परमिंदर

ये हादसा भी होना था।

एक लड़की थी। उसके नाम को बदले बिना स्कूल के दिनों के कहानी लिख दी थी। कहानी पैंतीस साल पहले घटी। उसको लिखा घटना के चौदह साल बाद। किताब छप गयी।

पैंतीस साल बाद अचानक वह फेसबुक पर दिखी। मैं कहानी कहने की ख़ुशी भूल गया। सोचने लगा कि वह कहानी पढ़ेगी तो उसे कैसा लगेगा? मैंने आभा को कहा- "देखो परमिंदर" आभा ने विस्मय भरी आंखों से उसे देखा।

मुझे कहानी याद है लेकिन बेचैन होने लगा। इसलिए कि वह कहानी मैंने जिस तरह समझी और लिखी, उसे परमिंदर कैसे पढ़ेगी? उसे कैसा लगेगा।

रात का पहला पहर जा चुका था फिर भी मेरी पेशानी की सलवटें मानु ने पढ़ ली। वह गयी और कहानी संग्रह ले आई। उसने कहानी पढ़नी शुरू की। मैं भी चाहता था कि कहानी पढ़ी ही जाए। मेरा अपना डर था कि कोई प्रिय हो या अपरिचित हो, उसके बारे में कुछ भी कहना हो, ज़िम्मेदारी बड़ी होती है।

कहानी पढ़ने के बाद आभा और मानु ने कहा। आपने इसमें परमिंदर के लिए तो अच्छा ही लिखा है। आपने कहानी लिखी ही इसलिए है कि कभी परमिंदर मिल जाए तो उसे कहानी के रास्ते बचपन का क्रश याद दिलाया जा सके।

परमिंदर अपने परिवार के साथ खड़ी थी। आभा कह रही थी। उसकी बेटी भी बहुत प्यारी है। मानु के पास अपनी चुहल थी। कहानी के पात्रों के बारे में पूछती कि ये आप हो? वो कौन है? ऐसा सचमुच था?

मैं लेकिन आकाश में तारे देखता हुआ सोचता रहा कि परमिंदर कहानी पढ़ेगी तो क्या होगा?

परमिंदर के इंतज़ार में ठहरा हुआ समय ग्यारहवीं कक्षा की उदास धूल भरी बैंचों पर बैठा रहा। लेकिन अचानक ये क्या हुआ?
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इस तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में लालच, चाहना और कामना से भरा मैं कई लोगों से मिला और बिछड़ा लेकिन उनमें से किसी के भी बारे में छोटी सी टिप्पणी भी न लिखी। इसलिए कि मैं जानता हूँ, लिखे हुए को मिटाया न जा सकेगा। कभी जब हम अलग सोचेंगे, पुरानी बातों पर हंसेंगे तब सम्बन्धों के बारे में लिखा हुआ मिटा देना चाहेंगे, लेकिन कैसे मिटायेंगे?

ग्यारहवीं कक्षा के दिनों की कहानी जब लिखी तब समझ कम थी। समझ अब भी नहीं है कि ये सब लिखकर साझा कर रहा हूँ। लेकिन मैं चाहता हूँ कि मेरे दोस्त ये जानें कि कभी कुछ लिखो तो सोचना कि उसे मिटाओगे कैसे?
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