दूर से लगता हूँ सही सलामत



मैं इससे दूर भागता रहता हूँ कि ज़िन्दगी के बारे में सवाल पूछना कुफ्र है. ये क्या सोचते हो? ऐसे तो फिर जीना कितना मुश्किल हो जायेगा? इस सवाल को रहने दो, जब तक है, अपने काम में लगे रहो... इन गैरवाजिब बातों में सुख है. ज़िन्दगी से प्रेम करने लगो तो डर बढ़ता जाता है. उसी के खो जाने का डर, जिससे प्रेम करने लगे हों. अचानक ऊपरी माले में एक सवाल अटक जाता है कि न रहे तो?

साँस घुटने लगती है. बिस्तर पर झटके से उठ बैठता हूँ. सोचता हूँ बच्चों को बाँहों में भर लूं... पत्नी का हाथ थाम लूं. सीधा खड़ा हो जाऊं. अपने सर को पानी झटकते हुए कुत्ते की तरह हिलाऊँ. अपनी सांसों पर ध्यान दूँ कहीं कोई साँस छूट न जाये. ख़ुद से कहता हूँ कि ये दीवानगी है. सब तो खैरियत से हैं. अभी चीज़ों ने ख़ुद को थाम रखा है. थोड़ी देर रुको सब सामान्य होने लगेगा. वह थोड़ी देर नहीं आती. वह समय मीलों दूर है. दोनों हथेलियों को बिस्तर पर टिकाये हुए मुंह खोल कर साँस लेता हूँ. कुछ लम्बी सांसें...

ऐसे अनगिनत दिनों में भय निरंतर पीछा करता रहा. एक उदास दोपहर में दोस्त ने पूछा फिर कैसे छुटकारा होगा ? वह सेडेटिव, जो आपके मस्तिष्क की गति को धीमा करे. फिर नींद एक भारी लिहाफ की तरह ढक ले. आँख खुले तो चेहरों और चीज़ों के प्रति उदासीनता बनी रहे.
सोचता हूँ कि काश भुला ही सकूँ, तुम्हारा नाम... 

ऐसे ही तुम्हें याद करते हुए किसी शाम
मैं आरामकुर्सी पर एक तरफ झुक जाता हूँ
दूर से लगता हूँ सही सलामत
लेकिन होता हूँ वैसा ही, जैसी वे चीज़ें थीं.