ये ही वो समय है

सारे आदेश मसखरी थे
सब हत्याएं हादसा थी।

सड़क पर कुचले गए कुत्ते के पास एक शोकमग्न कुत्ता अंतिम बार उसे सूंघ रहा था। एक आदमी के क्षत विक्षत शव पर दूजे ने कहा हरामी की अंतड़ियां बिखर गई।

यह एक स्थानीय किन्तु वैश्विक बात थी।
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बच्चे क़ैदी थे। नौजवान सिपाही तमाशबीन थे। अधेड़ अधिकारी थे। न्याय के विलम्ब में मौन कोलाहल पसरा रहता। सुख भरी शांति केवल तब प्रस्फुटित होती, जब बच्चों के बयान से साफ़ हो जाता कि उनको जन्म देने वाली माएँ अपराधी थी।

पंच तत्वों से बनी दुनिया में हवा में उड़ाया जाता, पानी की कैनल दागी जाती, नफ़रत की आग भड़काई जाती, भूमि से भार हटाया जाता और आकाश को झूठ के बांस से अधिक ऊंचा उठाया जाता।

स्त्रियां यौनि थी, पुरुष लिंग थे, बच्चे अंगदानकर्ता थे। कवि मसखरे थे। मसखरे विद्वान थे। विद्वान अपराधी थे। न्याय अंधा था।

राजा कौन थे? ये सब जानते थे। मगर चुप थे। कि सब घरों में बच्चे थे।

सीरिया के बच्चे युद्ध लड़ रहे थे। अफ्रीका के बच्चे भूख से लड़ रहे थे। अफगानिस्तान के बच्चे रॉकेट लांचर का भार उठाये थे। बाकी बच्चे नफ़रत के अलाव से अपना दिमाग़ सेक रहे थे।

पिछली सदी के नौवें दशक में कार्ला हिल्स ने कहा था कि हम नस्लों की पहचान कर रहे हैं। बीस बरस बाद पूरी दुनिया इसी काम में खो गयी थी।

आदम की नस्ल की खोज जारी थी। अधिक उदास होने की ज़रूरत नहीं थी कि हर धर्म कहता था अन्याय और आतंक अपने कर्मों से मारे जाएंगे। इसलिए लोग प्रार्थनाओं में लगे थे।

बच्चे फ़ौज़ी टैंकों के सामने खड़े थे।
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