ओ लड़के...

सब अजनबी रास्ते, सब अनजाने लोग. अपने ही शहर में चलते फिरते होता है महसूस कि किसी सफ़र पर निकल आया हूँ. तुम नहीं रहती मेरे शहर में, मैंने तुम्हें देखा भी नहीं... मगर फिर भी तुम्हारे सफ़र पर जाते ही मैं अचानक कई बार सड़कों को दूर तक गुम होते हुए, किनारे खड़े दरख्तों पर बैठे पंछियों को और सरकारी इमारतों के आहातों में हरकारों को देखता हूँ, अचरज भरी आँख से. मैं खो जाता हूँ किसी अनजाने शहर में...


तुम न जाने
किस गली से गुज़रना पसंद करो,

इसलिए बसते जाते हैं शहर दूर दूर तक.
* * *

बेतुके ख़्वाबों के सिलसिले में
एक टुकड़े से बुनी थी शक्ल, तुम्हारे घर की
और फिर वह खो गया, उसी ख़्वाब की राह पर.

मगर ये झूठ है कि
मैंने देखा नहीं है तुम्हारा घर, तुम आये नहीं मेरे यहाँ.
* * *

[Image Courtesy : Michael Naples]