्दगी जीते हुए, उपहास के थपेड़ों से टकराते हुए, किसी एक व्यक्ति का प्रिय हो जाने की ख्वाहिश के साथ, एक दिन के लिए मीठा पकवान खा लेने की हुलस लिए फिरते कुत्ते जैसा होने के बावजूद शरणार्थी नहीं है. राबर्ट लुई स्टीवेंसन का मार्खिम, विद्रूप जीवन से हारा हुआ है. अपने आप को कोसता है लेकिन शरणार्थी नहीं है. इसी तरह जीवन में दुःख सर्वत्र है. दुख का निदान असंभव है. ज्ञान के आलोक में अपनी धरती से प्रेम दुखों का मरहम है. एक बार झुक कर उस मिट्टी को चूम लेना, जिसने जन्म दिया अतुलनीय औषधि है. इस दवा का छीन लिया जाना हद दर्ज़े का ज़ुल्म है. यह सबसे बड़ा दुःख है.

देशों के विभाजन से संक्रमण करने वाले अथवा अपने ही देश में अपनी ज़मीन से बेदखल प्राणी शरणार्थी है. बाबित्स की इस कहानी को कई बार पढने के बाद मेरे मन में ऐसे विचार आये जिनको बड़ा नाकारा कहा जा सकता है. एक विचार आया कि मेरे देश में आज कहानी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कहे जाने वाले लेखकों की प्रतिबद्धताएं किन से जुड़ी है. नौजवान होती पीढ़ी के विवाहपूर्व के सहवास के सम्बन्ध, जिन में एक ही लड़की या लडके के तीन चार बार के दोहराव से प्रेम की खिल्ली उड़ाती हुई कथाएं. गाँव से बेदखल हुए गरीब की घर से भागती हुई बेटियां. उन बेटियों के अंगों का भौतिक रूपांकन. पत्नी के पडौसियों से सम्बन्ध. धार्मिक आस्थाओं को ओढ़े फिरने वाले चरित्रों के पिछवाड़े का फूहड़ वर्णन. प्रेम के नाम पर गुलाबी रोयों पर आख्यान. राजनीति, क्रिकेट और पब का कॉकटेल. समाज की स्फूर्त रगों में दौड़ती गालियों के मुहावरे और एक छायावादी रूपकात्मक अंत. मैं इसे निम्नतम स्तर का मानता हूँ.

गाँव से शहर आये गरीब आदमी को शरणार्थी के रूप में कभी देखा है. वो वक़्त कितना कठिन रहा होगा जब जननी जन्मभूमि से मजबूर कर देने वाली हालातों में बेदखल होना पड़ा होगा. क्या नई पीढ़ी के दुःख की लकीरें राज्य के चेहरे पर दिखाई देती है ? हमारे ऊर्जावान लेखकों ने कभी सोचा है कि नितम्ब एंव उघडे हुए कूल्हों की बातें करते और पेंट की जेब में निरोध लिए फिरते बच्चों के जिस संसार को अपनी कथाओं में रचते हो उसके लिए सुनहरा भविष्य कहां रखा है. वह साहित्य कहां है, जिसमें वन नाईट स्टेंड, फक-यू और फक ऑफ़ के इतर एक बेबस और लाचार दुनिया है. वह कहानी कहां है जिसमें लिखा है कि माओवादी, नक्सलवादी या भगवा पट्टी सर पर बांधे घूमते हुए युवाओं के रोज़गार किसने छीन लिए ? उनके इकहरे पवित्र प्यार की मिठास को कौन निगल गया.

हम आत्म परीक्षण के अभाव में पीत लेखन के बहुत करीब पहुँच गए हैं. नए बहु राष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान जिस तरह का लिखवाना चाह रहे हैं. वह कमोबेश पतनशील साहित्य है. जिस पर तुम यथार्थ का वर्क चढ़ा कर खुश होने का ड्रामा कर सकते हो. कितने लेखकों के पास ऐसे उपन्यास लिखने का कांट्रेक्ट है कि वे एक गरीब अछूत के इकलौते प्रयासों से आर्थिक राजधानी में सर उठा कर जीने का मुकम्मल सपना सच होते लिखेंगे, जंगलों और ज़मीनों से बेदखल हुए लोगों का शहरी समाज की गंदगी में डूबते जाने और उससे उबरने की छटपटाहट को लिखेंगे. जिस आरक्षण से देश के एक बड़े तबके का भला होना था, उसे किसने ज़हर का प्याला बना दिया है. घर में पांडुर पिशाच के साथ अकेली छूट गयी नव सामंत परिवारों की स्त्रियों के दुःख और वेब के पोर्न में उलझे हुए मासूम बच्चों के बचपन के हरण के बारे में लिखने का कांट्रेक्ट किसके पास है. सोचता हूँ कि गाली की स्वीकार्यता, अश्लील का जबरिया श्लीलकरण, स्त्री को कामुक देह और पुरुष को व्यभिचार का पिटारा लिखने वाले आत्ममुग्ध और भीतर से कामलिप्सा से भरे हुए युवा कार्पोरेट लेखकों की बडाई करने वाले बुजुर्ग लेखकों की पीढ़ी के लिए कोई आईना है या नहीं ?

मिहाई बाबित्स के नायक का गाँव, जिससे वह खदेड़ दिया गया था. उसके बेटे के सपनों में आता है. खेत में उगी घास चलने लगती है. गिरजा अपने प्यारे बच्चों से प्यार करने के लिए झुक जाता है. घर अपनी खिडकियों से उन सब फौजियों को बाहर फैंक देते हैं, जिन्होंने उन पर कब्ज़ा कर लिया था. हमारी आत्मा अपनी ज़मीन को पुकारती रहती है. अपने गाँव के ख़्वाब देखता हुआ छोटा सा बेटा सर्द रातों से चार दिन लड़ता हुआ आखिरकार पिता की बाँहों में मर जाता है. इस तरह एक 'उड़न छू गाँव' हर रात उम्मीदों के ख्वाबों से सजा हुआ अपने प्रिय बाशिंदों तक पहुँच जाया करता है. और उस गाँव से निकाला गया हर मनुष्य अपनी अंतिम साँस काल्पनिक रूप से उसी गाँव में लेता है. उसकी आत्मा का अपेक्षित मोक्ष उसकी अपनी जन्मभूमि में है. जिस तरह नए दौर के लेखकों को पढ़ते हुए मैं उदास हो जाता हूँ. उसी तरह बाबित्स की कहानी का नायक कहता है. मनुष्यों के विपरीत इस शराब में आत्मा है.

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